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फीफा कप: ब्राजील टीम ही क्यों भारतीयों की पसंद

– आर.के. सिन्हा

क्रिकेट टी-20 वर्ल्ड कप के फौरन बाद अब फीफा विश्वकप आगामी 20 नवंबर से कतर में शुरू हो रहा है। लोकप्रियता के स्तर पर क्रिकेट कहीं नहीं ठहरती फुटबॉल के सामने। भारत के हर गाँव में फुटबाल प्रेमी भरे पड़े हैं। फीफा विश्व कप को सारी दुनिया के करोड़ों-अरबों लोगे देखेंगे। भारत में भी इसके मैच हर रोज देखे जाएंगे। दुनिया भर के 200 से अधिक देशों ने हर चार साल में होने वाली इस फुटबॉल स्पर्धा में क्वालिफाई करने का प्रयास किया, लेकिन मेजबान कतर सहित केवल 32 टीमें 2022 फुटबॉल विश्व कप के लिए क्वालिफाई कर सकीं। हालांकि उन 32 देशों में भारत भी नहीं है जो फीफा कप के लिए क्वालिफाई कर सके हैं।

एक अरसे से भारतीय फुटबॉल प्रेमी ब्राजील की टीम को ही चीयर करते हैं और संतोष कर लेते हैं। हमारे फुटबॉल प्रेमियों की ब्राजील की टीम को लेकर निष्ठा कभी विचलित नहीं हुई। उन्हें ब्राजील की कलात्मक शैली की फुटबॉल पसंद आती है। लैटिन अमेरिकी देश ब्राजील, भारत से हजारों किलोमीटर दूर है। भारतीय पसंद करते रहे हैं पेले, रोमोरियो से लेकर रोनोल्डो, सोकरट्स जैसे ब्राजील के खिलाड़ियों को। ब्राजील की टीम में गेरसन, जौरजिन्हो, रिवेलिनो और तोस्ताओ जैसे उम्दा खिलाड़ी भी रहे हैं।

फुटबॉल भारत और ब्राजील को अद्भुत ढंग से जोड़ता भी है। इस बीच, ब्राजील के फिर से राष्ट्रपति बने लुइस इनासियो लूला डिसिल्वा भारत के मित्र हैं। लूला 2003 से लेकर 2011 तक ब्राजील के राष्ट्रपति के रूप में भारत की सरकारी यात्रा पर तीन बार आये। इस दौरान भारत में अटल बिहरी वाजपेयी तथा डॉ. मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री थे। वे 2004 की गणतंत्र दिवस परेड में मुख्य अतिथि थे। वे गांधीजी को ही अपना आदर्श मानते हैं। दोनों ही देश ब्रिक्स समूह के शक्तिशाली सदस्य हैं।

ब्राजील की एक विशेषता यह भी है कि ब्राजील वासी भारतीय मूल के कंधे पर पुठ्ठे वाली और गले में झालर, लम्बी सींघों वाली भारतीय गायों को पालना और उनके दूध, दही, मक्खन, घी का सेवन करना कहीं ज्यादा पसंद करते हैं। ब्राज़ील में भारतीय गायों को “ब्राह्मण” भी कहा जाता है।

हां, भारत विश्व फुटबॉल में शक्ति नहीं बन पाया है, पर भारत में इसे पसंद तो खूब किया जाता है। गाँव-गाँव में खेला जाता है फुटबाल। भारत ने 2017 में फीफा अंडर-17 चैंपियनशिप का सफल आयोजन भी किया था। उसके चलते भारत में फुटबॉल से जुड़े स्टेडियम और दूसरी सुविधाओं में गुणात्मक सुधार हुआ। एक दौर था जब भारत फुटबॉल में एक महान शक्ति था। वर्ष 1950 में भारत ने ब्राजील में खेले गए फीफा कप के लिए क्वालिफाई भी कर लिया था लेकिन वहां पर भारत को खेलने नहीं दिया गया था। इसका एक कारण यह भी बताया जाता है कि फीफा कप में खेलने के लिए फुटबॉल के विशेष तरह के बूट पहनने पड़ते हैं, जबकि भारतीय खिलाड़ियों को उस वक्त तक नंगे पांव खेलने की आदत थी। उनके पास कायदे के बूट थे भी नहीं। लेकिन, तब से दुनिया और भारत बहुत बदल चुका है। अब भारत विश्व की आर्थिक महाशक्ति बन चुका है।

भारत ने 1962 के जकार्ता एशियाई खेलों में फुटबॉल का गोल्ड मेडल भी जीता था। उसके बाद भारत को ‘फुटबॉल का ब्राजील’ तक कहा जाने लगा था। उस दौर में चुन्नी गोस्वामी, पीके बनर्जी, जरनैल सिंह, थंगराज जैसे बड़े खिलाड़ी भारत की फुटबॉल टीम की जान थे। पर, बाद के सालों में फुटबॉल कहीं पिछड़ गया। भारत में क्रिकेट जुनून और धर्म की शक्ल ले चुका है। पर कई राज्यों में फुटबॉल को क्रिकेट से ज्यादा पसंद किया जाता रहा है। इनमें पश्चिम बंगाल, केरल, गोवा और मणिपुर शामिल है। फुटबॉल बंगाल, गोवा, केरल वगैरह की संस्कृति का हिस्सा सदियों से है।

गोवा में फुटबॉल की शुरुआत 1883 में हुई जब आइरिश पादरी फादर विलियम रॉबर्ट लियोंस ने इसे ईसाई शिक्षा और धर्म परिवर्तन का माध्यम बनाया। आज गोवा भारत में फुटबॉल का केंद्र बन चुका है। केरल में फुटबॉल की शुरुआत 1890 में हुई जब महाराजा महाविद्यालय तिरुअनंतपुरम के रसायनशास्त्र के प्रोफेसर बिशप बोएल ने युवाओं को फुटबॉल खेलने की प्रेरणा दी। 1930 के दशक में राज्य में कई फुटबॉल क्लब बने। केरल ने भी देश को कई सफल और मशहूर फुटबॉल खिलाड़ी दिए हैं। इसी क्रम में मणिपुर का भी नाम लिया जाएगा।

और फीफा वर्ल्ड कप से पहले एक बार फिर से फुटबॉल के चाहने वालों में फिर से बहस छिड़ चुकी है कि महानतम फुटबॉलर कौन था? बहस के केन्द्र में पेले और माराडोना हैं। हालांकि इस सवाल पर अभी तक कोई सर्वानुमति नहीं बन पाई है, शायद ही आगे कभी बन पाए। पेले के चाहने वाले कहते हैं कि वे ही महानतम हैं। वे तीन बार जीती फीफा वर्ल्ड कप विजेता ब्राजील टीम के सदस्य रहे है। उन्हें साल 2000 में फीफा प्लेयर आफ दि सैंचुरी का भी सम्मान मिला। इसके विपरीत माराडोना सिर्फ एक वर्ल्ड विजेता टीम में रहे। उन्होंने 1986 वर्ल्ड कप का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी होने का गौरव भी मिला था।

क्या पेले को मुख्य रूप से इसी आधार पर सर्वकालिक महानतम खिलाड़ी माना जाए क्योंकि वे तीन बार जीती ब्राजील टीम में सदस्य थे। वे 1958 में ब्राजील की टीम में थे। वे तब 17 साल के थे। वे 1962 और 1966 के वर्ल्ड कपों में चोटिल होने के कारण कोई खास जौहर नहीं दिखा सके थे। हां, वे 1970 के वर्ल्ड कप में अपने पीक पर थे। पर उस टीम के बारे में कहा जाता है कि वो वर्ल्ड कप में खेली महानतम टीम थी। कहने वाले कहते हैं कि वो टीम पेले के बिना भी वर्ल्ड कप जीतने की कुव्वत रखती थी।

उधर, माराडोना किसी भी टीम की रक्षा पंक्ति को भेद सकते थे। यहां पर माराडोना महान बनते हैं। उन्होंने 1986 में विश्वकप अपने दम पर दिलवाया था। एक बात समझी जाए कि फुटबॉल का मतलब बड़े शॉट खेलना कतई नहीं है। बड़ा खिलाड़ी वो ही होता है,जो ड्रिबलिंग में माहिर होता है। उसे ही दर्शक देखने जाते हैं। इस लिहाज से पेले और माराडोना बेजोड़ रहे हैं। पेले के दोनों पैर चलते थे। उनका हेड शॉट भी बेहतरीन होता था। पेले के 1970 में इटली के खिलाफ फाइनल में हेडर से किए गोल को अभी लोग याद कर रोमांचित हो उठते हैं। उस गोल के चित्र अब भी यदा-कदा देखने को मिल जाते हैं। वैसे, उस फाइनल में एक गोल कार्लोस एलबर्टों ने पेले की ही पास पर किया था।

उधर, मारोडाना का सीधा पैर कतई नहीं काम करता था। उनका हैडर भी सामान्य रहता था। पर माराडोना को महान बनाता था बायां पैर। अगर गेंद उनके बायें पैर पर आ गई तो फिर वो फिर उन्हें रोक पाना असंभव था। उनका गेंद पर नियंत्रण और विरोधी खिलाड़ी को छकाने की कला दुबारा देखने को नहीं मिलेगी। मारा़डोना के बारे में विरोधी टीम को पता ही नहीं चलता था कि वे कब अपनी पोजीशन चेंज कर लेंगे। वे मैदान में हर जगह मौजूद रहते थे। पेले के पास भी लाजवाब ड्रिबलिंग कला थी, पर माराडोना से वे उन्नीस माने जाएंगे।

फ्री किक में भी माराडोना पेले से बहुत आगे जाते थे। उनका अपनी टीम पर गजब का प्रभाव था। हां, पासिंग और रफ्तार में दोनों का कोई सानी नहीं हुआ। भारत का बच्चा-बच्चा इन दोनों को चाहता है। ये दोनों बार-बार भारत भी आए। इनकी लोकप्रियता देशों की सीमाओं से परे रही है।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)