Friday, November 22"खबर जो असर करे"

देश को नई सीएसआर निगरानी नीति की आवश्यकता

– डॉ. अजय खेमरिया

भारत दुनिया का इकलौता देश है जहां कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) को कानूनन अनिवार्य बनाया गया है। यह कानून व्यापारिक गतिविधियों से अर्जित धनलाभ में से कुछ भाग को सामाजिक रूप से व्यय करने के प्रावधान करता है। 01 अप्रैल, 2014 से यह कानून लागू है। अब इस कानून और इसके क्रियान्वयन के अनुभवों पर विचार करने की आवश्यकता के नई सीएसआर निगरानी नीति की जरूरत महसूस की जा रही है। यह कानून हमारे हजारों साल पुराने जीवन दर्शन की बुनियाद पर खड़ा है। यह ऐसी बुनियाद है जहां दान और परोपकार का उद्देश्य समाज के वास्तविक जरूरतमन्दों के लिए विकास और उत्कर्ष के अवसरों को सुनिश्चित करने के लिए होता रहा है।

यह कानून सिर्फ भारतीय कंपनियों पर ही लागू नहीं होता है बल्कि उन सभी विदेशी कंपनियों के पर लागू होता है जो भारत में कार्य करती हैं। कानून के अनुसार, एक कंपनी को जिसका सालाना नेटवर्थ 500 करोड़ों रुपये या सालाना इनकम 1000 करोड़ रुपये या वार्षिक मुनाफा 5 करोड़ रुपये का हो तो उसको सीएसआर पर खर्च करना जरूरी होता है। यह खर्च कंपनी के तीन साल के औसत लाभ का कम से कम दो प्रतिशत होना जरूरी है । 2014 से 2021 की अवधि में इस कानून के तहत 126938 करोड़ रुपये धन एकत्रित हुआ। यह रकम शिक्षा, स्वास्थ्य, आधारभूत विकास, पोषण, ग्रामीण विकास और सामाजिक न्याय जैसे क्षेत्रों में खर्च की गई। इसमें नीतिगत बदलाव की आवश्यकता इसलिए महसूस की जा रही है क्योंकि देश में इस राशि का वितरण आसमान है।

तुलनात्मक रूप में ज्यादा वास्तविक जरूरतमंद क्षेत्रों के लिए इससे कोई खास फायदा नहीं मिल पा रहा है। बेशक कानून इस राशि के व्यय के लिए औद्योगिक इकाइयों के स्थानीय क्षेत्रों को प्राथमिकता देता है लेकिन यह भी तथ्य है कि भारत में समग्र विकास की गति भौगोलिक रूप से बहुत असमान है। महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, हरियाणा जैसे राज्य विकास के लगभग सभी संकेतकों पर उत्तर भारत के अन्य राज्यों से अभी भी अग्रणी हैं। सीएसआर के तहत खर्च के आंकड़े इस असमान विकास को कम करने के स्थान पर बढ़ाते नजर आ रहे हैं। अब तक व्यय की गई कुल सीएसआर राशि में 40 फीसदी तो केवल सात राज्यों में ही खर्च हुई है। इसमें पैन इंडिया यानी एक साथ हुए देशव्यापी आवंटन को भी जोड़ लिया जाए तो यह आंकड़ा 60 फीसदी हो जाता जाता है।

आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में 4023 करोड़ रुपये, महाराष्ट्र में 18605 करोड़ रुपये ,गुजरात में 6221 करोड़ रुपये ,कर्नाटक में 7160 करोड़ रुपये , तमिलनाडु में 5437 करोड़ रुपये ,आंध्र प्रदेश में 5100 करोड़ रुपये एवं तेलंगाना में 2500 करोड़ रुपये सीएसआर के तहत 2014 से अब तक व्यय किए गए हैं।

यह ऐसे राज्य हैं जहां औद्योगिक विकास के साथ मानवीय दृष्टि से भी जीवन स्तर समेत अन्य संकेतक देश के अन्य राज्यों से बेहतर हैं। इन राज्यों की कुल आबादी भी खर्च के अनुपात में समान नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा या पूर्वोत्तर के राज्यों में आधारभूत विकास से लेकर सामाजिक रूप से निवेश की आवश्यकता अत्यधिक है। तथ्य यह है कि 22 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में गुजरात की तुलना में आधा यानी 3288 करोड़ का फंड ही मिल सका। इसी तरह बिहार में तो यह आंकड़ा मात्र 691 करोड़ ही हो पाया है। कमोबेश मध्य प्रदेश में यह आंकड़ा 1149, छत्तीसगढ़ में 1385, पश्चिम बंगाल में 2487 और झारखंड में 873 करोड़ रहा।

सरकार ने कुछ संशोधन कर इस खर्च में रिसर्च और डेवलपमेंट को भी जोड़ा है लेकिन अभी इस दिशा में कोई ठोस काम दिखाई नही दे रहा है।एक और विसंगति यह है कि बड़े घरानों ने अपने प्रभाव वाले एनजीओ एवं ट्रस्ट खड़े कर लिए हैं। यह ट्रस्ट यूनिवर्सिटीज, अस्पताल और कौशल विकास केंद्र संचालित करते हैं। यह एक तरह से केवल धन का डायवर्जन भर है। बेहतर होगा सरकार सीएसआर के लिए कुछ बड़े बुनियादी बदलाव सुनिश्चित करे। मसलन कुल धन का 75 फीसदी तो अभी तक शिक्षा ,स्वास्थ्य और गरीबी पर खर्च हुआ है। इन तीनों क्षेत्रों में सभी सरकारें पिछले 75 साल से पानी की तरह पैसा खर्च कर रही हैं। सीएसआर की राशि का इन क्षेत्रों में व्यय किया जाना असल में दोहराव भर लगता है। अच्छा होगा कि एक नियामक निकाय सीएसआर के लिए खड़ा किया जाए। देशभर की सीएसआर राशि एक स्थान पर संकलित हो। इस राशि के खर्च के लिए एक विशेषज्ञ पैनल हो। हर जिले में एक कौशल विकास केंद्र बनाया जाए। बड़ी कंपनियां यहां खर्च करें। इसी तर्ज पर फूड प्रोसेसिंग,ऑटोमोबाइल जैसे प्रयोग अमल में लाए जा सकते हैं। यह प्रयोग जनभागीदारी से किए जा सकते हैं। नीतिगत स्तर पर देश के हर जिले को इस कानून के दायरे में लाकर विकास और सामाजिक कल्याण दोनों के लक्ष्यों को चरणबद्ध तरीके से साधा जा सकता है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)