– डॉ. मयंक चतुर्वेदी
देशभर से लगातार कुछ इस तरह के समाचार प्रतिदिन आ रहे हैं कि कैसे प्रार्थना के नाम पर मतांतरण का खेल भारत के अलग-अलग राज्यों में खेला जा रहा है। स्वाधीनता के पूर्व ऐसे समाचार आना हो सकता है स्वभाविक हों, क्योंकि कोई भी केंद्रीय राज सत्ता नहीं थी, किंतु क्या देश में स्वतंत्रता के बाद भी ऐसे दृश्य उभरने चाहिए ? यह आज का बड़ा प्रश्न है। झारखंड के रांची में सुखदेव नगर इलाके में मतांतरण के आरोप में पुलिस ने पांच महिलाओं को हिरासत में लिया है। छत्तीसगढ़ के धमतरी में प्रार्थना सभा के विरोध में ग्रामीण पुलिस से मांग करते हैं कि गांव में बाहरी लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया जाए, ताकि गांव में प्रार्थना सभा न हो। क्योंकि बाहरी लोग ग्रामीणों को रुपये का लालच देकर मतांतरण कराने की कोशिश कर रहे हैं।
मध्य प्रदेश के खंडवा में ”नाम राम और धर्म क्रिश्चियन कैसे इसकी हो जांच” शीर्षक से खबर छपी। राज्य में घटे इस पूरे प्रकरण को देखिए। खंडवा के आनंद नगर स्थित सेंट पायस स्कूल में यूथ फेस्टिवल का आयोजन किया जाता है । कहा गया कि यह व्यक्तित्व व चरित्र विकास को लेकर आयोजित कार्यक्रम है, जिसमें निमाड़ भर से ईसाई समाज के युवाओं को बुलाया गया। राज्य के जिले खरगोन, बड़वानी व सेंधवा के करीब 1000 आदिवासी युवा मिशनरी वाहनों से खंडवा पहुंचते हैं । जब हिन्दुओं को इस आयोजन की खबर लगती है, तब वे ईसाई मिशनरी पर समाज सेवा की आड़ में धर्म परिवर्तन कराने की बात मीडिया के बीच कहते हैं । वे पुलिस से जांच कराने की मांग रखते हैं कि जिनका नाम हमारे आराध्य भगवान श्रीराम के नाम पर हैं, ऐसे राम और रोहित कैथोलिक क्रिश्चियन कैसे हो सकते हैं? उनके पेरेंट्स हिंदू थे। उनका मत (धर्म) परिवर्तन करवाया गया।
सतना जिले के अमरपाटन में स्थित कुचबंदिया मोहल्ला कभी दलितों की बस्ती थी लेकिन आज यहां अधिकांश इसाई रहते हैं। क्योंकि अधिकांश सदस्यों का मतांतरण हो चुका है। मतांतरण का ये काम चर्च ऑफ नॉर्थ इंडिया के जबलपुर डायोसिस ने किया है। डायोसिस ने खुद अपनी वेबसाइट पर लिखा है कि अमरपाटन में उसके सेंट स्टीफन चर्च ने ये कारनामा किया है। चर्च के पादरी दयाल सिंह ने बस्ती के 20 लोगों को धन का लालच एवं अन्य लाभ देकर उन्हें बैप्टाईज्ड करके यानि पवित्र जल पिलाकर जीजस का अनुयायी बना दिया। अब तक बिशप पीसी सिंह पर चर्च की जमीनों और राशि में करोड़ों के गबन सहित धार्मिक संस्थाओं को अवैध रूप से फंड ट्रांसफर का अपराध दर्ज है।
विषय यह है कि ईसाई मत को मानने वाले आखिर क्यों लालच देकर, सेवा के नाम पर मतांतरण कर रहे हैं ? वास्तव में सही अर्थों में यह हम सभी को आज समझने की आवश्यकता है। एक व्यक्ति के अपना मत, पंथ या मजहब बदलने के मायने क्या होते हैं, वह इससे समझा जा सकता है कि देश में अनेक राज्यों को आखिरकार इसे रोकने के लिए कानून बनाने पड़े हैं। मत-पंथ बदलने से सिर्फ नाम ही नहीं बदलता है, बल्कि संस्कृतियां, उनके रहन-सहन, रीति-रिवाज यहां तक कि नाम तक बदल जाते हैं। कल तक जो प्रकृति पूजक थे, आज अचानक से कोई चिह्न लेकर घूमते नजर आते हैं। एक झटके में उनका अब तक का संचित परम्परागत संसार चकनाचूर हो जाता है।
मतांतरण उपासना पद्धति बदलने तक सीमित नहीं। अपने पूर्वजों के प्रति भाव बदल जाता है। पहले पूज्य पूर्वजों को देखने का नजरिया ऐसा हो जाता है कि पलक झपकते ही वे अब घृणा के पात्र बन जाते हैं । इसलिए ही विद्वतजन कहते हैं कि मतांतरण वास्तविकता में राष्ट्रांतरण है। शायद यही वजह रही होगी जो डॉ. भीमराव अम्बेडकर भी इस विषय को लेकर बेहद गंभीर नजर आए। इसलिए वे कहते हैं कि ‘धर्म तभी कार्य कर सकता है अगर वो बुद्धि और तर्क पर आधारित हो। जो धर्म विज्ञान के विरोध में हो, वो कैसे कार्य कर सकता है। नैतिकता के सवाल पर अंबेडकर लिखते हैं कि ”धर्म में सिर्फ नैतिकता होना ही पर्याप्त नहीं है। मायने ये रखता है कि वो नैतिकता क्या कहती है। एक सच्चे धर्म की नैतिकता में स्वतंत्रता और समानता जैसे जीवन के मूलभूत सिद्धांत शामिल होने ही चाहिए।” उनके हिसाब से एक व्यक्ति के विकास के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है- करुणा, समानता और स्वतंत्रता। यहां डॉ. अम्बेडकर जो कह रहे हैं, उससे ईसाई पंथ के साथ जरा तुलना की जानी चाहिए। ईसाईयत में समानता की मौखिक बात की जाती है, क्या वास्तव में उसमें समानता है भी ? विचार करें।
उनका मान्य दर्शन एवं ग्रंथ बाइबिल को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए। बाइबिल का कहना है कि परमेश्वर ने पृथ्वी बनाई है । इसमें एक-एक वाक्य सत्य लिखा है और वह पवित्र है। अब जरा गौर करें, बाइबिल कहती है कि पृथ्वी की उत्पति ईसवी जन्म से पूर्व 4004 वर्ष पहले हुई, अर्थात बाइबिल के अनुसार अभी तक पृथ्वी की उम्र 6021 वर्ष हुई जबकि विज्ञान के अनुसार(कॉस्मोलॉजि) पृथ्वी 4.8 बिलियन वर्ष की है जो बाइबिल में बताए हुए वर्ष से बहुत अधिक है। यानी बाइबिल शुरू से ही झूठ का प्रसार कर रही है।
जब”ब्रूनो” ने कहा, पृथ्वी सूरज की परिक्रमा लगाती है तो चर्च ने ब्रूनो को ”बाइबिल” को झूठा साबित करने के आरोप में जिन्दा जला दिया था और गैलीलियो को इसलिए अंधा कर दिया गया क्योंकि उसने कहा था, पृथ्वी के आलावा और भी ग्रह हैं, जो बाइबिल में लिखे से समानता नहीं रखता था । यानी आप जब भी बाइबिल पढ़ते हैं तब अनेक ऐसे झूठ आपके समक्ष उपस्थित हो जाते हैं। ईसाईयत पूर्णतः रंगभेद (श्वेत-अश्वेत ) और जातिगत आधारित है । क्रिश्चियनिटी समानता के स्तर पर भी भेदभाव करती है । विश्व के अनेक देशों की तरह भारत में कैथलिक चर्च ने अपने ‘पॉलिसी ऑफ दलित इम्पावरन्मेंट इन द कैथलिक चर्च इन इंडिया’ रिपोर्ट में यह मान लिया है कि चर्च में छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है ।
पिछले दिनों मतान्तरित ईसाइयों के एक प्रतिनिधिमंडल ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव के नाम एक ज्ञापन दिया था जिसमें साफ तौर पर आरोप लगाते हुए कहा गया; कैथोलिक चर्च और वेटिकन दलित ईसाइयों का उत्पीड़न कर रहे हैं । जातिवाद के नाम पर चर्च संस्थानों में मतान्तरित ईसाइयों के साथ लगातार भेदभाव किया जा रहा है। उन्हें चर्च में बराबर के आधिकार उपलब्ध कराए जाएं। अगर वह ऐसा नहीं करते हैं, तो संयुक्त राष्ट्र में वेटिकन को मिले स्थाई अबर्जवर के दर्जे को समाप्त कर दिया जाना चाहिए।
ईसाई संगठन ”पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट ने कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ऑफ इंडिया” ने पोप जॉन पॉल, पोप बेनडिक्ट और वर्तमान पोप फ्रांसिस को कई बार पत्र लिखकर मांग की है कि करोड़ों मतान्तरित ईसाइयों के साथ किये गये अन्याय एवं शोषण के बदले कैथोलिक चर्च उन्हें मुआवजा दे। यानी इससे यह बात साफ हो जाती है कि भारत में जिन्होंने समानता, करुणा और स्वतंत्रता के नाम पर और धन के लालच से मुक्त मतान्तरण स्वीकार्य किया वे सभी भी आज ईसाईयत के कुचक्र में अपने को फंसा हुआ पा रहे हैं। उन्हें यह साफ लगता है कि वे ठग लिए गए हैं। न तो उनकी सामाजिक स्थिति बदली है और ना ही उन्हें अब तक समानता का अधिकार मिल सका है।
यह तो हुई ईसाईयत के बीच के लोगों की बात। इसके इतर एक पक्ष और है। भारत में तमाम हिन्दू अपने बच्चों को मिशनरी स्कूल में पढ़ाना अपनी शान समझते हैं और उनकी अज्ञानता ईसाई पंथ और यीशु के प्रति लगाव दिखाती है। इसे इतिहासकार सीताराम गोयल यीशु के प्रति अनेक हिन्दुओं के लगाव को उनकी कमजोरी के रूप में देखते है। वे कहते हैं, हिन्दुओं की इस कमजोरी का भरपूर लाभ उठाकर ही राइमुन्डो पनिक्कर (The Unknown Christ of Hinduism), एम. एम. थॉमस (The Acknowledged Christ of the Indian Renaissance), के. वी. पॉल पिल्लई (India’s Search for the Unknown Christ), एलिसाबेथ क्लेर प्रोफेट (The Lost Years of Christ), केथलिन हिली (Christ as Common Ground: A Study of Christianity and Hinduism) इत्यादि ईसाई लेखक हिन्दू धर्म में यीशु को जबरन घुसेड़ने में सफल हो जाते हैं।
सीताराम गोयल का कहना है कि, ”The West, where he [Jesus] flourished for long, has discarded him as junk. There is no reason why Hindus should buy him. He is the type of junk that cannot be re-cycled. He can only poison the environment”. यानी कि ”पश्चिमी जगत ने, जहां वह [यीशु] एक लम्बे समय तक फूला-फला, उसको अब कबाड़-कचरा समझकर फेंक दिया है। इसलिए कोई कारण नहीं है कि हिन्दू समाज उस कबाड़ को खरीदे। वह ऐसा कबाड़ है जिसे रि-सायकल नहीं किया जा सकता; वह केवल वातावरण को प्रदूषित ही कर सकता है।” (Jesus Christ: An Artifice for Aggression, पृ. 85)।
कहना होगा कि इतना सब होते हुए भी भारत में आज भी मतान्तरण का खुला खेल चल रहा है। राम कब रोमी बन जाता है, पता ही नहीं चलता। राज्य सरकारों के तमाम मतान्तर विरोधी कानून और भारतीय संविधान प्रदत्त एक सुनिश्चित व्यवस्था को दरकिनार कर खुले में ईसाई मतान्तरण चल रहा है। जो भी इस सत्य के प्रकाश में आवाज उठाए, पहले उसे ही दबाने का प्रयास होता है। ऐसे में एक बार फिर महात्मा गांधी के कहे शब्द याद आ जाते हैं ।
वस्तुत: डॉ. अम्बेडकर की तरह ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी धर्म को लेकर बड़े सजग रहे। मतान्तरण के वे कितने बड़े विरोधी थे वह उनके अनेक भाषणों एवं यंग इंडिया, नवजीवन समेत विभिन्न समाचार पत्रों में लिखे लेखों से पता चलता है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में विद्यालय में पढ़ते समय को उल्लेखित करते हुए लिखा, ” उन्हीं दिनों मैने सुना कि एक मशहूर हिन्दू सज्जन अपना धर्म बदल कर ईसाई बन गये हैं । शहर में चर्चा थी कि बपतिस्मा लेते समय उन्हें गोमांस खाना पड़ा और शराब पीनी पड़ी । अपनी वेशभूषा भी बदलनी पड़ी तथा तब से हैट लगाने और यूरोपीय वेशभूषा धारण करने लगे । मैने सोचा जो धर्म किसी को गोमांस खाने, शराब पीने और पहनावा बदलने के लिए विवश करे वह तो धर्म कहे जाने योग्य नहीं है । मैने यह भी सुना नया कनवर्ट अपने पूर्वजों के धर्म को उनके रहन-सहन को तथा उनके देश को गालियां देने लगा है। इस सबसे मुझसे ईसाईयत के प्रति नापसंदगी पैदा हो गई ।” ( एन आटोवायोग्राफी आर द स्टोरी आफ माई एक्सपेरिमेण्ट विद ट्रूथ, पृष्ठ -3-4 नवजीवन, अहमदाबाद)।
गांधीजी का स्पष्ट मानना था कि ईसाई मिशनरियों का मूल उद्देश्य भारत की संस्कृति को समाप्त कर भारत का यूरोपीयकरण करना है । उनका कहना था कि भारत में आम तौर पर ईसाईयत का अर्थ है भारतीयों को राष्ट्रीयता से रहित बनाना और उसका यूरोपीयकरण करना । इसलिए महात्मा गांधी ने क्रिश्चियन मिशन पुस्तक में कहा है कि ”भारत में ईसाईयत अराष्ट्रीयता एवं यूरोपीयकरण का पर्याय बन चुकी है। (क्रिश्चियम मिशन्स, देयर प्लेस इंडिया, नवजीवन, पृष्ठ-32)। उन्होंने जोर देकर यह भी कहा कि ईसाई पादरी अभी जिस तरह से काम कर रहे हैं उस तरह से तो उनके लिए स्वतंत्र भारत में कोई भी स्थान नहीं होगा । गांधीजी की दृष्टि से मतान्तरण (कन्वर्जन) मानवता के लिए भयंकर विष है। उन्होंने बार -बार कहा कि धर्मांतरण महापाप है और यह बंद होना चाहिए । ” लेकिन दुर्भाग्य है कि महात्मा के देश में यह खुले तौर पर चल रहा है।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार न्यूज एजेंसी से संबद्ध हैं।)