Friday, November 22"खबर जो असर करे"

महात्मा गांधी का सामाजिक प्रयोग

– गिरीश्वर मिश्र

आजकल विभिन्न राजनीतिक दलों के लोक लुभावन पैंतरों और दिखावटी सामाजिक संवेदनशीलता के बीच स्वार्थ का खेल आम आदमी को किस तरह दुखी कर रहा है यह जगजाहिर है। परंतु आज से एक सदी पहले पराधीन भारत में लोक संग्रह का विलक्षण प्रयोग हुआ था। इंग्लैण्ड, दक्षिण अफ्रीका और भारत में जीवन का अधिकांश हिस्सा बिताने के बाद उम्र के सातवें दशक में पहुंच रहे अनुभवी-परिपक्व गांधीजी ने आगे के समय के लिए वर्धा को अपनी कर्मभूमि बनाया था।

नागपुर से 75 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वर्धा अब रेल मार्गों और कई राष्ट्रीय राजमार्गों से जुड़ चुका है। तब महात्मा गांधी ने धूल-मिट्टी-सने और खेती-किसानी के परिवेश वाले इस पिछड़े ग्रामीण इलाके को चुना और गाँव के साधारण किसान की तरह श्रम-प्रधान जीवन का वरण किया। इसके पीछे उनकी यह सोच और दृढ़ विश्वास था कि भारत का भविष्य देश के गाँवों के सशक्त होने में निहित है। उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता का प्रयोजन सिर्फ राजनैतिक सत्ता-परिवर्तन तक सीमित न होकर पूरे भारतीय समाज की सर्वोन्मुखी उन्नति या सर्वोदय था।

गांधीजी ने यह संदेश भी दिया कि सामाजिक जीवन को समग्रता में देखने की आवश्यकता है और शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनैतिक चेतना, आजीविका और सामाजिक जीवन सभी एक-दूसरे से अभिन्न रूप से गुंथे हुए हैं, इस काम में समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलना होगा और इसकी पद्धति विकेन्द्रित होगी। राजनीतिक जीवन का उनका सघन अनुभव सामाजिक परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ने के लिए धकेल रहा था। वह राजनीति के प्रयोजन को व्यावहारिक स्तर पर पुनर्परिभाषित कर रहे थे।
सन 1930 में दांडी सत्याग्रह के दौरान गांधीजी को लगा कि स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र भौगोलिक दृष्टि से भारतवर्ष के मध्य में होना चाहिए। इसका समाधान तब मिला जब सेठ जमनालाल बजाज के आग्रह पर गांधीजी 1934 में वर्धा पहुँचे। आरंभ में जमनालाल जी द्वारा दिए गए एक बड़े भूखंड पर अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की शुरुआत की ताकि गावों की हस्त-कलाएं और हुनर, खेती से जुड़े कुटीर उद्योग, सफाई और अस्पृश्यता-निवारण आदि सामाजिक- आर्थिक कार्यों को अमलीजामा पहनाया जा सके। यह स्थान ‘मगनवाड़ी’ के रूप में विख्यात हुआ। ग्रामीणों को खादी, चरखा चलाने, हिसाब-किताब करने, दुग्ध उत्पादन, तेल निकालने और अन्य आर्थिक कार्यों के लिए प्रशिक्षण दिया जाने लगा। निश्चय ही यह सब स्वावलंबन के सहारे स्वदेशी और सर्वोदय के आंदोलन को जमीनी स्तर पर आगे बढ़ाने के लिए शुरू किया गया एक क्रांतिकारी सामाजिक प्रयोग था। इस तरह वर्धा राष्ट्र-निर्माण के लिए रचनात्मक कार्यक्रमों की प्रयोगशाला बन गया।

मगनबाड़ी में दो साल बड़े काम के रहे पर गांधीजी गाँव में रहने वाले एक सीधे-साधे किसान की जिंदगी जीना चाहते थे। कस्बे के किनारे मगनबाड़ी से दस किलोमीटर दूर एक निर्जन से इलाके में ‘सेगाँव’ नामक स्थान पर आश्रम स्थापित करने का निश्चय हुआ। जमनालाल जी द्वारा दी गई जमीन पर आश्रम का निर्माण हुआ। सन 1936 में 67 वर्ष की आयु वाले गांधीजी सेगाँव पहुंचे और वहीं स्थायी रूप से रहने लगे। उन्होंने इसका नाम बदल कर 1940 में ‘सेवा ग्राम’ (सेवा करने के लिए स्थान) रख दिया। वहीं कस्तूरबा और अपने कई अनुयायियों के साथ कुछ कुटियों में वे रहे। सार्वजनिक रसोई में दलित अस्पृश्य लोगों को लगाया गया ताकि लोगों के मन से अस्पृश्यता की घृणा की बाधा पार हो। महादेव देसाई, प्यारे लाल और राजकुमारी अमृत कौर ने सचिव का दायित्व संभाला।

गांधीजी की कुटी की छत बांस, चटाई और खपड़े दीवारें मिट्टी से पुतीं थीं। खिड़कियां और दरवाजे भी बांस के थे। खजूर के पत्तों से चटाई बनी थी। बांस की आलमारी थी। गांधीजी ने सत्य, अहिंसा ( दूसरों से प्रेम ), ब्रह्मचर्य, अस्तेय (चोरी न करना), अपरिग्रह (जरूरत से ज्यादा सामान न रखना), शारीरिक श्रम, अस्वाद (स्वाद पर नियंत्रण ), अभय, सर्वधर्म-समभाव, स्वदेशी और अस्पृश्यता-निवारण को आश्रम-व्रत नियत किया था। आश्रम का लक्ष्य गया रखा था- बिना घृणा के मातृभूमि की सेवा, दूसरों को दुःख दिए बिना अध्यात्म का विकास, साधन और साध्य की पवित्रता और आत्म-निर्भरता।

आश्रम में गांधीजी एक अनुशासित दिनचर्या के अनुसार कार्य करते थे। वे समय के बड़े पाबन्द थे। वे सुबह 4.00 बजे बिस्तर से उठ जाते थे और 9.00 बजे रात को सोने जाते थे। सोमवार को मौन रहते थे। प्रात:काल और संध्या समय प्रार्थना होती थी जिसमें सभी धर्मों की प्रार्थनाएं होती थीं। नरसीदास का भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए‘ और भगवद्गीता का द्वितीय अध्याय गांधीजी को बड़े प्रिय थे।

सेवाग्राम की कार्यपद्धति सर्वोदय पर टिकी थी। गांधीजी का दृढ़ विचार था कि व्यक्ति का कल्याण सर्व के कल्याण में निहित है और श्रमशील जीवन ही श्रेष्ठ है। गांधीजी ने सात सामाजिक पापों के प्रति आगाह किया था- सिद्धांत विहीन राजनीति, श्रम बिना धन, नैतिकता बिना व्यापार, चरित्र बिना शिक्षा, विवेक बिना सुख, मानवता बिना विज्ञान तथा त्याग बिना पूजा। गांधीजी ने एक व्यापक रचनात्मक कार्यक्रम आरंभ किया था जो सामुदायिक एकता, अस्पृश्यता निवारण, शराबबंदी, खादी, ग्रामोद्योग, ग्रामीण स्वच्छता, शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, स्त्री, स्वास्थ्य शिक्षा, देशी भाषा, राष्ट्रभाषा, आर्थिक समानता, किसान, श्रम, आदिवासी, कुष्ठ रोग, विद्यार्थी जीवन की समस्याओं से जुड़ा था।

सेठ जमनालाल बजाज का गांधीजी के विचारों और कार्यों में अगाध विश्वास था और गांधीजी का भी उन पर बड़ा स्नेह था। उनको वे अपना पांचवां पुत्र कहते थे। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधीजी के जीवन और कार्यों ने जमनालाल जी के मन पर अमिट छाप छोड़ी थी। साबरमती आश्रम में वे पत्नी और बच्चों के साथ कुछ दिन रहे जहां गांधीजी की राष्ट्र-भक्ति, सीधी-सादी जीवन-चर्या, नीतियां और कार्यक्रम आदि का साक्षात अनुभव किया और बेहद प्रभावित हुए। जमनालाल जी के आवास-परिसर बजाजबाड़ी में पंडित जवाहर लाल नेहरू, ड़ॉ. राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान, आचार्य कृपालानी, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरोजिनी नायडू आदि आते रहे। बजाजबाड़ी के निकट गांधी चौक पर बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी और इस क्षेत्र के प्रख्यात संत साने गुरूजी, संत गाडगे जी महाराज और संत तुकड़ो जी महाराज आदि के सार्वजनिक व्याख्यान होते थे।

बापू के आग्रह पर सेगांव में उनकी कुटी का निर्माण लकड़ी, मिट्टी, ईंट-गारे के स्थानीय संसाधनों से किया गया। एक बंजर भूमि में कामचलाऊ बांस आदि से बनी झोपड़ी में रहे, जब तक आदि निवास नहीं बन गया। जब भीड़ बढ़ने लगी तो वह एक दूसरी कुटी में चले गए। फिर कुछ और कुटियाँ भी बनीं। एक सार्वजनिक रसोई भी बनी। सहजता, आध्यात्मिकता और आदर्श की भावना से ओत-प्रोत देश-सेवा को समर्पित यह आश्रम उस समय भारत की राजधानी सरीखा था। वाइसराय लिन लिथिगो ने गांधीजी के साथ संपर्क बनाने के लिए टेलीफोन की हॉटलाइन लगवाई थी। वे एक रात गांधीजी के साथ स्वयं भी आश्रम में रहे। सामान्य जीवन शैली अपनाते हुए जीवन का अभ्यास किया, जिसमें जरूरत भर का तो हो पर लोभ न हो।

सन 1936 में हिन्दी भाषा को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति गठित की जो तब से अनवरत कार्यरत है। अंग्रेजी शिक्षा के कटु आलोचक गांधीजी ने हस्त-कौशल पर आधृत सात साल की आयु तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा मातृभाषा में शिक्षा पर जोर दिया। उनकी ‘नई तालीम’ में हृदय, मस्तिष्क और हाथ तीनों के उपयोग पर बल दिया गया। सेवा ग्राम में रचनात्मक कार्यक्रमों की प्रयोगशाला खड़ी हो गई और नैतिक व सांस्कृतिक मूल्यों को कार्य रूप दिया जाने लगा। यहाँ के प्रसिद्ध लक्ष्मी नारायण मंदिर में दलितों के साथ प्रवेश किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बैठकें यहाँ होती रहीं। यहीं 1942 में शुरू हुए प्रसिद्ध ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ के निर्णायक आंदोलन का फैसला लिया गया था।

सन 1946 में गांधीजी यहाँ से दंगाग्रस्त नोआखाली में शांति बहाल करने निकले, फिर वापस नहीं आए। गांधीजी ने अहिंसक असहयोग आंदोलन को स्वदेशी की अवधारणा से जोड़ा और विदेशी सामग्री का बहिष्कार किया। खादी वस्त्र का उपयोग बढाया, राजनीति की सामाजिक प्रासंगिकता स्थापित किया तथा आत्मबल व नैतिकता को व्यावहारिक आदर्श बनाकर दिखाया।

महात्मा गांधी के इस वर्धा प्रयोग में सेठ जमनालाल बजाज ने तन, मन और धन के साथ गांधीजी के रचनात्मक कार्यों में भरपूर सहयोग किया और उसमें शामिल हुए। यह प्रयोग लोक संग्रह की अद्भुत मिसाल है और लोक धर्मी शासन के लिए बहुत सारे संकेत भी देता है। आज जब आजादी के अमृत महोत्सव की बात हो रही है तो हमारे राजनीतिक दलों को आत्म निरीक्षण करना चाहिए कि वे किस तरह सही अर्थों में लोक की ओर अभिमुख हो सकेंगे।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)