Friday, November 22"खबर जो असर करे"

जयंती विशेष: समग्र क्रांति के अग्रदूत महर्षि दयानंद

– डॉ. मोक्षराज

गुजरात के गांव टंकारा में जन्मा एक ऐसा महापुरुष जिसके तर्क आज भी अकाट्य हैं। दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्राप्त कवि प्रदीप ने ऋषि गाथा लिख व गाकर, बाबू देवेंद्रनाथ मुखोपाध्याय, रक्तसाक्षी पं. लेखराम, पं. घासीराम, मुंशी प्रेमचंद एवं कविवर मेथिलीशरण गुप्त ने लेखबद्ध कर गुजरात की धरती में जन्मी इस दिव्य आत्मा का गुणकीर्तन किया है ।

पाश्चात्य देशों में चर्चितः महर्षि दयानंद सरस्वती भारत के प्रथम महामानव थे जिनके बारे में 19वीं सदी के अमेरिकी एवं यूरोप के अखबारों में सबसे अधिक चर्चा रहती थी और इस चर्चा का प्रमुख कारण था महर्षि का क्रांतिकारी व्यक्तित्व ।

जन्मस्थली टंकाराः महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1824 को तत्कालीन मोरवी राज्य के टंकारा गांव में हुआ । उनके पिता का नाम करसन तिवारी तथा मां का नाम यशोदा बेन उर्फ अमृतबाई था । वे औदीच्य ब्राह्मण थे ।

महान मार्गदर्शकः जो लोग महर्षि दयानंद से प्रभावित थे और उनका अनुसरण करते थे उनमें महारानी लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे, नाना साहब पेशवा, मैडम भीकाजी कामा, पंडित लेखराम, स्वामी श्रद्धानंद, श्यामजी कृष्ण वर्मा, सरदार किशन सिंह, सरदार भगत सिंह , विनायक दामोदर सावरकर, भाई परमानंद, लाला हरदयाल, मदन लाल ढींगरा, पं. राम प्रसाद बिस्मिल, लाला लाजपत राय, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, सुभाष चन्द्र बोस, चंद्रशेखर आज़ाद, सरदार ऊधम सिंह, स्वामी भवानी दयाल संन्यासी, स्वामी शंकरानंद, पं. रुचिराम आर्य, महाशय राजपाल, महादेव गोविंद रानाडे, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, अशफाकउल्ला खां, महात्मा हंसराज, योगमाया न्यूपाने, सरदार वल्लभभाई पटेल आदि प्रमुख थे ।

अंधविश्वास व पाखंड पर निष्पक्ष व निर्भीक प्रहारः यद्यपि संत कबीरदास, गुरु नानकदेव व संत रविदास ने गहन साधना के प्रभाव से कई सदी पूर्व अनेक धार्मिक पाखंड का खंडन किया, पुनरपि महर्षि दयानंद ने जो वेद-शास्त्रों व अन्य मत मजहबों की समालोचना की उसका कोई प्रतिवाद नहीं कर सका। महर्षि दयानंद सरस्वती ने निष्पक्षता से सामाजिक एवं धार्मिक भेदभाव को मिटाने का यत्न किया । वे भले ही ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए किंतु उन्होंने धर्म के नाम पर प्रचलित विभिन्न पाखंड व अंधविश्वासों का इतना विरोध किया कि उसके कारण भारत के बड़े-बड़े पंडित, मौलवी व देश विदेश के पादरी भी उनके न केवल विरोधी हुए बल्कि उनके खून के प्यासे हो गये । दुर्गा कुंड के पास आनंद बाग में 1868 में हुआ काशी शास्त्रार्थ इतिहास के पन्नों में उस अकाट्य प्रश्न को भी लिख गया- “वेदों में मूर्तिपूजा है कहां ?” तथा कुरान व बाइबिल अवैज्ञानिक हैं।

स्वराज्य के प्रथम मंत्रद्रष्टाः महर्षि दयानंद सरस्वती अंग्रेजी वायसरायों के समक्ष भी सदैव भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए मुखर रहे। वे किसी भी मत संप्रदाय से ईर्ष्या तो नहीं करते थे, किन्तु उनके दोषों को दूर करने के लिए जीवन भर प्रयत्न करते रहे । महर्षि दयानंद चाहते थे कि सारी दुनिया अपनी मूल विरासत मूल संस्कृति वेदों की ओर लौटे, ताकि प्रत्येक प्राणियों के साथ-साथ समस्त मनुष्यों का भी हित सुरक्षित रह सके ।

वसुधैव कुटुम्बकम् के अप्रतिम हस्ताक्षरः वे कहते थे कि आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य संसार का उपकार करना है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति करना । ऋषि दयानंद के हृदय में तनिक भी संकुचित भाव नहीं था । वे सम्पूर्ण मानव जाति के लिए उदार मन से ज्ञान के द्वार खोलते और सब के दोषों को दूर करने के प्रयत्न करते थे । हम भारत के उस महान दार्शनिक, चिंतक, समाज सुधारक एवं समग्र क्रांति के अग्रदूत के जन्म की दूसरी शताब्दी मना रहे हैं, एतदर्थ आप सबको बहुत बहुत बधाई।

(लेखक, जॉर्ज टाउन यूनिवर्सिटी अमेरिका में प्रोफसर रहे हैं।)