– प्रो. श्याम सुंदर भाटिया
बेल्जियम में जन्मे फादर कामिल बुल्के की जग-विख्यात विशेषता यह है, वे रामकथा के मर्मज्ञ, हिंदी के विद्वान और विलायत में जन्मे भारतीय थे। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ पर 1950 में पी.एच.डी. की। इस शोध में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, बांग्ला, तमिल आदि समस्त प्राचीन और आधुनिक भारतीय भाषाओं में उपलब्ध राम विषयक विपुल साहित्य का ही नहीं, वरन तिब्बती, बर्मी, सिंघल, इंडोनेशियाई, मलय, थाई आदि एशियाई भाषाओं के समस्त राम साहित्य की सामग्री का भी अत्यंत वैज्ञानिक रीति से उपयोग हुआ है। तुलसीदास उन्हें उतने ही प्रिय थे, जितने अपनी मातृभाषा फ्लेमिश के महाकवि गजैले या अंग्रेजी के महान ड्रेमेटिस्ट विलियम शेक्सपियर। ‘रामकथा-वैश्विक सन्दर्भ में’ का लोकार्पण करते प्रसिद्ध साहित्यकार केदारनाथ सिंह ने एक बार कहा था, फादर कामिल बुल्के के शोधग्रन्थ ‘राम कथा’ की सर्वत्र चर्चा है। वास्तव में इस ग्रन्थ से हिंदी के संग-संग विदेश में भी रामकथा के तुलनात्मक साहित्य अध्ययन की शुरुआत हुई। उन्होंने अपनी मातृभूमि बेल्जियम में फ्रेंच के विरुद्ध फ्लेमिश भाषा की लड़ाई देखी और लडी थी। एक बार उन्होंने लिखा था, अगर वह हिंदी की सेवा में नहीं लगते तो अपने देश में फ्लेमिश क्रांतिकारी होते।
‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ ग्रंथ की रचना में कितना परिश्रम किया होगा, यह पुस्तक के अध्ययन से ही समझ में आ सकता है। रामकथा से संबंध रखने वाली किसी भी सामग्री को उन्होंने छोड़ा नहीं है। प्रथम भाग में ‘प्राचीन रामकथा साहित्य’ का विवेचन है, जिसके पांच अध्यायों में वैदिक साहित्य और रामकथा, वाल्मीकिकृत रामायण, महाभारत की रामकथा, बौद्ध रामकथा और जैन रामकथा संबंधी सामग्री की पूर्ण समीक्षा की गई है। द्वितीय भाग में रामकथा की उत्पत्ति है तो इसके चार अध्यायों में दशरथ जातक की समस्या, रामकथा के मूल स्रोत के संबंध में विद्वानों के मत, प्रचलित वाल्मीकीय रामायण के मुख्य प्रक्षेपों और रामकथा के प्रारंभिक विकास पर चिंतन किया गया है।
ग्रंथ के तृतीय भाग में ‘अर्वाचीन रामकथा साहित्य का सिंहावलोकन’ है। इसमें भी चार अध्याय हैं। पहले और दूसरे अध्याय में संस्कृत के धार्मिक तथा ललित साहित्य में पाई जाने वाली रामकथा सम्बन्धी सामग्री की परीक्षा है। तीसरे अध्याय में आधुनिक भारतीय भाषाओं के रामकथा संबंधी साहित्य का विवेचन है। चौथे अध्याय में विदेश में पाये जाने वाले रामकथा के रूप में सार दिया गया है, जिसमें तिब्बत, खोतान, हिंदेशिया, हिंदचीन, श्याम, ब्रह्मदेश आदि में उपलब्ध सामग्री का पूर्ण परिचय एक ही स्थान पर मिल जाता है। अंतिम और चतुर्थ भाग में रामकथा संबंधी एक-एक घटना को लेकर उसका पृथक-पृथक विकास दिखलाया गया है। घटनाएं कालक्रम से ली गई हैं। उपसंहार में रामकथा की व्यापकता, विभिन्न रामकथाओं की मौलिक एकता, प्रक्षिप्त सामग्री की सामान्य विशेषताएं, विविध प्रभाव तथा विकास का सिंहावलोकन है।
यह ग्रंथ वास्तव में रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोष कहा जा सकता है। वास्तव में यह खोजपूर्ण रचना अपने ढंग की पहली ही है और अनूठी भी। हिंदी क्या संभवतः किसी भी यूरोपीय अथवा भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है। हिंदी पट्टी में इस लोकप्रिय विषय पर ऐसे वैज्ञानिक अन्वेषण से धर्म और राजनीति के अनेक मिथक खंडित हो जाते हैं और शोधकर्ताओं को एक दिशा भी मिलती है।
फादर कामिल बुल्के का जन्म 1 सितम्बर, 1909 को बेल्जियम के पश्चिमी फ्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले नामक गांव में हुआ। उनके पास सिविल इंजीनियरिंग में बी.एस.सी डिग्री थी, जो उन्होंने लोवैन विश्वविद्यालय से प्राप्त की। 1934 में उन्होंने भारत का संक्षिप्त दौरा किया और कुछ समय दार्जिलिंग में रुके। उन्होंने गुमला अब झारखंड में पांच वर्षों तक गणित का अध्यापन किया। यहीं पर उनके मन में हिंदी भाषा सीखने की ललक पैदा हो गई। उन्होंने लिखा है- मैं जब 1935 में भारत आया तो अचंभित और दुःखी हुआ। मैंने महसूस किया कि यहां पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा कि लोग अंग्रेजी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं।
उन्होंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करूंगा। अंततः फादर कामिल बुल्के से बाबा कामिल बुल्के कहलाए जाने लगे। फादर कामिल बुल्के ने पंडित बद्रीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की और 1940 में ‘विशारद’ की परीक्षा ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’, प्रयाग से उत्तीर्ण की। उन्होंने 1942-1944 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में मास्टर्स डिग्री हासिल की। कामिल बुल्के ने 1945-1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में रामायण पर शोध किया। 1949 में ही वह सेंट जेवियर्स कॉलेज, रांची में हिंदी और संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष नियुक्त किए गए। कामिल बुल्के सन 1950 में ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’ की कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए। वह सन 1972 से 1977 तक भारत सरकार की ‘केन्द्रीय हिंदी समिति’ के सदस्य रहे। कामिल बुल्के लंबे समय तक रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में संस्कृत तथा हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे, लेकिन बाद में बहरेपन के कारण कॉलेज में पढ़ाने से अधिक उनकी रुचि गहन अध्ययन और स्वाध्याय में होती चली गई।
बुल्के का अपने समय के हिंदी भाषा के सभी चोटी के विद्वानों से संपर्क था। डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. रामस्वरूप, डॉ. रघुवंश, महादेवी वर्मा आदि से उनका विचार-विमर्श और संवाद होता रहता था। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा को अपना प्रेरणा स्रोत मानते हुए वे अपनी आत्मकथा ‘एक ईसाई की आस्था, हिंदी-प्रेम और तुलसी-भक्ति 2’ में लिखते हैं- “1945 में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा की प्रेरणा से मैंने एम.ए. के बाद इलाहाबाद से डॉ. माता प्रसाद के निरीक्षण में शोध कार्य किया। इलाहाबाद के प्रवास को वे अपने जीवन का ‘द्वितीय बसंत’ कहते थे। महादेवी वर्मा को वे ‘दीदी’ और इलाहाबाद के लोगों को वे ‘मायके वाले’ कहते थे।
बुल्के के प्रस्तुत शोध-‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ की विशेषता थी कि यह मूलतः हिंदी में प्रस्तुत पहला शोध प्रबंध है। फादर बुल्के जिस समय इलाहाबाद में शोध कर रहे थे, उस समय सभी विषयों में शोध प्रबंध केवल अंग्रेजी भाषा में ही प्रस्तुत किए जाते थे। फादर बुल्के ने इलाहबाद विश्वविद्यालय की उच्च शिक्षा परिषद से सादर आग्रह किया कि उन्हें हिंदी में शोध प्रबंध प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए। इसके लिए अंततः शोध संबंधी नियमावली में परिवर्तन किया गया। वह बहुभाषाविद् थे। बाबा बुल्के अपनी मातृभाषा ‘फ्लेमिश’ के अतिरिक्त अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक, संस्कृत और हिंदी पर भी संपूर्ण अधिकार रखते थे। हिंदुस्तान की माटी विशेषकर रांची उनके रोम-रोम में बसा था। 1951 में भारत सरकार ने फादर बुल्के को बड़े ही आदर के साथ भारत की नागरिकता प्रदान की। बाबा बुल्के भारत के नागरिक बनने के बाद स्वयं को ‘बिहारी’ कहलवाना पसंद करते थे।
कामिल बुल्के की हिंदी सेवाओं के लिए 1974 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से नवाजा। पद्मभूषण विजेता और मधुशाला के रचियता हरिवंशराय बच्चन बाबा कामिल बुल्के के श्रीराम स्नेह से इतने अभिभूत थे, उन्होंने बाबा कामिल बुल्के पर खुद ही कविता लिखी। वह बाबा का कितना सम्मान करते थे, उनकी इस कविता में साफ-साफ झलकता है-फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!/ जन्मे और पले योरुप में/ पर तुमको प्रिय भारत धाम/ फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम! /रही मातृभाषा योरुप की/ बोली हिंदी लगी ललाम/ फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!/ ईसाई संस्कार लिए भी/पूज्य हुए तुमको श्रीराम/फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम…।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)