– धैर्य नारायण झा
पुरातनकाल से भारत का समस्त विश्व के लिए कुटुंब भाव के सामने वैश्वीकरण कोई भिन्न विषय नहीं है। तथापि भारत में वसुधैव कुटुंबकम की धारणा सर्वदा आदरणीय रही है। वैश्वीकरण के तमाम फायदों के बावजूद इसके अपनाने को लेकर प्रश्नचिह्न लगते आए हैं। अंतर यह कि वसुधैव कुटुंब में परिवार व विनय का भाव है, लेकिन वैश्वीकरण व्यापार और विनिमय की परिधि में घिर जाता है। फिर प्रश्न उठता है कि हम किस सीमा तक वैश्वीकरण से आच्छादित रहें और वैश्वीकरण के प्रवाह में बहें। इस संदर्भ में संयुक्त अरब अमीरात का उदाहरण प्रासंगिक है। यहां लगभग 200 देशों के लोग रहते हैं। वे यहां विश्वभर में आई नई तकनीक, वस्तुओं और सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं, इसके बाद भी वे अपनी मौलिकता, पहनावा और भाषा इत्यादि को अक्षुण्ण बनाकर रखते हैं, यह अनुकरणीय हो सकता है।
वैश्वीकरण का पर्याय भौगोलिक सीमाओं से बिना छेड़छाड़ किए अन्य सभी दीवारों को ध्वस्त होना है। अत: इसका प्रभाव हमारे जीवन के हरेक क्षेत्रों में होना स्वाभाविक है। कुछ अच्छे और कुछ बुरे, जो भी हों, यह तय है कि यह हमारी मानसिकता पर निर्भर है कि हम अपने में क्या बदलाव लाते हैं। भारत जैसे देश में वैश्वीकरण के घोर निंदक भी इसके आर्थिक लाभ की प्रशंसा ही करेंगे, जो प्रतिवर्ष करोड़ों लोगों को समृद्धि के मार्ग पर आगे ले जा रहा है।
भारत की युवा जनसंख्या, पढ़ने लिखने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि, कंपिटिटिव वेज जहां विकसित देशों से उन्नत तकनीक को अपने यहां आमंत्रित करता है, वहीं इसके विकास और प्रसार के लिए अपना बाजार उसे एक आधार के रूप में भेंट देता है। इससे और अधिक प्रगति होती है तथा उपभोक्ता बाजार और बड़ा होता जाता है। विकसित देशों का स्किल भारत जैसे के विकासशील देशों में स्केल का स्वरूप ले लेता है।
भारत का विश्व अर्थव्यवस्था से इंटीग्रेट करने का जो दौर पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय नरसिम्हा राव के काल में प्रारंभ हुआ था, वह आज भी अच्छी गति में अनवरत चल रहा है। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी पिछले दिनों अमेरिका के दौरे पर वहां किन-किन व्यापारिक हस्तियों से मिले या स्वदेश लौटने के बाद किनसे मिले हैं, हमें इसका आभास देता है। परिणाम हमारे सामने है।
भारत की आर्थिक दर में निरंतर वृद्धि, विदेशी निवेश में प्रतिवर्ष नया कीर्तमान और भारत का एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में उदय होना, इस सबसे संकेत मिलता है कि अल्प समय में ही भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन जाएगा। सकल घरेलू उत्पाद में अगले कुछ वर्षों में सात ट्रिलियन डॉलर का हो जाएगा। अगले 25 से 30 वर्षों तक यह क्रम चलता रहेगा। संभव है कि उसके बाद पर्यावरण की चुनौती और प्रबल होगी तथा पूरा विश्व अधिक जोर से एकजुट होगा। सतत विकास एक नारा नहीं बल्कि विवशता होगी। प्रकृति के दोहन को न्यूनतम करने की मांग बढ़ेगी और उपभोक्तावाद से आवश्यकतावाद पर बल दिया जाएगा।
21वीं सदी के उत्तरार्द्ध में अर्थव्यवस्था को ही नहीं पूरी व्यवस्था को मापने के नये मापदंड होंगे। वैश्वीकरण के अगले दौर में योग और प्रिय होगा। अभी योग का प्रसार कहीं न कहीं शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के उद्देश्य से ही अभ्यास होता है। हम एक सोपान और चढ़ेंगे। विश्व को योगेश्वर के संदेश व्यवाहारिक लगेंगे। जहां इंद्रियों का शमन व मन का दमन पर जोर दिया गया है। एक ओर विश्व में भौतिकतावाद में ह्रास की शुरुआत होगी तो दूसरी उपभोक्तावाद से आवश्यकतावाद की ओर ट्रांसफारमेशन की शुरुआत होगी। शाकाहारिता प्रबल होगी, उसके महत्व को लोग समझेंगे।
सबसे बड़े गोमांस निर्यात देशों में से एक ब्राजील में शाकाहारियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। शाकाहारिता का यह संदेश, जो भारत में पुरातनकाल से विद्यमान है, फिर से जोर पकड़ेगा। अपनी मौलिकता, जिसमें अपनी संस्कृति व भाषा की रक्षा है, का महत्व फिर बढ़ेगा। पाश्चात्य जीवनशैली का अंधाधुंध अनुकरण करने के बाद हम इस दौर में अपनी ओर फिर लौटेंगे। संयम, जो हमारी जीवनशैली का सिद्धांत रहा है, हम उसे निर्धनता का प्रतीक नहीं अब मानेंगे। विनिमय में कमी हो सकती है, लेकिन विनयभाव में बढ़ोतरी होगी। भारत पुन: वहीं पहुंच जाएगा, जहां से वह चला था। शाश्वत, निरंतर…।
(लेखक, दुबई में हिन्दी कवि के रूप में स्थापित हैं।)