– रमेश शर्मा
सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी और विचारक लाला हरदयाल की गणना उन विरले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में होती है जिन्होंने केवल भारत ही नहीं अपितु अमेरिका और लंदन में भी अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध जनमत जगाया था। लालाजी को अपने पक्ष में करने के लिये अंग्रेजों ने बहुत प्रलोभन दिये। उस समय की सबसे प्रतिष्ठित आईसीएस पद के प्रस्ताव भी दिया था जिसे लालाजी ने ठुकरा दिया था। यही आईसीएस सेवा अब आईएएस के रूप में जानी जाती है।
ऐसे स्वाभिमानी राष्ट्रभक्त लाला हरदयाल जी का जन्म 14 अक्टूबर 1884 को दिल्ली में हुआ था। उनका पैतृक घर दिल्ली के चाँदनी चौक में गुरुद्वारा शीशगंज के पीछे स्थित था। यह गुरुद्वारा शीशगंज उसी स्थल पर बना है जहाँ औरंगजेब की कठोर यातनाओं से गुरु तेगबहादुर जी का बलिदान हुआ था। लालाजी के पिता पं गोरेलाल जी संस्कृत के विद्वान और कोर्ट में रीडर थे, माता भोलारानी रामचरितमानस की विदुषी मानी जाती थीं। उनका परिवार आर्य समाज से जुड़ा था। इस प्रकार घर और पूरे क्षेत्र में राष्ट्रीय संस्कृति की प्रतिष्ठापना का वातावरण था। इसी वातावरण में लाला हरदयाल का जन्म हुआ था। परिवार के संस्कारों ने उन्हें बचपन से राष्ट्रीय, साँस्कृतिक और सामाजिक चेतना से ओतप्रोत कर दिया था। उन्हें बचपन में माँ से रामायण की और पिता से संस्कृत शिक्षा मिली। उन्हें रामायण की चौपाइयाँ और संस्कृत के अनेक श्लोक कंठस्थ थे।
उन दिनों के सभी शासकीय विद्यालयों में चर्च का नियंत्रण हुआ करता था। उनकी प्राथमिक शिक्षा कैम्ब्रिज मिशन स्कूल में हुईं और महाविद्यालयीन शिक्षा सेन्ट स्टीफन कालेज में हुई। वे पढ़ने में बहुत कुशाग्र थे सदैव प्रथम ही आते थे। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी । एक बार सुनकर पूरा पाठ कंठस्थ हो जाता था। उनकी गणना ऐसे विरले व्यक्तियों में होती थी जो अंग्रेजी और संस्कृत दोनों भाषाएँ धाराप्रवाह बोल लेते थे। इस विशेषता ने उन्हें पूरे महाविद्यालय में लोकप्रिय बना दिया था। महाविद्यालयीन शिक्षा में कालेज में टाप पर रहने से उन्हें 200 पाउण्ड की छात्रवृत्ति मिली। इस राशि से वे आगे पढ़ने के लिये लंदन गये 1905 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। लालाजी ने लंदन में भारतीयों के साथ अंग्रेजों का हीनता से भरा व्यवहार देखा जिससे वे बहुत विचलित हुये। यद्यपि इसका आभास उन्हें दिल्ली के सेन्ट स्टीफन कालेज में भी हो गया था। पर जो दृश्य लंदन में देखा उसे देखकर बहुत विचलित हुये और उन्होंने अपने छात्र जीवन में जाग्रति और वैचारिक संगठन का अभियान आरंभ कर दिया।
भारतीय छात्रों में संगठन और जाग्रति के लिये उन्होंने संगोष्ठियों और बैठकों का कार्य आरंभ किया । वे ऐसे कार्यक्रम आयोजित करते थे जिनमें भारतीय चिंतन की प्रतिष्ठा गरिमा और ओज के साथ हो संगठनात्मक भाव भी जाग्रत हो। लाला जी लंदन में क्राँतिकारी आँदोलन चला रहे मास्टर अमीरचंद के संपर्क में आये। उनका संपर्क क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से भी हुआ। श्याम कृष्ण जी ने लंदन में इंडिया हाउस की स्थापना की थी। लालाजी उसके सदस्य बन गये। क्रांतिकारियों के संपर्क और अध्ययन से लालाजी को यह भी आभास हुआ कि पूरी दुनियाँ में अंग्रेजों का दबदबा भारतीय सैनिकों के कारण है। जहां कभी भी सेना भेजनी होती वहां सबसे अधिक सैनिकों की संख्या भारतीय मूल के सैनिकों की होती लेकिन अंग्रेज उनसे सम्मानजनक व्यवहार नहीं करते थे। उनकी कुशाग्रता और सक्रियता अंग्रेजों से छुपी न रह सकी। उन्हे 1906 में आईसीएस सेवा का प्रस्ताव मिला जिसे ठुकरा कर वे लंदन में भारतीयों के संगठन और स्वाभिमान जागरण के अभियान में ही लगे रहे।
उन दिनों चर्च और मिशनरियों ने युवाओं को जोड़ने के लिये एक संस्था बना रखी थी उसका नाम “यंग मैन क्रिश्चियन एसोशियेशन” था। इसे संक्षिप्त में “वायएमसीए” कहा जाता था । इसकी शाखायें भारत में भी थीं। लाला हरदयाल जी ने भारतीय युवकों में चेतना जगाने के लिये क्रान्तिकारियों की एक संस्था “यंगमैन इंडिया एसोसिएशन” का गठन किया। उनकी सक्रियता देख उन पर स्थानीय प्रशासन का दबाव बना। वे 1908 में भारत लौट आये। यहाँ आकर भी वे युवकों के संगठन में ही लग गये। उनका अभियान था कि भारतीय युवक ब्रिटिश शासन और सेना की मजबूती में कोई सहायता न करें। इसके लिये उन्होंने देश व्यापी यात्रा की। लोकमान्य तिलक से मिले। उन्होंने लाहौर जाकर अंग्रेजी में एक समाचार पत्र आरंभ किया। उनका समाचार पत्र राष्ट्रीय चेतना से भरा हुआ था। अंग्रेजों ने समाचार पत्र के एक समाचार के बहाने उनपर एक मुकदमा दर्ज किया। इसकी खबर उन्हें लग गयी और वे अमेरिका चले गये। अमेरिका जाकर गदर पार्टी की स्थापना की। उन्होंने कनाडा और अमेरिका में घूम-घूम कर वहां निवासी भारतीयों को स्वयं के गौरव और भारत की स्वतंत्रता के लिये जागरूक किया। तभी काकोरी कांड के षडयंत्र कारियों में उनका भी नाम आया। अंग्रेजों ने उन्हें भारत लाने के प्रयास किये। पहले तो अमेरिकी सरकार ने अनुमति नहीं दी। लेकिन बाद में 1938 अनुमति दे दी गई। उन्हें 1939 भारत लाया जा रहा था कि रास्ते में फिलाडेल्फिया में रहस्यमय परिस्थिति में उनकी मौत हो गई।
आशंका है कि उन्हें मार्ग में विष दिया गया। जब उनकी मृत्यु हुई तब वे भोजन कर रहे थे। उनकी मृत्यु का रहस्य आज भी बना हुआ है। आखिर एक पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति कैसे भोजन करते-करते अचानक शरीर त्याग सकता है। वह 4 मार्च 1939 का दिन था जब लालाजी इस नश्वर संसार को त्याग कर वे परम् ज्योति में विलीन हो गये।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)