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होली सबकी प्रीति, राष्ट्र की रीति

– हृदयनारायण दीक्षित

प्रकृति नित्य नूतन है। चिरन्तन और आनंदरस से परिपूर्ण। इसके अन्तःपुर में आनंदरस का महास्रोत है। भारतीय चिन्तन में इस स्रोत का नाम है-उत्स। उत्सव इसी आनंद रस का आपूरण है। यूरोप और अमेरिकी समाजों के उत्सव बाजार तय करता है और भारत के उत्सव तय करता है देश-काल। प्रकृति दर्शनीय है। नदियां हंसती नृत्य करती गति करती हैं। नदियों के तट पर उत्सव और नृत्य। काल सबका नियंता है। भारतीय उत्सवों में प्रकृति और मुहूर्त की जुगुलबन्दी है। होली भारत के मन का सामूहिक उल्लास है। द्यावा-अंतरिक्ष मदनरस, आनंदरस और प्रीतिरस का वातायन। होली वसंतोत्सवों का चरम है और वसन्त है प्रकृति का अपनी परिपूर्णता में खिलना। प्रकृति सदाबहार नायिका है। प्रकृति में नियमबद्धता है। वैदिक ऋषियों ने सृष्टि के इस संविधान को ऋत कहा, ग्रीष्म, वर्षा, शिशिर, हेमंत, पतझड़ और बसंत इसी ऋत के ऋतु-रूप हैं। वसंत परिपूर्ण प्राकृतिक तरुणाई है। भारतीय उत्सवों का अन्तः प्रेरण यह भरी पूरी प्रकृति है।

प्रकृति की अंग-अंग उमंग का नाम है वसंत। वसंत ऋतु राज है। पृथ्वी सगंधा है। सो फूलों से सुगंध उड़ती है, मरूद्गण इस सुगंध को दशों दिशाओं तक पहुंचाते हैं। धरती आकाश गंध आपूरित होते हैं। तिक्त नीम अशोक हो जाती है और बेहया हो जाती है मौलश्री। तब गुलाब रातरानी जैसी सुगंध देने लगता है और रातरानी कमलगंध में हहराती प्रीति। प्रकृति के सभी रूप रसवन्त हो जाते हैं। नदियां नर्तन करती हैं, झीले गीत गाती हैं, वनस्पतियां झूम उठती हैं। शरद् और ग्रीष्म गलमिलौवल करते हैं। पक्षी गीत गाते हैं। वे नियम बंधन में रहते हैं। लेकिन वसंत और होली में शास्त्रीयता का कोई बंधन नहीं। होली आनंद का अतिरेक है। अतिरेक प्रायः शास्त्रीय नहीं होता। होली में लोक अपने छन्द स्वयं गढ़ता है। ऊर्जा का अतिरेक उत्सव बनता है। मनुष्य की तरह समाज का भी मूल-उत्स होता है। भारतीय समाज का मूल-उत्स संस्कृति है। होली भारत का मधुरस है, मधुछन्द है, सामगान है, लोकनृत्य है और लोक संस्कृति का चरम है। भारतीय उत्सव है प्रकृति का प्रसाद। होली महाप्रसाद है। होली पूरे बरस भर की मधुऊर्जा है। परिपूर्ण उत्सव है। होली संपूर्ण मानव समाज को अंगांगी भाव से अंगीकृत करने का नेह निमंत्रण है। आधुनिक मानस विदेशी पर मोहित है, परदेशी रंग के कारण रंग में भंग है। नेह निमंत्रण है कि आओ चढ़ा ले रंग देशी कि रंग परदेशी उतर जाये। चहुदिश, दिक्काल, लाल गुलाल, सबके गाल। एक मुट्ठी गुलाल आपके भी गाल।

होली मधु विद्या का मधु प्रसाद है। यह लोक-महोत्सव है। भारत की भू-सांस्कृतिक आस्था का नर्तन, दर्शन दिग्दर्शन है। यहां लोक अभिव्यक्ति है, राष्ट्रीय एकत्व है और सांस्कृतिक समरसता है। लोक आनंद की अनुभूति है। होली सबकी प्रीति है, राष्ट्र की रीति है। भारत की उमंग और भारत के मन की रंग तरंग है। देश के उत्तर, दक्षिण और पूरब, पश्चिम होली सबकी प्यारी है। होली विश्ववारा हिन्दू संस्कृति का मनआनंद है। होली गीता गाता नृत्य मगन अध्यात्म है। धरती, आकाश, वन और सम्पूर्ण उपवन, का गीत, संगीत है। होली जाति, पंथ उम्र से परे जीवन्त महाउल्लास है।

होली की तमाम कथाएं हैं। महाभारत में भविष्य पुराण का उल्लेख है। कथा के अनुसार कृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया कि राजा रघु के पास ढोण्ढा राक्षसी की शिकायत हुई, यह बच्चों को तंग करती थी। रघु को ज्योतिषियों ने बताया कि शिव वरदान के अनुसार उसे खेलते बच्चों से डरना चाहिए। फाल्गुन पूर्णिमा को लोग-बच्चे हंसे, ताली बजाएं तीन बार अग्नि के चक्कर लगाएं, पूजा करें। गीत गायें। ऐसा ही किया गया, वह मर गयी। प्रहलाद की कथा दूसरी है। हिन्दुस्थान के उत्तर पूर्व में दैत्यों दानवों का क्षेत्र पूर्व ईरान, एशियाई, रूस का दक्षिणी पश्चिमी हिस्सा और गिलगिट तब इलावर्त था। बेबीलोनिया की प्राचीन गुफाओं के भित्ति चित्रों में विष्णु हिरण्याक्ष से युद्धरत हैं। हिरण्याक्ष हिरण्याकश्यप का भाई था। प्रहलाद हिरण्याकश्यप का पुत्र था। वह पिता की दैत्य परमपरा का विरोधी था। तब उसे आग में झोंका गया, कथा के अनुसार वह बच गया। प्रहलाद भारतीय सत्याग्रही चेतना का प्रतिनिधि था। ढेर सारी कथाएं हैं। ऐसी कथाओं के सत्य सांस्कृतिक स्रोत होते हैं।

होली भारत का अपना सांस्कृतिक आयोजन है। यह सम्पूर्ण भारतीय जन का उल्लास है लेकिन कुछ स्वयंभू भौतिकवादी विद्वानों ने इसे मिस्र या यूनान से आयातित बताया है। होली जैसा उत्सव बेशक मिस्र में था, यूनान में भी था। ऐसे क्षेत्रों से भारत के व्यापारिक सम्बंध थे। सत्यकेतु विद्यालंकार ने ‘वैदिक युग’ (पृष्ठ 232) में बताया कि वर्तमान ईराक और तुर्की राज्य क्षेत्रों से प्राप्त भग्नावशेषों व प्राचीन सभ्यताओं से ज्ञात होता है कि उनका भारत के साथ घनिष्ठ व्यापारिक सम्बंध था। ऋग्वेद (1.25.4) में पक्षियों के उड़ने वाले आकाश मार्ग और समुद्री नौका मार्ग के उल्लेख हैं। जैमिनि ने होलाका पर्व का उल्लेख (400-200 ईसा पूर्व) किया और लिखा कि होलाका सभी आर्यों का उत्सव था। आचार्य हेमाद्रि (1260-70 ई.) ने पुराण उद्धरणों से होली की प्राचीनता दर्शाई है। वात्स्यायन के कामसूत्र (1.4.42) में यह एक वसंतोल्लास क्रीड़ा पर्व है। ऋग्वेद में अग्नि को अन्न समर्पित करने और तमाम वाद्य यंत्रों के साथ गीत गाने के उल्लेख हैं। हजारों बरस पुरानी होली की परम्परा उत्सवधर्मा भरतभूमि में ही उगी। बहुत संभव है कि मिस्र और यूनान ने भी भरतभूमि से ही ऐसी प्रेरणा ली हो।

वैदिक पूर्वजों का चित्त उत्सवधर्मा था। होली हजारों बरस प्राचीन राष्ट्र के सांस्कृतिक विकास का परिणाम है। इसके उत्सव ऋग्वेद में हैं। ऋग्वैदिक पूर्वज सृजनशील है। सृजनशीलता ही वैदिक ऋचांए कविताएं हैं। यहां मंत्रों के साथ संगीत और नृत्य भी है। रूप, रस, गंध, स्पर्श की अनुभूति से आनंद रस का अतिरेक छलकता है। यही आनंद उत्सव बनता है। ऋषि कवि अपने खेल में देवताओं को भी साझीदार बनाते है, वे मरूतों को उत्सव ‘क्रीडन्ति’ बताते हैं। सोम को घोड़े के समान खेलने वाला बताते हैं। लेकिन सूर्य और अग्नि बड़े देवता है। सूर्य ऋतुएं विभाजित करता है। अग्नि ऋतु निर्माणकत्र्ता है। ऋषि अग्नि से कहते (ऋ. 5.19.5) हैं कि वह खेलता हुआ हमारी ओर आये। अग्नि खेलते हुए आने वाले अतिथि हैं। उनके स्वागत का आनंद होली में ही खेलता हुआ ही आता है। तब लोक भी खेलता है, हंसता, गीता गाता नृत्य करता है।

वैदिक परम्परा में अग्नि बड़े देवता हैं। पूर्वजों ने होली उत्सव में अग्नि को प्रधान बनाया। कृषि प्रधान राष्ट्र ने जौ-गेहूं की बालियां अग्नि देव को सौंपी, प्रसाद रूप में स्वयं भी ग्रहण की। सूर्य अग्नि का ही रूप है। उनके प्रकाश में सात रंग है। पूर्वजों ने होली उत्सव को सतरंगी बनाया। ध्वनि में सात सुर-आयाम हैं। पूर्वजों ने रंगों के साथ सात सुर भी जोड़े। यहां रंग, सुर, छंद है, ताल लयसंगीत हैं, नृत्य और थिरकन है। होली में मर्यादित वर्जनाहीनता है। परिपूर्ण उन्मुक्तता है। उपनिषदों में परम सत्ता को रस बताया गया है-रसौ वै सः। होली रसपूर्ण है। प्रीतिरस के साथ रीतिरस। गीत और संगीत रस। मर्यादा रस और उन्मुक्त रस साथ साथ हैं। होली आप सबको आनंदरस रंग से परिपूरित करे।

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)