– आर.के. सिन्हा
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) छात्रसंघ चुनाव में वामपंथी छात्र संगठनों को सफलता मिलने के बाद जिस तरह से कुछ कथित बुद्धिजीवी कहे जाने वाले विद्वानों ने सोशल मीडिया में टिप्पणियां की हैं, उन्हें हास्यास्पद ही माना जाएगा। इन विद्वानों ने लेफ्ट पार्टियों के उम्मीदवारों की कामयाबी को आगामी लोकसभा चुनाव के नतीजों से भी जोड़ा। यहां तक कह दिया कि आगामी लोकसभा चुनाव के अप्रत्याशित नतीजे आने वाले हैं। जेएनयू में अध्यक्ष समेत सभी चारों सीटों पर वामपंथी दलों के छात्र संगठनों और उनके समर्थित उम्मीदवारों को जीत मिली है। जिस जेएनयू में करीब 5 हजार विद्यार्थी पढ़ते हों उसके छात्रसंघ के नतीजों को लोकसभा चुनाव से जोड़कर देखना मूर्खता नहीं, तो क्या है।
हैरानी तो इस बात की है कि जेएनयू के नतीजों पर अपनी राय रखने वाले कुछ माह पहले दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव के नतीजों की पूरी तरह अनदेखी कर गए। यहां अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने अध्यक्ष सहित तीन पदों पर कब्जा जमाया था। एक पद पर कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई को भी जीत मिल थी। जहां सारे जेएनयू में करीब पांच हजार विद्यार्थी पढ़ते हैं, वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय के अकेले दयाल सिंह कॉलेज में 8 हजार से अधिक छात्र पढ़ते हैं। अब आप समझ सकते हैं कि छात्रों की संख्या के स्तर पर जेएनयू कितना छोटा सा शिक्षण संस्थान है, दिल्ली विश्वविद्यालय की तुलना में।
दरअसल वामपंथी विचारधारा और लेफ्ट दल पूरी तरह से भारतवर्ष में अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर जहां सब दल तैयारी कर रहे हैं और अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर रहे हैं, वहां लेफ्ट दलों की तरफ से कोई हलचल तक नजर नहीं आ रही है।
2014 के लोकसभा चुनाव में उसे मात्र 11 सीटें ही मिलीं। पिछले यानी 2019 के लोकसभा चुनावों में माकपा या भाकपा को एक भी सीट नहीं मिली। पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों ने साफ संदेश दे दिया था कि देश के मतदाताओं ने लेफ्ट दलों को पूरी तरह से खारिज कर दिया है। उन नतीजों के बाद लेफ्ट पार्टियों के सीताराम येचुरी, डी.राजा और वृंदा करात जैसे नेता सिर्फ संवाददाता सम्मेलनों और सेमिनारों में ही नजर आते हैं। अपनी पहचान बचाने के लिये पूरी तरह से संघर्षरत नजर आते हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को बीते दिनों शराब घोटाले में हिरासत में लिया गया तो डी.राजा और उनकी पार्टी भाकपा के कुछ नेता तुरंत केजरीवाल के सरकारी घर में उनकी पत्नी से मिलने पहुंच गए। वहां उन्होंने खबरिया चैनलों को बाइट दी और बस हो गई उनकी क्रांति।
लेफ्ट दलों के मौजूदा नेता कभी किसी जन आंदोलन का हिस्सा तक नहीं होते। हां, वे किसी आंदोलन से अपने को मौके के अनुसार जोड़ लेते हैं। जब कुछ किसान एमएसपी को लेकर आंदोलनरत थे, तब लेफ्ट दलों के नेता उनके पास मंच में जाकर बैठने लगे थे। इन नेताओं के विपरीत गुजरे दौर के लेफ्ट दलों के नेता जैसे हरिकिशन सिंह सुरजीत, नम्बुदिरीपाद, इंद्रजीत गुप्त, ज्योति बसु, चतुरानन मिश्र, रामावतार शास्त्री, भोगेन्द्र झा वगैरह काफी जुझारू हुआ करते थे। उन्हें जमीनी हकीकत की बेहतर जानकारी थी।
वैचारिक मतभेदों के बावजूद ईएमएस नम्बुदिरीपाद की सादगी और विद्वता का सब सम्मान करते थे। वह 1978 में माकपा के महासचिव बने तो उन्हें पार्टी ने राजधानी के 20 जनपथ की कोठी दी रहने और काम करने के लिए। वह 20 जनपथ में तब तक रहे जब तक वह माकपा के महासचिव के तौर पर दिल्ली में रहे। जब हरकिशन सिंह सुरजीत महासचिव बने तब ईएमएस त्रिवेंद्रम चले गए। बिहार माकपा के नेता और ईएमएस के सहयोगी रहे श्री भगवान प्रसाद सिन्हा बताते हैं कि ईएमएस सुबह पांच बजे उठ जाते थे। प्रातःकाल की सैर के साथ वह साइकिल से व्यायाम करनेवालों में से भी थे। उसके बाद वे अखबार पढ़ते, नाश्ता लेते और ठीक आठ बजे पार्टी दफ्तर जो पटेल चौक के समीप 14, अशोक रोड पर था जाने के लिए तैयार हो जाते। ईएमएस को चलने में कठिनाई थी। लेकिन, चाहे घर 20 जनपथ में या चाहे दफ्तर 14, अशोक रोड में वे चाय पीने के बाद कप धोने के लिए दो कमरे को पारकर किचेन रूम तक पहुंच जाते। वे कम्युनिस्ट होते हुए भी राजनीति में गांधी जी की तरह एक सादा जीवन जिए, सारी जमीन जायदाद पार्टी को दान कर दी। भारत की राजनीति में यह बहुत बड़ी बात मानी जाती है।
पर अब ईएमएस जैसे नेता लेफ्ट दलों के पास रहे कहां ? सच्चाई तो यह है कि अब लेफ्ट पार्टियां पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा से निकलकर सिर्फ जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी तक सिमट गई हैं। वहां के छात्रसंघ के चुनाव जीतकर इन्हें ऐसा लगता है कि इन्होंने सर्वहारा की देश में क्रांति कर दी या करने ही वाले हैं। देश ने इनका पहली बार वीभत्स चेहरा देखा 1962 में चीन से जंग के वक्त। तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(भाकपा) ने राजधानी के बारा टूटी चौक में चीन के समर्थन में एक सभा तक आयोजित करने की कोशिश की थी। यह अलग बात है कि स्थानीय जनता के भारी विरोध के कारण भाकपा की सभा नहीं हो सकी थी। कुछ वर्ष पूर्व इन्हीं लेफ्ट दलों का “पोस्टर ब्वाय” कन्हैया कुमार ने जेएनयू छात्रसंघ का चुनाव जीता था। पिछले लोकसभा चुनाव में उसे बेगूसराय से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) ने अपना उम्मीदवार भी बनाया था। वह चुनाव में बुरी तरह से हार गया था। उसके बाद उसने कांग्रेस का रुख कर लिया। यह वही कन्हैया कुमार है, जिसने भाकपा में रहते हुए भारतीय सेना पर कश्मीर में रेप तक करने के आरोप लगाए थे।
कन्हैया कुमार जब चुनाव लड़ रहे थे उनके लिए टुकड़े-टुकड़े गैंग ने बेगूसराय में डेरा डाला हुआ था। यह सब सोशल मीडिया पर इस तरह का माहौल बना रहे थे कि मानो भारतीय सेना को बलात्कारी कहने वाला कन्हैया कुमार भाजपा के गिरिराज सिंह को हरा ही देगा। कन्हैया कुमार 2024 के चुनाव कांग्रेस की टिकट पर फिर चुनाव लड़ सकता है। कुल मिलाकर बात यह कि लेफ्ट दलों के लिए भारतीय राजनीति में स्पेस तेजी से सिकुड़ता जा रहा है। उनके लिए अपनी पुरानी जमीन को हासिल करना कतई आसान नहीं है। फिर लेफ्ट दल और उनके नेता और समर्थक भी जेएनयू तक ही रहने में बहुत बड़ी कामयाबी मानने लगे हैं। लेकिन, कब तक?
(लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)