– गिरीश्वर मिश्र
चुनाव को लोकतंत्र का पवित्र महोत्सव कहा जाता है । अब इसकी संस्कृति का पूरी तरह से कायाकल्प हो गया है । चुनाव आने के थोड़े दिन पहले गहमा-गहमी तेज होती है और अंतिम कुछ दिनों में हाईकमान अपने कंडिडेट का ऐलान करता है । साथ ही भूली बिसरी जनता की सुधि आती है। चुनाव आते ही सभी राजनीतिक दल अपना-अपना जादू का पिटारा खोलते है और उनकी सोई हुई जन-संवेदना जागती है । आहत जनता को राहत देने के लिए कमर कसते हुए सभी दल सुविधाओं की फेहरिस्त तैयार करने में जुट जाते हैं । रेल , सड़क , स्कूल , अस्पताल , नौकरी , कर्ज यानी जीने के लिए जो भी चाहिए उस सूची में शामिल किया जाता है । चुनावी राज्यों में पुलिस द्वारा करोड़ों रुपयों की जब्ती और शराब की आवाजाही आम बात हो गई है जिनका कोई दावेदार नहीं मिलता । यह सब इसलिए होता है ताकि जनता को अधिकाधिक मात्रा में लुभाया जा सके । जन-प्रलोभनों की यह अजीबोगरीब पेशकश यह सिद्ध करने के लिए मीडिया में खूब प्रचारित की जाती है कि वैसा लोक-शुभेच्छु कोई दूसरा नहीं है । इस सिलसिले में विभिन्न दल एक दूसरे से बढ-चढ़ कर जनसेवा की हुंकार भरते नहीं थकते और धन सम्पदा लुटाने की घोषणा करते हैं । बोली लगने के माहौल जैसी यह कवायद चुनी सरकार के बजट की याद दिलाती है । अलादीन के चिराग न होने पर कमी सिर्फ यही रहती है कि नेतागण यह नहीं बताते कि इन खर्चों के लिए राजस्व और संसाधन का जुगाड़ कैसे होगा और यह सब कहां से आएगा ।
चुनाव की चर्चा में देश , देश का भविष्य और देश की नीतियों के सवाल ग़ायब रहते हैं और सभी दल एक दूसरे पर दोष मढ़ने को बेताब रहते हैं । तू- तू, मैं-मैं करते हुए बात बढ़ कर व्यक्तिगत अपमान और लांछन पर आ टिकती है । नेताओं पर भद्र अभद्र आरोप लगते हैं और सभ्य शिष्ट आचरण से भटक कर सही गलत प्रवाद फैक्टर जाते हैं । चुनावी दंगल में रैली , रोड शो और रेला के आयोजन करते हुए राजनीतिक दल अपना दम खम दिखाने का स्वांग करते हैं । उस दौरान यातायात और जनसुविधाएं जरूर ठप हो जाती हैं ।
गौरतलब है कि घोषित हो रही सुविधाओं का फौरी आकलन और आख्यान जनता को मुफ्तखोरी की राह दिखाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता है । वंचित उपेक्षित समुदायों के लिए आरक्षण का ब्रह्मास्त्र चलाया जाता है और जातिगत आरक्षण का प्रावधान निरंतर व्यापक किया जा रहा है । गौरतलब है कि संविधान की यह व्यवस्था अल्पकाल के लिए की गई थी । वोट बैंक की राजनीति को प्रश्रय देते हुए उसका विस्तार नाना प्रकार से बढ़ाया जाता रहा। भारत में जातिमुक्त समाज के लक्ष्य को जाति की सत्ता की तीव्र पुष्टि की नीतियों से प्राप्त करने की अनवरत चेष्टा के अंतर्विरोध बार-बार सामने आते रहे हैं परंतु समाधान के लिए ध्यान देना नहीं हो सका । राजनीति की दृष्टि से यह मुफीद नहीं लगता और योग्यता और अवसर का तालमेल बिठाने की कोशिश धरी रह जाती है ।
चुनाव और सरकार बनाना लोकतंत्र के उपकरण हैं जिनका उपयोग लोकतंत्र को और लोक की गरिमा को सुरक्षित और संवर्धित करने के लिए होनी चाहिए । देश के हित में समाज के विधान का कोई विकल्प नहीं है । राजनीति एक सेवाधर्मी उपक्रम होना चाहिए जिसका दीर्घकालिक नियोजन आवश्यक है । सामान्य जीवन में इसके प्रति उदासीनता के भाव ने राजनीति में मूल्यहीनता को बढ़ावा दिया है । आज भारत एक सशक्त राष्ट्र के रूप में उभर रहा है । इस अवसर पर राजनीति में मूल्यों की पुनर्स्थापना जरूरी हो रही है ।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)