Friday, November 22"खबर जो असर करे"

हिन्दुत्व में है ‘मानवीय जीवन मूल्यों पर संकट का’ समाधान

– हृदयनारायण दीक्षित

मानवीय जीवन मूल्यों पर संकट है। इतिहास के किसी अन्य कालखण्ड में इस तरह का मानवीय संकट नहीं था। समाचार माध्यम भी जब कब विश्वयुद्ध की आशंका की बातें करते हैं। विचार ही मनुष्य जाति के वाह्य स्वरूप और आंतरिक उदात्त भाव के प्रसारक रहे हैं। विचार भी अपना प्रभाव खो रहे हैं। मानवीय सभ्यता आधुनिक काल का मनुष्य विरोधी प्रेरक तत्व बन गई है। वातावरण में निश्चिन्तता नहीं है। संदेह और अनिश्चितता का वातावरण है। मनुष्य जाति भविष्य के भय से डरी हुई है। धन का प्रभाव और धन का अभाव दोनों ही मारक हैं। मानवता का बड़ा भाग पर्याप्त भोजन से वंचित है। इस वर्ग में सामान्य चिकित्सा और शिक्षा, आश्रय-घर का अभाव है। आधुनिक सभ्यता के प्रभाव में अभावग्रस्त लोगों के सामने संकट है। विज्ञान के जानकार प्रकृति के तमाम रहस्य बता रहे हैं। निसंदेह वैज्ञानिक शोधों ने चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांतिकारी उपलब्धियां हासिल की हैं। लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक शोधों ने पृथ्वी ग्रह के अस्तित्व के समाप्त होने का खतरा पैदा कर दिया है।

युद्ध के तमाम आश्चर्यजनक हथियार पृथ्वी और मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरा बन गए हैं। परमाणु हथियार सहित अनेक आश्चर्यजनक अस्त्रों की खोजों से पृथ्वी के ही अस्तित्व पर खतरा है। पृथ्वी ग्रह संकट में है और उससे पोषण पाने वाली मानव जाति भी संकट में है। वैज्ञानिकों ने तमाम ग्रहों की गतिविधि का पता लगा लिया है। आशंका है कि किसी समय पृथ्वी चन्द्रमा के निकट पहुंच सकती है। सूर्य का ईंधन लाखों वर्ष से खर्च हो रहा है। सूर्य के ठंडा हो जाने से ही मनुष्य जाति नष्ट हो सकती है। हम इन्हें भविष्य की आशंकाएं कह सकते हैं। डॉक्टर राधाकृष्णन ने अपने चिंतन में ‘धर्म और समाज’ में ‘धर्म की आवश्यकता’ शीर्षक में कहा है, ”अधिक सम्भावना इस बात की है कि मानव जाति स्वयं जानबूझकर किए गए कार्यों से, अपनी मूर्खता और स्वार्थ के कारण नष्ट हो सकती है। संसार आनंद के लिए है। हम युद्ध यंत्र जात की पूर्णतः तक पहुंचने में लगाई जा रही ऊर्जाओं के केवल थोड़े से हिस्से का ही इसके लिए प्रयोग करें तो सबको आनंदमय बनाया जा सकता है।”

सम्पूर्ण मानवता विषाद ग्रस्त जान पड़ रही है। आदर्श परम्पराएं, स्वतः प्रेरित अनुशासन और राष्ट्र राज्यों द्वारा स्थापित विधि व्यवस्था शिथिल हो रही हैं। डार्विन ने लिखा है, ”मनुष्य जीवन सभ्यता में उन्नति करता जा रहा है। छोटे वर्ग समूह बड़े समुदायों में संगठित होते जाते हैं। त्यों-त्यों व्यक्ति को यह बात समझ में आती जाती है कि उसे अपनी सामाजिक सहज प्रवृत्तियों और संवेदनाओं का विस्तार अपने राष्ट्र के लिए कर लेना चाहिए।”

सभ्यता आखिरकार क्या है? मनुष्य के बौद्धिक विकास का सबसे बड़ा उपकरण संवाद है और संवाद की प्रारंभिक शर्त है प्रेम पूर्ण भाषा और वाणी। वैदिक काल में संवाद की अनेक संस्थाएं थी। सभा और समितियां विचार-विमर्श का मंच थी। सभा में विचार रखने वाले सभेय कहे जाते थे। इसी से शब्द बना है सभासद। सभा में प्रेमपूर्ण ढंग से अपनी बात रखने वाले व्यक्ति को सभ्य कहा जाता था। किसी समूह का शब्द आचरण और सौन्दर्यबोध सभ्यता है लेकिन प्रेमपूर्ण संवाद घटा है।

प्रकृति और मनुष्य के मध्य परस्परावलंबन है। मनुष्य प्रकृति का भाग है। हमारे और प्रकृति के मध्य आत्मीयता होनी चाहिए। प्रकृति की सभी शक्तियों के लिए चित्त में आत्मीय भाव के साथ आदर भाव की भी आवश्यकता है। लेकिन प्रकृति और मनुष्य के बीच अंतर्विरोध भी हैं। आंधी, तूफान और ऐसी ही तमाम प्राकृतिक आपदाएं मनुष्य को व्यथा देती हैं और जीवन के लिए खतरा भी बनती हैं। ऐसी घटनाओं को प्राकृतिक मानकर अपना जीवनयापन करने की बात सही है। लेकिन अनेक संकट आधुनिक सभ्यता ने भी पैदा किए हैं। भूमण्डलीय ताप, भूगर्भ जल स्तर का गिरना, वायु प्रदूषण आदि आपदाएं उपभोक्तावादी आचरण से पैदा होती हैं।

सीबी जुंग ने अपनी पुस्तक ‘मॉडर्न मैन इन सर्च ऑफ अ सोउल’ में लिखा है, ”आधुनिक सभ्यता और मनुष्य उन्नति की चरम सीमा पर है। भविष्य में लोग उससे भी आगे निकल जाएंगे।” यह बात ठीक है कि वह एक युगव्यापी विकास का अंतिम परिणाम है। लेकिन साथ ही यह मानव जाति की आशाओं की दृष्टि से अधिकतम निराशाजनक भी है। आधुनिक मनुष्य को इसकी जानकारी भी है। उसने देख लिया है कि विज्ञान, शिल्प और संगठन कितने लाभकारी हैं और वे कितने विनाशकारी हो सकते हैं। ईसाई चर्च, मनुष्यों का भाईचारा, अंतरराष्ट्रीय सामाजिक संगठन और आर्थिक हितों की एकता सब के सब खोटे सिद्ध हुए हैं। मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो लगभग प्राणान्तक आघात पहुंचा है। परिणामस्वरुप मनुष्य अनिश्चितता में जी रहा है।

परिदृश्य चिन्ताजनक है। मनुष्य की वाह्य समृद्धि बढ़ी है। मनुष्य यंत्र हो रहा है। उसकी आत्मा खो गई है। वह खोई हुई आत्मा की पुनः प्राप्ति का प्रयास नहीं कर रहा है। भारत की प्राचीन सभ्यता में तमाम भौतिक अभावों के बावजूद मनुष्य आनंदित था। राष्ट्र के प्रति उसकी निष्ठा थी। सभी रिश्तों में आत्मीयता थी। मनुष्य में मनुष्येत्तर प्राणियों और सम्पूर्ण जगत के प्रति भी आत्मभाव था। भारत के मनुष्य की दृष्टि और जीवन की गतिविधि सामूहिक थी। सुख-दुख सामूहिक थे। पर्व उत्सव सामूहिक उत्सव आनंद का स्रोत थे। परिवार आनंद मठ था। यत्र तत्र सर्वत्र आनंद था। आधुनिक सभ्यता के प्रभाव में जीवन का आनंद रस सूख गया है। आधुनिक सभ्यता द्वारा मनुष्य को नितांत व्यक्तिवादी और मशीन बनाया है।

वैदिक सभ्यता और संस्कृति में सम्पूर्ण विश्व को परिवार जाना गया है। वसुधैव कुटुम्बकम वैदिक संस्कृति का लोकप्रिय सूत्र है। विश्व के अणु और परमाणु के प्रति श्रद्धा और आदरभाव रहा है। शांति मानवता की प्यास है। वैदिक साहित्य में शांति को जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि बताया गया है। भारतीय समाज के चिन्तकों, विद्वानों और वैदिक काल के ऋषियों ने शांति की उपासना की है। ऋग्वेद में विश्व शांति की प्रार्थना है। यह भारतवासियों की शांति की प्यास को सुंदर अभिव्यक्ति देती है। शांति मन्त्र में कहते हैं, ‘अंतरिक्ष शांत हों। पृथ्वी शांत हों। आकाश शांत हों। वनस्पतियां औषधियां शांत हों। शांति भी शांत हों।” यहां केवल मनुष्यों के बीच परस्पर सद्भाव वाली शांति की ही बात नहीं है। यहां पृथ्वी से लेकर आकाश तक शांति स्थापित होने की प्रार्थना है। शांति-अशांति की अनुपस्थिति नहीं है। शांति मौलिक रूप में मानव मन की प्राकृतिक प्यास है। अशांत चित्त से सृजन संभव नहीं होते। अशांत चित्त विध्वंसक होता है और शांत चित्त सर्जक।

विश्व तनाव में है। हिन्दुत्व परिपूर्ण जीवन दृष्टि है। पूरी जीवन दृष्टि आतंरिक आत्मीयता के आधार पर विकसित हुई है। धरती माता है। आकाश पिता है। जल माताएं हैं। जल से जीवन का उद्भव ऋग्वेद में उल्लिखित है। जलमाताओं ने ही संसार को जन्म दिया। नदियां माताएं हैं। सूर्य संरक्षक हैं। परोपकार और सदाचार उत्कृष्ट जीवन मूल्य हैं। दुख और वैराग्य के स्थान पर आनंद और प्रवृत्ति हैं। संसार त्याज्य नहीं है। संसार धर्म क्षेत्र, कर्म क्षेत्र है। जीवन कर्म प्रधान है। जीवन में पलायन का कोई भाव नहीं। वनस्पतियां भी प्रणाम के योग्य हैं। उन्हें देवता कहा गया है। वैदिक सभ्यता में विचार विविधता है। जीवन और जगत को समझने के लिए पूर्व मीमांसा, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, बुद्ध और जैन 8 दर्शन हैं। भारतीय दर्शन किसी देवदूत की घोषणा नहीं है। आधुनिक सभ्यता की सभी विसंगतियों के उपचार का केंद्र हिन्दुत्व में हैं।

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)