Friday, November 22"खबर जो असर करे"

शहीद दिवसः भूल न जाना भगत सिंह के साथियों को

– आर.के. सिन्हा

कौन सा हिन्दुस्तानी होगा जिसके मन में शहीद भगत सिंह को लेकर गहरी श्रद्धा का भाव नहीं होगा। होगा भी क्यों नहीं। आखिर वे क्रांतिकारी, चिंतक और आदर्शों से लबरेज मनुष्य थे। उनसे अब भी भारत के करोड़ों नौजवान प्रेरणा पाते हैं। पर यह भी जरूरी है कि देश भगत सिंह के करीबी साथियों जैसे चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव, बटुकेशवर दत्त, दुर्गा भाभी वगैरह के बलिदान को भी याद रखा जाए।

राजगुरु का संबंध पुणे (महाराष्ट्र) से था। उन्हें भगत सिंह और सुखदेव के साथ 23 मार्च, 1931 को लाहौर में फांसी पर लटका दिया गया था। वे भगत सिंह और सुखदेव के घनिष्ठ मित्र थे। इस मित्रता को राजगुरु ने मृत्यु पर्यंत निभाया। देश की आजादी के लिए दिये गये राजगुरु के बलिदान ने इनका नाम भारत इतिहास में अंकित करवा दिया। अगर बात वीर स्वतंत्रता सेनानी सुखदेव की हो तो वो भी महाराष्ट्र से थे । राजगुरु के पिता का निधन इनके बाल्यकाल में ही हो गया था। इनका पालन-पोषण इनकी माता और बड़े भैया ने किया। राजगुरु बचपन से ही बड़े वीर और मस्तमौला थे। भारत मां से प्रेम तो बचपन से ही था। वो बचपन से ही वीर शिवाजी और लोकमान्य तिलक के बहुत बड़े भक्त थे।

संकट मोल लेने में भी इनका कोई जवाब नहीं था। महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद से मुलाकात के बाद उनका जीवन पूर्णत: बदल गया। उन्हें जीवन का एक लक्ष्य मिल गया। चंद्रशेखर आजाद इस जोशीले नवयुवक से बहुत प्रभावित हुए और बड़े चाव से इन्हें निशानेबाजी की शिक्षा देने लगे। शीघ्र ही राजगुरु भी आजाद जैसे एक कुशल निशानेबाज बन गए। राजगुरु का निशाना कभी चूकता नहीं था। चंद्रशेखर की मार्फत राजगुरु भगत सिंह और सुखदेव से मिले। राजगुरु इन दोनों से बड़े प्रभावित हुए। ये तीनों परम मित्र बन गए।

इन सब क्रांतिकारियों ने लाला लाजपत राय की मृत्यु के जिम्मेदार अंग्रेज अफसर स्कॉट का वध करने की योजना बनाई। इस काम के लिए राजगुरु और भगत सिंह को चुना गया। राजगुरु तो अंग्रेजों को सबक सिखाने का अवसर ढूंढ़ते ही रहते थे। अब वह सुअवसर उन्हें मिल गया था। 19 दिसंबर, 1928 को राजगुरु, भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद ने सुखदेव के कुशल मार्गदर्शन के फलस्वरूप सांडर्स नाम के एक अन्य अंग्रेज अफसर, जिसने स्कॉट के कहने पर लाला लाजपत राय पर ताबड़तोड़ लाठियां चलायी थीं, का वध कर दिया। अपने काम को पूरा करने के बाद भगत सिंह अंग्रेज साहब बनकर तथा राजगुरु उनके सेवक बनकर पुलिस को चकमा देकर लाहौर से निकल गए थे। उस समय भगत सिंह और राजगुरु के साथ दुर्गा भाभी भी थीं। वो भगत सिंह की पत्नी बनी हुईं थीं। वो भगत सिंह की परम सहयोगी थीं। दुर्गा भाभी का पूरा नाम दुर्गा देवी वोहरा था। वो मशहूर हुईं दुर्गा भाभी के रूप में।

दुर्गा भाभी असली जिंदगी में पत्नी थीं हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के सदस्य भगवती चरण वोहरा की। इसी संगठन के सदस्य भगत सिंह भी थे। वोहरा की बम का टेस्ट करते वक्त विस्फोट में जान चली गई थी। दुर्गा भाभी के अलावा एचएसआरए में सुशीला देवी जैसी कुछ और महिलाएं भी एक्टिव थीं। बहरहाल, भगत सिंह को राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी हो जाती है। उनका संगठन बिखर सा गया। उसके बाद दुर्गा भाभी ने 1940 के दशक में लखनऊ के कैंट में एक बच्चों का स्कूल खोला। उसे वह दशकों तक चलाती रहीं। वो 1970 के दशक तक लखनऊ में ही रहीं। फिर वो अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ गाजियाबाद शिफ्ट हो गईं। 1999 में उनकी गुमनामी में ही मृत्यु हो गई।

इस बीच, शहीद भगत सिंह ने 8 अप्रैल, 1929 को जब केंद्रीय असेंबली (अब संसद भवन) में बम फेंका और पर्चे बांटे तब बटुकेशवर दत्त उनके साथ थे। इसके बाद दोनों ने गिरफ्तारी दी और उनके खिलाफ मुकदमा चला। बटुकेशवर दत्त को बी.के.दत्त भी कहते हैं। उन्हीं के नाम पर 1950 में साउथ दिल्ली में लोदी कॉलोनी के पास बी.के. दत्त कॉलोनी स्थापित हुई। बटुकेश्वर दत्त मूल रूप से एक बंगाली–कायस्थ परिवार से थे। उनकी 1924 में कानपुर में भगत सिंह से भेंट हुई। इसके बाद उन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में कार्य करना प्रारंभ किया। इसी क्रम में बम बनाना भी सीखा।12 जून, 1929 को इन दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। जेल में ही, उन्होंने 1933 और 1937 में भूख हड़ताल की। उन्हें 1938 में रिहा कर दिए गया। अंडमान द्वीप के काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्ष बाद 1945 में रिहा किए गए। वे 1947 में अंजलि दत्त से विवाह करने के बाद पटना में रहने लगे। उनका 1965 में निधन हो गया था।

इस बीच, वरिष्ठ लेखक विवेक शुक्ला ने हाल ही में प्रकाशित अपनी किताब ‘दिल्ली का पहला प्यार- कनॉट प्लेस’ में लिखा है कि कनॉट प्लेस से मिलने वाली एक सड़क उस शख्स के नाम पर अब भी आबाद है, जिसके भारत का वायसराय रहते हुए जलियांवाला बाग कांड हुआ था। उस सड़क का नाम है चेम्सफोर्ड रोड। जलियांवाला बाग कांड में हुए खून खराबे का भगत सिंह पर गहरा असर हुआ था। उस कांड ने उन्हें क्रांतिकारी बनाने में अहम रोल निभाया। दरअसल नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में आने-जाने वालों के लिए चेम्सफोर्ड रोड बहुत जानी-पहचानी है। वे इस चेम्सफोर्ड रोड के रास्ते भी नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंचते हैं।

ब्रिटेन के भारत में वायसराय थे लॉर्ड चेम्सफोर्ड। जब जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ तब वे भारत के वायसराय थे। उन्होंने उस कत्लेआम पर कभी कोई शोक व्यक्त नहीं किया। ठीक उसी तरह, जैसे कि 1984 में सिखों के कत्लेआम की आज तक गांधी परिवार ने माफी नहीं मांगी। चेम्सफोर्ड 1916 से लेकर 1921 तक भारत के वायसराय रहे। बेशक, यह सिर्फ भारत में ही संभव है कि जलियांवाला बाग जैसे दिल दहलाने वाले कत्लेआम के समय भारत में तैनात वायसराय के नाम पर हमारे यहां एक बेहद खास सड़क का नाम हो और एक बड़ा क्लब चेम्सफोर्ड के नाम पर आज भी नई दिल्ली के रेल भवन के सामने चल रहा हो। इस सड़क का नाम दुर्गा भाभी के नाम पर किया जा सकता है। देश की राजधानी में उस महान क्रांतिकारी महिला के नाम पर कुछ भी नहीं है।

(लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)