– गिरीश्वर मिश्र
आज के जटिल तनावों के बीच साधारण आदमी मन की शांति भी चाहता है और अपनी तमन्नाओं को फलीभूत भी करना चाहता है। इन दोनों कामनाओं की पूर्ति के लिए वह भटकता रहता है। उस मनस्थिति में अगर कोई उठ कर हाथ थामने का स्वाँग भी भरे तो बड़ी राहत मिलती है। कुछ ऐसा ही हुआ जब भक्ति, समर्पण और जीवन में उत्कर्ष की आकांक्षा लिए निष्ठा के साथ इकट्ठा हुए श्रद्धालु भक्तों के हुजूम के बीच अचानक हुई भगदड़ के दौरान बीती दो जुलाई को सवा सौ लोगों को असमय ही अपनी जानें गंवानी पड़ी और बड़ी संख्या में लोग घायल भी हुए । यह विचलित कर देने वाला दुखद हादसा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर हाथरस के एक गांव में हुआ। यह मानवीय त्रासदी जनता, धर्म गुरुओं, उपदेशकों और जन-व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार सरकार सब के सामने कई तरह के सवाल छेड़ गई । आज इक्कीसवीं सदी के ज्ञान युग में विकसित भारत का दम भरने वाले, विश्व की तीसरी अर्थ व्यवस्था का सपना संजोने वाले हम सब को विचार के लिए बाध्य कर रही है। हमें सोचना होगा और व्यवस्था में सुधार लाना होगा। सामाजिक स्तर पर मानसिकता में सुधार की भी गुंजाइश है। राजनीतिक और सामाजिक विमर्श में तर्क, वैज्ञानिक बोध और आध्यात्मिकता के महत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती। सब कुछ धन सम्पदा और अर्थ से ही नही चलेगा – न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य: । हम सब मानव स्वभाव की रीति-नीति और उतार चढ़ाव को विस्मृत नहीं कर सकते।
इस भीषण दुर्घटना के नायक सूरजपाल सिंह जाटव उर्फ़ परमात्मा भोले बाबा नारायण साकार हरि नामक शख़्स है। अब तक मीडिया में आई जानकारी के अनुसार यह एक भूतपूर्व सजायाफ़्ता पुलिस कर्मी और वर्तमान में स्वघोषित और स्वयंभू धर्म गुरु हैं जो जनता के आध्यात्मिक मार्ग दर्शक बन कर लोकोपकार में जुटे हुए हैं। पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों और ग़रीबों के बीच उनहोने उद्धारकर्ता के रूप में अपनी अच्छी ख़ासी मसीहाई क़िस्म की छवि बना ली है । उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, बिहार, और उत्तराखंड में इस बाबा की आवाजाही है। वहाँ पर उनकी अच्छी पैठ बन चुकी है। भोली-भाली गरीब जनता में प्रसिद्धि फैली हुई है कि साकार हरि के आश्रमों में लगे हैंड पम्प से निकलने वाला पानी अनेकानेक रोगों की दवा है। इसी तरह उनकी चरण-धूलि की भी प्रसिद्धि है। उसे स्वास्थ्यवर्धक, कल्याणकारी और विघ्न विनाशक घोषित किया गया है । आज एटा, मैनपुरी, कासगंज तथा आगरा आदि कई स्थानों पर भोले बाबा के आश्रम बन गए जहां उसके अनुयायियों ने गुरु के लिए सर्वसुविधासम्पन्न आलीशान व्यवस्था बना दी है । स्वयं साकार हरि सफ़ेद सूट धारण करते हैं और आधुनिक रुचि की वस्तुओं के शौक़ीन हैं। अपनी भव्य प्रस्तुति में वह ईश्वरीय सत्ता को उपस्थित करते हैं और अधर्म के नाश को अपना उद्देश्य बताते हैं। आम जनता में वे भोले बाबा के रूप में विख्यात हैं।
प्राप्त सूचना के अनुसार हाथरस में घटनास्थल पर भोले बाबा का प्रवचन और सत्संग चल रहा था। मौक़े पर पुलिस भी थी और कुछ सरकारी अधिकारी भी थे, पर एकत्र हो गए जन समूह के आकार के हिसाब से इनकी संख्या बहुत कम थी । इस समागम में दो लाख से भी अधिक लोग दिव्य सत्संग का लाभ उठाने के लिए उपस्थित हुए थे, हालाँकि सूचना के मुताबिक़ मुख्य सेवादार ने इस कार्यक्रम में सिर्फ़ अस्सी हज़ार लोगों के उपस्थित होने के लिए ही सरकारी स्वीकृति ली थी । भक्तों में प्रचारित मान्यता के अनुरूप वहाँ जुटी विशाल भीड़ परमात्मा जिस पथ पर चलते हुए आगे गए थे उस पथ पर फैली-पसरी पवित्र और चमत्कारी चरण-रज इकट्ठा करने के लिए व्यग्र हो गई और दौड़ पड़ी । लोग चल पड़े और अपर्याप्त व्यवस्था के चलते उमड़ती भीड़ के आग सब कुछ बेक़ाबू होता गया। बाबा के शरीर-रक्षकों के साथ वहाँ उपस्थित कुछ भक्तों और अनुयायियों के बीच हाथापाई हुई। भीड़-भड़क्का अनियंत्रित होता गया और अव्यवस्था का दायरा बढ़ता गया और तभी लोगों में भगदड़ मच गई । सब कुछ बेलगाम अनियंत्रित होता गया। बताया जाता है कि हाई वे से नीचे लगे खेत में लोग एक दूसरे पर गिरते रहे और कुचले जाते रहे । वे गिरने और कुचले जाने के अलावे कुछ न कर सकने की स्थिति में थे । मृतकों में महिलाओं और बच्चों की संख्या अधिक है । इन (सबसे बेख़बर!) या इस घटना क्रम को दर किनार करते हुए बाबा अपनी मोटर गाड़ी में बैठ आगे चल दिए थे । बाबा के राजनीतिक सम्पर्क हैं। वे एफ आइ आर में दर्ज नहीं हैं न ही अभी तक उनका कोई पता है।वे फ़रार हैं और कहीं भूमिगत हैं और उन पर कोई कारवाई नहीं हो सकी है । कुछ सेवादार ज़रूर पकड़े गए हैं।
एक गाँव में दो ढाई लाख की भीड़ का जुटना और वहाँ सत्संग में जमे रहना लोगों के सामाजिक और मानसिक गतिकी की तरह भी इशारा करता है। निश्चय ही उत्साह, उमंग, जिज्ञासा और अपना जीवन संवारने की अभिलाषा भीड़ के उमड़ने में ख़ास कारण रही होगी। भीड़ में पहुँच कर सचेत व्यक्ति भीड़ के अचेतन व्यक्तित्व में समा जाता है, वह स्वतंत्र व्यक्ति नहीं रह जाता । भीड़ को सबसे अस्थिर और अस्थायी समूह कहा जा सकता है। भीड़ तकनीकी दृष्टि से मूलतः असंगठित होती है परंतु उसमें आने वाले लोगों में आयु, रुचि, क्षेत्र, भाषा तथा व्यवसाय आदि में समानता होती है। भौतिक निकटता का भी बड़ा असर होता है। भीड़ में लोगों के बीच आपस में रिश्ता भी जल्दी बनता है और टूटता भी है। अक़्सर समान या साझे की रुचि लोगों को एक दूसरे के निकट लाती है और भीड़ का हिस्सा बनने में मददगार होती है । भीड़ में पहुँच सभी व्यक्तियों के भाव और विचार की धारा एक ही दिशा में बहने लगती है । इसलिए जब भीड़ जुटती है तो एक संक्रामक स्थिति बन जाती है। तब एक उत्तेजना उठती है और लोगों के बीच एक क़िस्म की पारस्परिक सहानुभूति का प्रसार और विस्तार शुरू हो जाता है। लोगों की भावनाओं के लक्षण और अभिव्यक्ति में एक सामूहिक प्रभाव झलकता है। व्यक्ति के अपने निजी तर्क की जगह सामूहिक तर्क चलने लगता है। एक हद तक अदूरदर्शिता आ जाती है। आगे का कुछ सूझता नहीं है। तब आदमी में बुद्धि की जगह संवेदना और घोर भावात्मकता काम करने लगती है। भीड़ में आ कर निजी या व्यक्तिगत विशेषताएँ खो जाती हैं। लोग अक़्सर अपने मित्रों और परिचितों के साथ ही जमावड़ों में जाते हैं। ऐसे में निजी स्व (सेल्फ़) पिछड़ जाता है और सामाजिक पहचान ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। भीड़ में आकर ‘मैं’ की जगह ‘हम’ का बोध प्रबल हो कर काम करने लगता है। भीड़ के बीच उसका हिस्सा होने के बाद लोग अपने को भुला कर समूह के मानकों, मूल्यों और व्यवहार रूपों को अपनाने लगते हैं। सभी जुट जाते हैं और ध्येय एक होने से सभी एक ही चीज़ को पाने के लिए उद्यत रहते हैं। इस सबके चलते भीड़ अत्यंत शक्तिशाली हो उठती है।
गौर तलब है कि हाथरस की हृदयविदारक मानवीय त्रासदी में ज़्यादातर लोग समाज के हाशिए पर रहने वाले वंचित, गरीब और पिछड़े तबके से आए थे। फ़र्ज़ी बाबा, तांत्रिक और ऐसे ही नक़ली स्वामी गणों की अपने देश में आज भी एक लम्बी सूची है जो लोगों को भरमा-फुसला कर शोषण करते आ रहे हैं। ऐसी घटना भी नई नहीं बल्कि पहले की घटनाओं की पुनरावृत्ति है। अंध-विश्वास, अवैज्ञानिक सोच और लचर सरकारी व्यवस्था आदि की भारी गठरी सिर पर ढोते हुए हम सब विकसित भारत के भविष्य की उदात्त-यात्रा पर चल रहे हैं। भीड़ में भेंड़-चाल चलते, लाचार, हारे थके, अपने लिए रास्ते ढूँढ़ते दुखियारे लोग इस तरह की घटनाओं के शिकार होते रहते हैं। उनकी एक ही चाहत होती है कि उनको अपने कष्टों से त्राण मिल सके। लाचार बदहाल लोग ही हाथरस त्रासदी के पीड़ितों में ज़्यादा थे और मृतकों में 108 महिलाएँ थीं। घायलों को चिकित्सा सुविधा मुहैया करना भी कठिन था। प्रशासन और आयोजक दोनों ही इस तरह की अनहोनी के लिए तैयार न थे। न एम्बुलेंस, न डाक्टर, न अस्पताल किसी भी चीज की व्यवस्था अपर्याप्त सिद्ध हुई। समानता, समता, समाजवाद, भाई-चारा, धर्म-निरपेक्षता, महिला सशक्तीकरण, ग़रीबी उन्मूलन आदि का नारा देश में पिछले कई दशकों से लगाया जा रहा है पर यह त्रासदी मंथन के लिए मजबूर कर रही है कि हम बहुत कुछ सतही स्तर पर ही करते रहे हैं। इस तरह की विभीषिका समाज और सरकार सबके लिए चेतावनी है कि समाज में अच्छी शिक्षा का विस्तार हो, विवेक बुद्धि का विकास हो और व्यवस्था चाक-चौबंद हो जिसमें कुत्सित बाबा जैसे अपराधियों को समय पर दंड मिले।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)