Friday, November 22"खबर जो असर करे"

लोकतंत्र में अपनी बात कहने के कई रास्ते, संविधान के आधार स्तम्भ को तो मत हिलाओ!

– डॉ. मयंक चतुर्वेदी

संसद को लोकतंत्र के मंदिर के रूप में देखा जाता है। भारतीय संसद न सिर्फ कानून बनाती है, बल्कि देश कैसे चलेगा, भारत के लोक का भविष्य क्या होना चाहिए, उसके लिए कौन से निर्णय लेने के साथ समाज की व्यवस्थाओं से लेकर लोक कल्याणकारी राज्य शासन के लिए जो भी कुछ श्रेष्ठ किया जा सकता है या किया जाना चाहिए वह सभी निर्णय लेने और उसके लिए कोष उपलब्ध कराने का काम यही संसद करती है। ऐसे में राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ की मिमिक्री करने का जो मामला हुआ है, उसने आज बहुत कुछ सोचने में मजबूर कर दिया है। क्या हम ऐसा करके अपनी ही संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा तार-तार नहीं कर रहे? अभी यही काम संविधान की एक अन्य स्तम्भ कही जानेवाली न्यायपालिका के प्रमुख को लेकर किया जाता तो क्या होता? आप विचार करिए।

इस मामले में स्थिति की गंभीरता समझिए कि देश की ‘राष्ट्रपति’ तक को कहना पड़ रहा है कि जो हुआ वह नहीं होना चाहिए था। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू बोल रही हैं कि जिस तरह से हमारे सम्मानित उपराष्ट्रपति को संसद परिसर में अपमानित किया गया, उसे देख कर निराशा हुई। निर्वाचित प्रतिनिधियों को खुद को व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति गरिमा और शिष्टाचार के मानदंडों के भीतर होनी चाहिए। भारत में उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद के साथ संसद में ऐसा होना दुर्भाग्यपूर्ण है। राष्ट्रपति मुर्मू की तरह ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस घटना पर क्षोभ जता चुके हैं। उन्होंने भी माना, विपक्षी संसद सदस्यों ने संसद परिसर में जो किया वह अत्यधिक आपत्तिजनक है। संसद परिसर में कुछ सांसदों के व्यवहार को उन्होंने दुर्भाग्यपूर्ण बताया है।

आज संसद सदस्य होकर इस तरह से राज्यसभा के सभापति का अपमान कर रहे हो, कल जब आप अपने क्षेत्रों में जाएं या अन्य स्थानों पर जहां संसद सदस्य इस नाते नियमानुसार जो प्रोटोकॉल आपको मिलता है, वह देनेवाला शासन और प्रशासन यदि उसे देने में मना कर दे या आपका किसी तरह से अपमान कर दे, तब आप क्या कहेंगे और करेंगे? क्या आप उस अपमान को सामान्य मानेंगे? जैसा कि इस वक्त उक्त टीएमसी नेता कल्याण बनर्जी द्वारा उपराष्ट्रपति धनखड़ की नकल उतारने पर सफाई दी जा रही है। कल्याण मुखर्जी कह रहे हैं कि मिमिक्री करना तो एक कला है। वे अपने किए पर माफी मांगने को लेकर ‘नो’ कह चुके हैं।

यदि इस प्रकार की अमर्यादित गतिविधियों को तत्काल नहीं रोका गया तो यहां जैसे संवैधानिक मर्यादा को तोड़ने का प्रयास हुआ है, वैसे ही कल इसी प्रकार से न्यायालयीन निर्णयों का मजाक बनना शुरू हो जाएगा। साथ ही आयोग और संबद्ध गतिविधियों का मजाक बनाना शुरू हो जाएगा। वैसे आयोगों को सिविल न्यायालय के रूप में कार्य करने की शक्ति उन्हें सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 (1908 का 5) के अधीन प्रदान की गई है जो केंद्र के स्तर पर समस्त भारत भर में और राज्य के स्तर पर संपूर्ण राज्य के किसी भी भाग से किसी व्यक्ति को ‘समन’ करने के साथ अपने समक्ष उपस्थिति के लिए बाध्य करने जैसे अनेक अधिकार प्रदान करता है। इसी प्रकार से हमारी सभी संवैधानिक संस्थाओं को अधिकार दिए गए हैं और उस अधिकार की पूर्ति के लिए एक प्रोटोकॉल निर्धारित है, जिसे पूरा करना शासन एवं प्रशासन का काम है।

नियम यह है कि आपको किसी बात पर आपत्ति है या दिए गए निर्णय से आप असंतुष्ट हैं तो उसके ऊपर की इकाई में उसकी पुन: तथ्यों के साथ शिकायत करें और अपना पक्ष ठीक ढंग से रखें । ये क्या बात है, जो आप मजाक बनाने लगेंगे? हमें आज जानना चाहिए कि राज्यसभा और राज्यपाल की शक्तियां क्या हैं। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-80, राज्यसभा के गठन का प्रावधान करता है। 12 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा से संबंधित क्षेत्रों से मनोनीत किया जाता है। राज्यसभा को गैर-वित्तीय विधेयकों के संदर्भ में लोकसभा की भांति शक्तियां प्राप्त हैं। ऐसे विधेयक दोनों सदनों की सहमति के बाद ही कानून बनते हैं।
संविधान संशोधन विधेयकों के संदर्भ में राज्यसभा की शक्तियाँ लोकसभा की शक्तियों के बराबर है। देश के संघात्मक ढाँचे को बनाए रखने के लिये राज्यसभा के पास दो विशिष्ट अधिकार हैं, जो कि लोकसभा के पास नहीं है- अनुच्छेद 249 के अंतर्गत राज्यसभा उपस्थित और मतदान करने वाले दो तिहाई सदस्यों के बहुमत से राज्य सूची में शामिल किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर सकती है। अनुच्छेद 312 के अंतर्गत राज्यसभा उपस्थित और मतदान करने वाले दो तिहाई सदस्यों के समर्थन से कोई नई अखिल भारतीय सेवा स्थापित कर सकती है।

आपातकाल की अवधि यदि एक माह से अधिक है और उस समय लोकसभा विघटित हो तो राज्यसभा का अनुमोदन कराया जाना ज़रूरी होता है। उपराष्ट्रपति के महाभियोग तथा उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों और अन्य संवैधानिक पदाधिकारियों को पद से हटाने में अपनी भूमिका निभाते हैं। राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उसके पद का कार्यभार संभालने का दायित्व उपराष्ट्रपति का है । इस अवधि के दौरान, उप-राष्ट्रपति को राष्ट्रपति की सभी शक्तियां, उन्मुक्तियां और विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं । भारत गणराज्य का कोई भी निर्णय जो राज्यसभा से पास होकर आता है, उस पर उपराष्ट्रपति के सभापति होने के नाते से हस्ताक्षर होते हैं, यानी यदि उनके हस्ताक्षर न हों और न उनकी इच्छा हो तो कोई भी निर्णय मान्य नहीं होता है।

वैसे किसी को भी किसी के द्वारा मिमिक्री किए जाने पर आपत्ति नहीं हो सकती, किंतु जब कोई व्यक्ति किसी की नकल या मिमिक्री किसी को प्रताड़ित करने, मानसिक दबाव बनाने, उपहास उड़ाने के साथ किसी को नीचा दिखाने के लिए करता है तो कहना होगा कि यह कानून की भाषा में अपराध की श्रेणी में आ जाता है। फिर ये अपमान आपके मान-सम्मान से जुड़ा हुआ अपमान है। संवैधानिक पद के सम्मान को ठेस पहुंचाने वाला यह अपमान है। अप्रत्यक्ष रूप से यह भारतीय संविधान का ही अपमान है, इसलिए होना यह चाहिए कि टीएमसी नेता कल्याण बनर्जी लिखित में राज्यसभा के सभापति ने माफी मांगें। भविष्य में फिर कभी ये गलती नहीं दोहराई जाएगी, इसका आश्वासन दें। जो कांग्रेस एवं अन्य दल इसके समर्थन में दिखाई दिए हैं, कांग्रेस पार्टी के अप्रत्यक्ष सर्वेसर्वा राहुल गांधी स्वयं इसका वीडियो बना रहे थे। वे भी अपनी गलती स्वीकार करें। नहीं तो देश में संवैधानिक संस्थाओं के अपमान का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उसकी चपेट में फिर विपक्ष की सरकारें एवं वे तमाम नेता भी आ जाएंगे जो सदैव वर्तमान में कहीं न कहीं शक्तिशाली स्थिति में हैं। अच्छा यही होगा यदि इस बात को विपक्ष जितनी जल्दी समझ ले, लोकतंत्र में अपनी बात कहने के कई रास्ते हैं, कम से कम संविधान के आधार स्तम्भों को तो न हिलाए। यही देशहित में है ।