– योगेश कुमार गोयल
देश की बालिकाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने और समाज में बालिकाओं के साथ होने वाले भेदभाव के बारे में देशवासियों को आगाह करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 24 जनवरी को ‘राष्ट्रीय बालिका दिवस’ मनाया जाता है। परिवारों में बेटा-बेटी के बीच भेदभाव और बेटियों के साथ परिवार में प्रायः होने वाले अत्याचारों के खिलाफ समाज को जागरूक करने के लिए देश की आजादी के बाद से ही प्रयास होते रहे हैं। हालांकि एक समय ऐसा था, जब अधिसंख्य परिवारों में बेटी को परिवार पर बोझ समझा जाता था और इसीलिए बहुत सी जगहों पर तो बेटियों को जन्म लेने से पहले ही कोख में ही मार दिया जाता था। यही कारण था कि बहुत लंबे अरसे तक लिंगानुपात बुरी तरह गड़बड़ाया रहा। यदि बेटी का जन्म हो भी जाता था तो उसका बाल विवाह कराकर उसकी जिम्मेदारी से मुक्ति पाने की सोच समाज में समायी थी।
आजादी के बाद से बेटियों के प्रति समाज की इस सोच को बदलने और बेटियों को आत्मनिर्भर बनाकर देश के प्रथम पायदान पर लाने के लिए अनेक योजनाएं बनाई गईं और कानून लागू किए गए। उसी का नतीजा है कि अब बालिकाएं भी हर क्षेत्र में बेटों के साथ कंधे से कंधे मिलाकर राष्ट्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। आज लगभग हर क्षेत्र में बालिकाओं की भी हिस्सेदारी है और अब तो वे सेना में भी अपना पराक्रम दिखा रही हैं। बालिका शिक्षा के महत्व, उनके स्वास्थ्य तथा पोषण के बारे में जागरूकता फैलाने और बालिका अधिकारों के बारे में समाज को जागरूक बनाने के लिए वर्ष 2008 में बाल विकास मंत्रालय द्वारा हर साल 24 जनवरी को राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाए जाने का निर्णय लिया गया था और पहली बार साल 24 जनवरी 2009 को देश में राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया गया।
24 जनवरी को ही यह दिवस मनाए जाने की शुरुआत के पीछे प्रमुख कारण यही था कि वर्ष 1966 में इसी दिन इंदिरा गांधी भारत की पहली प्रधानमंत्री बनी थीं। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य भारत की बालिकाओं को सहायता और अवसर प्रदान करते हुए उनके सशक्तिकरण के लिए उचित प्रयास करना है। बालिकाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए आजादी के बाद से ही सरकारों ने निरन्तर कदम उठाए हैं। समाज में लड़का-लड़की के भेदभाव को खत्म करने के उद्देश्य से ही बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, लड़कियों के लिए मुफ्त अथवा रियायती शिक्षा, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में महिलाओं के लिए आरक्षण जैसे अनेक अभियान और कार्यक्रम शुरू किए गए। ऐसे ही प्रयासों का नतीजा है कि आज लगभग हर क्षेत्र में बालिकाओं को बराबर का हक दिया जाता है लेकिन फिर भी समाज में उनकी सुरक्षा के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
भले ही बालिकाओं के साथ होने वाले अपराधों के खिलाफ कई कानून बनाए जा चुके हैं और ‘सेव द गर्ल चाइल्ड’ जैसे अभियान चलाए जा रहे हैं, फिर भी समाज में बालिकाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों का सिलसिला कम होने के बजाय लगातार बढ़ रहा है। बालिका दिवस मनाने का मूल उद्देश्य यही है कि बालिकाओं के लिए एक ऐसा समाज बनाया जाए, जहां उनके कल्याण की ही बात हो लेकिन जिस प्रकार देशभर में बच्चियों और किशोरियों के साथ छेड़खानी, दुर्व्यवहार तथा बलात्कार के मामलों में निरन्तर बढ़ोतरी हो रही है, ऐसे में काफी चिंताजनक तस्वीर उभरती है।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2013 से 2017 के बीच दुनियाभर में लिंग चयन के जरिये 14.2 करोड़ को जन्म लेने से पहले ही कोख में ही मार दिया गया, जिनमें 4.6 करोड़ ऐसी भ्रूण हत्याएं कड़े कानूनों के बावजूद भारत में हुई। लिंगानुपात के मामले में स्थिति में कुछ सुधार अवश्य हुआ है लेकिन फिर भी केरल को छोड़कर अन्य राज्यों में स्थिति अभी भी संतोषजनक नहीं है। हालांकि ऐसा नहीं है कि आजादी के बाद से बालिकाओं की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है बल्कि वे हर क्षेत्र में अपनी सशक्त भागीदारी निभाती दिख रही हैं लेकिन यह भी सच है कि उन्हें स्वयं को साबित करने के लिए बालकों के मुकाबले ज्यादा संघर्ष का सामना करना पड़ता है।
एनसीआरबी के मुताबिक बालिका दिवस शुरू करने के बाद वर्ष 2009 में महिलाओं के प्रति अत्याचारों में 4.05 फीसदी, 2010 में 4.79, 2011 में 7.05, 2012 में 6.83 फीसदी की वृद्धि हुई और उसके बाद भी अत्याचारों का यह सिलसिला कम होने बजाय लगातार बढ़ता गया है। विभिन्न रिपोर्टों से यह तथ्य भी सामने आते रहे हैं कि देश में हर 16 मिनट में एक बलात्कार होता है, प्रतिदिन औसतन 77 मामले शारीरिक शोषण के दर्ज होते हैं और करीब 70 फीसदी महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं। 2021 और 2022 में तो महिलाओं के प्रति अपराधों में बहुत ज्यादा वृद्धि दर्ज हुई। बालिकाओं की तस्करी के मामलों में भी तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। शायद कोई दिन ऐसा नहीं बीतता, जब मासूस बच्चियों के साथ भी बलात्कार जैसी खबरें सुनने को नहीं मिलती हों। कुछ मामलों में तो दरिंदों द्वारा बलात्कार के बाद मासूम बच्चियों को जान से मार दिया जाता है।
बहरहाल, बालिका दिवस मनाए जाने की सार्थकता तभी होगी, जब बालिकाओं के प्रति होते भेदभाव के अलावा उनके प्रति समाज का दृष्टिकोण बदलने के भी गंभीर प्रयास हों और समाज में उन्हें भयमुक्त वातावरण प्रदान करने के लिए गंभीरता से कदम उठाए जाएं। आज भी कन्या भ्रूण हत्या से लेकर लैंगिक असमानता और यौन शोषण तक बालिकाओं से जुड़ी समस्याओं की कोई कमी नहीं है। लैंगिक भेदभाव समाज में आज भी एक बड़ी समस्या है, जिसका सामना बालिकाओं या महिलाओं को जीवनभर करना पड़ता है। बालिका दिवस जैसे आयोजनों की सार्थकता तभी होगी, जब न केवल बालिकाओं को उनके अधिकार प्राप्त हों बल्कि समाज में प्रत्येक बालिका को उचित मान-सम्मान भी मिले। समाज में यह सोच विकसित करने की दरकार है कि यही बालिकाएं न केवल हमारा बेहतरीन आज हैं बल्कि देश का सुनहरा भविष्य भी हैं।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)