– सुरेन्द्र किशोरी
आलोक पर्व दीपावली असत्य पर सत्य और तमस पर ज्योति की विजय का सनातन उद्घोष है। यह पर्व निराशा के सघन अंधकार में आशा की किरण जगाता है। किसान के उदास अधरों पर हर्ष की लाली बिखेरता है और मन के सूने आंगन में हर्षोल्लास की किरणें जगाता है। सुख-समृद्धि से परिपूर्ण करने वाली मां लक्ष्मी और ऋद्धि-सिद्धि दायक गणपति गणेश पूजन का पांच दिवसीय पर्व दीपावली शुरू हो चुका है। धनतेरस से इसकी शुरुआत हुई। रविवार को छोटी दीपावली के बाद सोमवार को प्रकाश और ज्योति का महोत्सव दीपावली मनाया जाएगा। भगवान प्रभु श्रीराम के लंका पर विजय और 14 वर्ष के वनवास की अवधि पूरी कर अयोध्या वापस लौटने की खुशी में मनाया जाने वाला दीपावली आज के समय में तब और प्रासंगिक हो गया है, जब सैकड़ों वर्ष के कठिन संघर्ष के बाद अयोध्या में प्रभु श्रीराम का भव्य मंदिर निर्माण तेजी से हो रहा है। 2024 में मकर संक्रांति के दिन रामलला गर्भगृह में स्थापित हो जाएंगे।
दीपावली राष्ट्र को धन-धान्य से पूर्ण और सब प्रकार से संपन्न बनाने का विराट आयोजन है। यह पर्व मात्र महलों की प्राचीर को विद्युत बल्बों से आलोकित नहीं करता, बल्कि निर्धन की कुटिया में आशा का दीप बनकर अपनी मधुर ज्योति भी बिखेरता और आत्मनिर्भरता का संदेश देता है। ज्योति पर्व किसान को नए धान्य के अभिनंदन की वेला प्रदान करता है। व्यवसायिक वर्ग में धन-धान्य से संपन्न रहने का सुमधुर विश्वास जगाता है तथा विद्वान समाज को विद्या वृद्धि का अक्षय आशीष प्रदान करके उन्हें राष्ट्रहित में अर्पित और समर्पित होने की प्रेरणा देता है।
अमावस्या की काली रात दीपों से जगमगा उठती है। माता लक्ष्मी का पदार्पण होते ही जन-जन के उदास होठों पर हंसी के फव्वारे फूट पड़ते हैं। निराश आंखें प्रसन्नता से चहक उठती हैं। बाल-मंडली हर्षोल्लास से ऐसे प्रफुल्लित हो उठती है, मानो माता मां लक्ष्मी आंगन में थिरकती हुई आई हैं, जैसे उन्होंने बालकों को अपनी गोद में उठाकर चूमा और अभय का वरदान देकर मुस्कराती हुई दीपों की अनवरत पंक्ति में कहीं विलीन हो गई हैं। यह जनमानस की भ्रांति है कि मां लक्ष्मी मात्र धन और ऐश्वर्य की देवी हैं, चंचला, अस्थिर, प्रकृति और विद्या की देवी सरस्वती से बैर रखने वाली हैं।
ऋग्वेद के श्रीसूक्त के अनुसार लक्ष्मी कांतिमय, तेजोमय एवं कामना पूर्ण करने वाली देवी हैं, जो स्वर्णमयी ज्योति से संपन्न हैं, देवों को तृप्त करने वाली कमल पर विराजमान हैं और कमल-सदृश वर्ण वाली हैं। यजुर्वेद में लक्ष्मी का अर्थ तेज बताया गया है। अथर्ववेद के ब्रह्मस्वरूपिणी, आदिशक्ति स्वरूपा महालक्ष्मी अपना स्वरूप स्वयं कहती है। वैदिक साहित्य में लक्ष्मी को आदिशक्ति स्वरूपा, सर्वव्यापी पराशक्ति माना गया है। लक्ष्मी ही देवों की सभी अवतारों की प्रधान प्रकृति हैं। स्थूल-सूक्ष्म, दृश्य-अदृश्य, व्यक्त अथवा अव्यक्त सब उन्हीं के विविध रूप हैं। सूक्ष्मरूप से सर्वत्र व्याप्त होती हुई भी भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए परम दिव्य, चिन्मय, सगुण रूप से सदा विराजमान रहती हैं।
संपूर्ण जगत के श्रद्धालु उपासकों को धन देने वाली ब्रह्मस्वरूपिणी देवी हैं। आत्मस्वरूप आकाशादि का भी निर्माण करती हैं, उनका स्थान आत्मस्वरूप को धारण करने वाले बुद्धि-चित्त में है। जो उनके दिव्य रूप को हृदय में धारण करके विधिवत उपासना करता है, वही दैवी संपत्ति को प्राप्त करता है। प्राचीन भारत में दीपमाला उत्सव कृषि उत्सव के रूप में मनाया जाता था। क्योंकि यह पर्व नए धान्य के आगमन का भक्तिपूर्ण अभिनंदन हैं, उस देवी का अर्चन है, जो धन-धान्य के भंडार भरकर हमें ऋद्धि-सिद्धि प्रदान करती है। दुर्भाग्य से आज पूजन का यह आध्यात्मिक स्वरूप कुंठित होकर आडंबर का रूप धारण कर रहा है। तेल और घी के अभिमंत्रित दीपकों का स्थान मोमबत्ती, विद्युत बल्बों की झालर, आतिशबाजी और पटाखों ने ले लिया है।
गुनगुने ठंड के माह कार्तिक के अमावस्या तिथि की स्याह काली रात में प्रकाश का पर्व और ज्योति का महोत्सव दीपावली जितना अंतः लालित्य का उत्सव है, उतना ही बाह्यलालित्य का भी है। जहां सदा उजाला हो, साहस पर भरोसा हो और निष्ठा हो, वहां उत्सव ही उत्सव होता है। दुनिया में ऐसा सिर्फ और सिर्फ हिंदुस्तान में है, जहां की उजाला सामूहिक रूप से प्रसारित होने से सर्वत्र सौंदर्य खिल जाता है। दीपों की पंक्तियां और ज्योति की निष्ठा समाहित होकर दीपावली की आभा अभिव्यक्त हो उठती है। दीपावली का लालित्य प्रकाश और अंधेरे का मनोरम समन्वय है, उसमें अग्रगामिता है। दीपावली में दीपों की पंक्तियां पर्व बन जाती है, पर्व का तात्पर्य है कि स्मृति के हजारों तार झनझना उठें, लेकिन हम अपने वर्तमान में जीते रहें। यदि हम अपने वर्तमान में नहीं हैं और भविष्य के संग हमारा सम्यक भाव नहीं जुड़ा है तो वह पर्व नहीं विडंबना है, जिसकी लकीर पीटने में सब लगे हैं।
कुछ पथभ्रष्ट लोग दीपावली पर जुआ खेलकर अपने सर्वनाश को स्वयं आमंत्रित करते हैं। इस दिन भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण कर लक्ष्मी को दैत्यराज बलि के बंधन से मुक्त कराया था। लेकिन कुछ पथभ्रष्ट लोग इस पावन पर्व पर लक्ष्मी का अपमान करते हैं, उसे अपने मंदिर में स्थापित करने के बदले दूसरों के महलों की बंदिनी बना देते हैं। महालक्ष्मी आठ वसुओं (संपत्तियों) की जन्मदात्री हैं। वे वसु हमें अनायास प्राप्त नहीं हो जाते, राजा पृथु को इन वसुओं को प्राप्त करने के लिए पृथ्वी का दोहन करना पड़ा था, आठ वसुओं को जन्म देकर पृथ्वी ”वसुमती” कहलाई।
यदि मनुष्य की साधना सच्ची, विश्वास अटल और अंत:करण पवित्र होगा तो महालक्ष्मी सर्वांगसुंदरी ”मोहिनी” बनकर उसका वरण करेंगी। आज आवश्यकता है कि हम इन पुरातन, प्रतीकात्मक प्रसंगों का उपहास नहीं उड़ाकर उनमें अंतर्निहित संदेशों को ग्रहण करें। यही हमारी सच्ची भक्ति होगी, सम्यक लोक आराधना होगा। सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा का भी एकमात्र यही उपाय है। वसुमती के वसु सर्वसामान्य के लिए हैं, चंद कुबेरों अथवा मठाधीशों के महलों में उन्हें कैद नहीं करना है। यह वसुमती के वरदान हैं, जिन्हें प्राप्त करने का सभी को बराबर का अधिकार है।
यदि महालक्ष्मी को चंद सेठ बंदी बनाकर अपनी तिजोरियों में कैद कर लेंगे, तो एक बार पुनः संघर्ष होगा। दीन-दरिद्रों की झोपड़ियां ना जाने कब से प्रकाश की एक किरण को तरस रही है। प्रकाशपुंज को अपनी मुट्ठियों में कैद नहीं करें, उसे जनसाधारण की बस्तियों में भी बिखर जाने दें। गरीब, भोले-भाले बालकों की झोली से खेल-खिलौनों का प्रसाद मत छीनें, अन्यथा लक्ष्मी क्रुद्ध हो जाएंगी। गरीबों की आहें महलों की अट्टालिकाओं को ध्वस्त कर देंगी।
दुर्भाग्य है कि देश के कर्णधार ही विषैले दंशों से राष्ट्र की अस्मिता का शोषण कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि उनके सारे मुखौटे नकली हैं। वे स्वरूपिणी लक्ष्मी का हरण करके रावण जैसा आचरण कर रहे हैं। नारी की अस्मिता के साथ खिलवाड़ करके दुशासन जैसा वीभत्स आचरण कर रहे हैं। कल कोई वनवासी राम दंडकवन में आएगा और रावण के पाप, घृणा, द्वेष, लिप्सा, काम, क्रोध, मोह, छल, प्रपंच तथा कपट नामक दसों सिरों को काटकर देवी सीता को मुक्त करा लेगा। कोई गदाधारी भीम कल अवश्य अवतरित होगा। वह दुराचारी दुशासन के वक्ष को चीरकर उसके लहू का पान करेगा और कांप रही भारतीय संस्कृतिरूपी द्रोपदी उस लहू से अपने केश को सींचकर भारत की साम्राज्ञी बनेगी। देश में छद्मवेश में घूम रहे अनाचारियों एवं आतंकवादियों का अंत हो। भारत की पवित्र भूमि पर धर्म की विजय पताका फहराए। पाप, घृणा, द्वेष, छल, कपट एवं भ्रष्टाचार का तमस भारत के क्षितिज से दूर हो जाए।
अमावस्या के इस निविड़ अंधकार को चीरकर ज्योतिस्वरूपा लक्ष्मी मुस्कान बिखेरें। वह केवल धनाधिप कुबेर के महलों में ही नहीं थिरकें। दीन सुदामा के बालक वर्षों से खील-खिलौनों को तरस रहे हैं। मां लक्ष्मी उनकी कुटिया में भी प्रवेश करें।अपने स्वर्ण-कलश से रत्न, मोती और अशर्फियां इस प्रकार बिखेरें कि कोई उदर भूख से तड़पता नहीं रह जाए। कोई अधर उनके द्वारा वितरित अमृत के लिए तरसता नहीं रह जाए। कोई नयन निराशा से बुझ न जाए। हर देहरी, हर आंगन दीपों के झिलमिल प्रकाश से जगमगा उठे। राष्ट्र के कण-कण में समृद्धि का विलास हो। खुशहाली की किरणें बिखरे और द्वार पर बंधे प्रत्येक वंदनवार से यही मंगल संदेश मुखरित हो। दीपावली बहुलता का प्रतिरूप है। इसमें हर दीया सृजन का प्रतीक है। दीपावली में अपने अंदर के सृजन के दीप जलाएं। स्वयं उससे प्रकाशित होकर राष्ट्र को प्रकाश पथ पर अग्रसर करें।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)