– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
सोशल मीडिया पर आए दिन इस तरह की तस्वीर देखने को मिल जाएगी जिसमें ड्राइंग रूम में तो परिवार के लगभग सभी सदस्य बैठे हैं पर उनके बीच किसी तरह के संवाद की बात करना ही बेमानी होगा। सभी अपने-अपने स्थान पर अपने मोबाइल फोन में खोये मिलेंगे। खोये होने का मतलब साफ है कि कोई गेमिंग कर रहा होगा तो कोई इंस्टाग्राम, फेसबुक, व्हाट्स ऐप या इसी तरह के किसी दूसरे ऐप पर व्यस्त होगा। सवाल साफ है कि जो हम देखेंगे उसमें हमें पसंद भी वो ही आएगा जो अधिक ग्लैमरस होगा और यही कारण है कि गेमिंग, चैटिंग या फिर रील्स बनाने देखने में बच्चों से बड़े तक व्यस्त मिलेंगे।
इसके साथ ही गेमिंग जहां बच्चों-बड़ों को लालच दिखाकर एक तरह से जुआरी बना रही है वहीं कुछ गेम तो इस कदर हानिकारक रहे हैं कि उन्हें फॉलों करते करते बच्चों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा है। सोशियल मीडिया, ओटीटी व गेमिंग के साथ ही गूगल बाबा सहित खोजी चैनलों, डिजिटल प्लेटफार्म खोजी सामग्री तो कोई समाचार देखते-देखते ही कितने तरह के विज्ञापन सामने आ जाते हैं उनमें कई बार तो लगभग प्रोन जैसी सामग्री होने के बावजूद मजे से परोसी जाती रहती है और उसे बैन करने या सेंसर करने का कोई सिस्टम नहीं होने से उसका दुष्प्रभाव साफ देखा जाता है।
भले ही सरकार द्वारा इस तरह के चैनलों, प्लेटफार्म, ऐप आदि पर रोक लगाने के लाख दावे किए जाते हों पर साफतौर से इस तरह की सामग्री आम है। इसके साथ ही इन प्लेटफार्माें पर परोसी जाने वाली सामग्री बच्चों तक नहीं पहुंचे या बालमन पर को प्रदूषित नही करे, इसकी कोई व्यवस्था नहीं होती है। जब इन प्लेटफार्मों पर हिंसा, यौन सामग्री, गेमिंग, संवेदनहीनता, तनाव, आत्महत्या या बदले की भावना प्रेरित करने वाली सामग्री परोसी जाएगी तो उसका प्रभाव से नकारा नहीं जा सकता। दरअसल यह विश्वव्यापी समस्या हो गई है और इसका समाधान समय रहते नहीं खोजा गया तो इसके जो दुष्परिणाम आएंगे व आने लगे हैं वे समाज के लिए भयावह होंगे, इस खतरे को समझना होगा।
तस्वीर का एक पक्ष यह भी है कि एक-दूसरे से तत्काल संवाद कायम करने का माध्यम स्मार्टफोन, सोशियल मीडिया और इंटरनेट पर परोसी जाने वाली सामग्री का सर्वाधिक दुष्प्रभाव बालक मन पर पड़ रहा है। तकनीक का इस तरह का दुष्प्रभाव संभवतः इतिहास में भी पहले कभी नहीं रहा है। दरअसल आज हम हर समस्या का समाधान स्मार्टफोन और इंटरनेट को मानने लगे हैं। बच्चा रो रहा है या किसी बात के लिए जिद कर रहा है या चिड़चिड़ा हो रहा है तो माताएं या परिवार के कोई भी सदस्य बच्चे को चुप कराने या मनबहलाव और खास यह कि बच्चे को व्यस्त रखने के लिए मोबाइल संभला देते हैं। जबकि मोबाइल के दुष्प्रभाव हमारे सामने आने लगे हैं।
अमेरिका में पिछले दिनों हुए एक सर्वे में सामने आया कि मोबाइल फोन, टैबलेट, वीडियो गेम या अन्य इस तरह के साधन के उपयोग से बच्चे गुस्सैल होते जा रहे हैं। बच्चों द्वारा स्कूल में गोलीबारी सहित एक-दूसरे से मारामारी-हाथापाई व इस तरह की घटनाएं आम होती जा रही है। मारधाड़, हमेशा गुस्से में रहने, तनाव में रहने और जिद्दी होना आज आम होता जा रहा है। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में हुए एक अध्ययन में भी साफ हो गया है कि शहरी बच्चे, गेमिंग, सोशियल मीडिया और ओटीटी प्लेटफार्म के आदी होते जा रहे हैं। इसका परिणाम यह होता जा रहा है कि बालक मन संवेदनहीन होता जा रहा है। हमेशा तनाव, डिप्रेशन, आक्रामकता, गुस्सैल, बदले की भावना आदि आम है। ऐसे में मनोविज्ञानियों के सामने नई चुनौती आ जाती है। यह असर कमोबेश लड़कों और लड़कियों दोनों में ही समान रूप से देखा जा रहा है। यह कोई हमारे देश की समस्या हो, ऐसा भी नहीं हैं अपितु दुनिया के लगभग सभी देशों में यही हो रहा है। अमेरिका में किए गए एक अध्ययन में भी यही उभर कर आया है।
कोई दोराय नहीं कि विकास समाज की आवश्यकता है। स्मार्ट फोन व इंटरनेट की दुनिया का अपना महत्व है। पर इनके दुष्प्रभाव भी सामने आने लगे हैं। प्लेटफार्मोंं पर चाइल्ड लोक की बात भी की जाती है पर चाइल्ड लोक कितना कारगर है यह हम सब अच्छी तरह से जान और समझ सकते हैं। मजे की बात तो यह है कि मोबाइल फोन, टैब, कम्प्यूटर, सोशियल मीडिया प्लेटफार्म आदि के फीचर्स व उपयोग का तरीका बड़ों से ज्यादा बच्चों को आता है। यहां तक कि प्ले ग्रुप के बच्चे को भी यह जानकारियां होने लगी हैं। ऐसे में इन पर परोसी जाने वाली सामग्री को सेंसर करने या इससे बच्चों और बालपन को दूर रखने की बात बेमानी होती जा रही है। समाज विज्ञानियों, मनोविश्लेषकों, चिकित्सकों यहां तक शिक्षाविदों के सामने यह गंभीर चिंतनीय चुनौती सामने आ रही है।
आज बच्चे के सामने दो विकल्प एक मोबाइल फोन या सोशियल मीडिया पर सफरिंग और दूसरा परिवार के साथ गप्पे लड़ाना या आउटडोर गेम्स जैसा विकल्प होगा तो बच्चे की पहली पसंद मोबाइल फोन व सोशियल मीडिया पर सफरिंग ही होती जा रही है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है और दूसरा यह कि गरीब हो या अमीर सभी घर परिवारों के हालात लगभग यही है। दरअसल आज समय के बदलाव को इस तरह से समझा जा सकता है कि तीन से चार दशक पहले मोहल्ले में एक फोन होता था, ट्रंक काल में तो घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती थी वहीं फिर एसटीडी का युग आया और एसटीड़ी बूथों का अंबार लग गया उसके बाद पेजर युग को अलग कर भी दिया जाए तो मोबाइल युग ने घर-घर ही नहीं अपितु परिवार के लगभग सभी सदस्यों तक पहुंच बना ली है। ऐसे में इसके लाभ के साथ ही साइड इफैक्ट जो हमारे सामने आ रहे हैं उनका समाधान खोजना भी सबका दायित्व हो जाता है।
बच्चे को चुप कराने से लेकर उसे व्यस्त रखने तक के लिए मोबाइल की घुट्टी पिलाई जाने लगी है और लोरी की जगह मोबाइल ने ले ली है तो फिर हमें बालमन पर इसके पड़ रहे दुष्प्रभाव से दोचार होने के लिए तैयार रहना होगा। देखा जाए तो पूरा सामाजिक ताना-बाना ही बदल गया है। एकल परिवार, आने वाले समय में चाचा-चाची, मौसा-मौसी या इसी तरह के रिश्तों की तलाश आदि सामने आने लगी है। शादी विवाह आदि पारिवारिक फंक्शन तक अब औपचारिक होते जा रहे हैं। बारात के समय पहुंचना, खाना-खाना, लिफाफा थमाना तक रिश्ते सीमित हो गए हैं। ऐसे में समाज के सामने गंभीर समस्याएं आती जा रही हैं। ऐसे में मोबाइल या सोशियल मीडिया प्लेटफार्म आने वाली पीढ़ी को कहां ले जाएंगे यह भयावह तस्वीर कल्पना में नहीं अपितु हमारे सामने आती जा रही है। समय रहते विकास और विनाश के बीच कोई रास्ता तलाशना ही होगा।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)