– आर.के. सिन्हा
दिल्ली के शिक्षामंत्री मनीष सिसोदिया अपने आप को किसी महान शिक्षाविद् से कम नहीं मानते। उनके विधानसभा क्षेत्र में, जिधर उनका दफ्तर है, उससे सटे दिल्ली सरकार के एक स्कूल के शिक्षक ने अपने 15 साल के छात्र की ऐसी बेरहमी से पिटाई की कि किसी का भी कलेजा कांप उठेगा। उस कथित अध्यापक ने बच्चे को इतना पीटा कि उसे सीरियस हालत में अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। छात्र का दोष सिर्फ इतना था कि वह होमवर्क का नोटबुक घर पर भूल गया था।
विगत दिनों जब इस घटना का खुलासा हुआ तो सभी के होश उड़ गए। रात को बच्चा ट्यूशन से घर लौटा तो उसके कान में दर्द उठने लगा। थोड़ी देर में उसकी तबीयत ज्यादा बिगड़ गई। उसके माता-पिता उसे अस्पताल ले गये। जहां तीन दिनों तक उसका इलाज करके उसकी जान तो बचा ली गई पर कान का नुकसान वह जिंदगी भर झेलेगा। वह बहरा हो जाये तो उस शिक्षक का क्या जिसने मार-मार कर बच्चे के कान के परदे फाड़ डाले हों। अब बताइये कि इस तरह के शिक्षकों का क्या इलाज किया जाये। शिक्षक जंगलियों की तरह अपने विद्यार्थियों को मारना कब बंद करेंगे। आप लगातार शिक्षकों के अपनी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों के साथ मारपीट करने की घटनाएं सुनेंगे। इन्हें मिलने वाली ट्रेनिंग में कोई न कोई कमी रह जाती है जिसके चलते कुछ कथित अध्यापकों का व्यवहार जंगलियों जैसा हो जाता है।
कुछ समय पहले पंजाब के लुधियाना शहर से भयानक खबर थी कि वहां छोटी और चुस्त पैंट पहनने को लेकर एक स्कूल में प्रिंसिपल एवं एक शिक्षक द्वारा पूरी कक्षा के सामने कथित पिटाई और अपमान किए जाने से आहत नाबालिग छात्र ने फांसी लगाकर आत्महत्या ही कर ली। अब भी अपने विद्याथियों को कक्षा में मुर्गा बनाना, धूप में खड़ा करना, बुरी तरह से पीटना या फिर उन्हें उनकी जाति या चेहरे- मोहरे से बुलाना जारी है। पर ये ज्यादा होता सिर्फ सरकारी स्कूलों में ही है। ध्यान नहीं आता कि किसी निजी स्कूल के टीचर ने अपने विद्यार्थी को इतना पीटा हो कि उसे अस्पताल में ही दाखिल करवाना पड़ा हो। हाँ, कई मिशनरी स्कूलों की सिस्टर्स द्वारा धर्म का हवाला देकर छात्रों को हतोत्साहित करने और बुरी तरह डांटने या अपमानित करने की बात यदा-कदा सुनने को मिल जाती है। यही वजह है कि अब लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलवाने के बारे में नहीं सोचते। जैसे ही किसी इंसान की माली हालत निजी स्कूल की फीस देने लायक हो जाती है, फिर वह अपने बच्चे को किसी निजी स्कूल में भेजने के संबंध में ही सोचता है।
दिल्ली के उप मुख्यमंत्री के विधानसभा क्षेत्र के स्कूल में हुई उपर्युक्त मारपीट की घटना के बाद न तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कुछ बोल रहे हैं और न ही उनके उप मुख्यमंत्री सिसोदिया। ये सैकड़ों करोड़ रुपये के विज्ञापन देकर यह दावा जरूर करते रहते हैं कि उनके स्कूल विश्व के सबसे अच्छे स्कूलों जैसे हो गये हैं। हालांकि इनके जन्नत की हकीकत कुछ और ही है।
बेशक, वे विद्यार्थी भाग्यशाली होते हैं जिन्हें योग्य तथा धैर्यवान शिक्षक मिल जाते हैं। सफल शिक्षक वह है जो कम मेधावी बच्चे को भी मेधावी बच्चों की श्रेणी में लेकर आ जाता है। अध्यापक के बिना स्कूल या कॉलेज की कल्पना करना संभव नहीं है। शिक्षक के आचरण और व्यवहार का प्रभाव उसके विद्यार्थियों, विद्यालय और समाज पर पड़ता है। जाहिर है, अध्यापक राष्ट्र का निर्माता होता है। पर कितने शिक्षक अपने को ऐसा साबित कर पाते हैं। राजधानी के दिल्ली पब्लिक स्कूल, आरके पुरम को वर्तमान में देश के श्रेष्ठ स्कूलों में गिना जाता है। इसे शिखर पर ले जाने वाले इसके संस्थापक प्रिंसिपल श्री राम सरूप लुगानी कहते थे कि “वह शिक्षक ही क्या जो अपनी कक्षा के विद्याथियों को मारता हो। उसे डूब के मर जाना चाहिए। शिक्षक सिर्फ समझा सकता है अपने बच्चों को। वह मारने वाला कौन होता है। अभिभावक उसके पास अपने बच्चों को इसलिए तो नहीं भेजते कि वह उन्हें डंडों और घूंसों से मारे।”
लुगानी जी सच्चे शिक्षक और गणितज्ञ थे। वे खुद भी गणित की कक्षाएं लेते थे और हरेक बच्चे को गणित के कठिन से कठिन फार्मूलों को सीधे-सरल तरीके से समझाने का प्रयास करते थे। उन्होंने अपने जीवन में कभी किसी बच्चे को नहीं पीटा। उन्होंने सैकड़ों शिक्षक बनाये। उनका सबको यही कहना होता था कि बच्चे के साथ धैर्य दिखाना होगा। वे अपने स्कूल के अध्यापकों से अपेक्षा रखते थे कि वे तब तक अगले चैप्टर पर न जाएं जब तक उनकी क्लास का हरेक बच्चा चालू चैप्टर को सही से समझ न ले। वे अगले बैंचों पर बैठने वालों पर ही फोकस न करें। उन्हें क्लास के हरेक बच्चे को टॉपर बनाना है। वे इससे कम कुछ भी स्वीकार नहीं करते थे। लुगानी के ही विद्यार्थी रहे अमेरिका के कोलोरोडो यूनिवर्सिटी में फीजिक्स के प्रो. अशोक प्रसाद, येले यूनिवर्सिटी में फीजिक्स पढ़ा रहीं प्रो. प्रियंवदा नटराजन, रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर डॉ. रघुरामन राजन तथा स्नेपडील कंपनी के सीईओ कुणाल बहल जैसे सैकड़ों सफल उद्यमी और पेशेवर विश्व भर में भरे पड़े हैं।
दरअसल, वही अध्यापक क्लास में बच्चों से मारपीट करते हैं, जिनमें धैर्य नहीं होता। जिस इंसान में धैर्य नहीं, वह कम से कम शिक्षक तो नहीं बन सकता। सफल शिक्षक बनने के लिए बड़ी तपस्या करनी पड़ती है। बच्चों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले को तो तत्काल शिक्षक के पद से हटा देना चाहिए। वह जिंदगी में चाहे जो कुछ करे, पर शिक्षक बनने की तो कभी सोचे तक नहीं।
शिक्षक अपने आप में एक महान पवित्र पेशा है। अध्यापक को अपने मेधावी छात्रों की तुलना में कमजोर शिष्यों पर ही ज्यादा फोकस करना चाहिए। मेधावी विद्यार्थी तो अपना काम निकाल ही लेते हैं। जो कक्षा में पिछली कतार में बैठे हैं उनकी तरफ अधिक ध्यान देना होगा। कुछ अध्यापक समझते हैं कि उनके मेधावी विद्यार्थियों को उनकी बात समझ आ गई तो बाकी सबको समझ आ गई होगी। ये गलत सोच है। शिक्षक को अपने बच्चों को लगातार प्रेरित करते रहना होगा। उन्हें प्रेरित करते रहना होगा ताकि वे उनसे ज्यादा से ज्यादा सवाल पूछें। उन्हें स्कूल-कॉलेज में सही वेशभूषा पहन करके आना और घंटी बजते ही चले जाना पर्याप्त नहीं है।
भारत में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ. जाकिर हुसैन और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम देश के राष्ट्रपति बनने से पहले शिक्षक ही थे। इनके अंदर का शिक्षक सदैव जीवित रहा। ये राष्ट्रपति बनने के बाद भी मौका मिलने पर पढ़ाते रहे। बहरहाल, शिक्षकों को अपनी जिम्मेदारी को अतिरिक्त रूप से समझना ही होगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)