Friday, November 22"खबर जो असर करे"

अहंकार का नाश करती है गोवर्धन पूजा

– योगेश कुमार गोयल

पांच दिवसीय दीपावाली पर्व की शुरुआत धनतेरस से होती है और चौथे दिन कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को गोवर्धन पूजा की जाती है लेकिन इस वर्ष गोवर्धन पूजा की तिथि को लेकर लोगों में भ्रम की स्थिति है। दरअसल इस बार कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि की शुरुआत 13 नवंबर को दोपहर 2 बजकर 56 मिनट से हो रही है और समापन 14 नवंबर को दोपहर 2 बजकर 36 मिनट पर होगा। चूंकि हिन्दू धर्म में उदया तिथि को विशेष महत्व दिया जाता है, इसीलिए द्रिक पंचांग के अनुसार गोवर्धन पूजा का पर्व 14 नवंबर को मनाया जाएगा। हालांकि कुछ ज्योतिषाचार्यों के अनुसार 13 नवंबर को भी गोवर्धन पूजा की जा सकती है लेकिन 14 नवंबर को गोवर्धन पूजा करने का शुभ मुहूर्त प्रातः 6ः43 से प्रारंभ होकर 8.52 तक सर्वोत्तम है। 14 नवंबर दो बजे के बाद भाई दूज की तिथि शुरू होगी।

कार्तिक मास की शुक्ल प्रतिपदा को मनाए जाने वाले इस पर्व को ‘अन्नकूट पर्व’ के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन घर में गाय के गोबर से गोवर्धन की मानव रूपी आकृति बनाकर उसकी पूजा की जाती है तथा तरह-तरह के व्यंजन बनाकर गोवर्धन को भोग लगाया जाता है। इन व्यंजनों को ‘छप्पन भोग’ की संज्ञा दी जाती है। अन्नकूट पर्व के दिन गोपूजा का भी विशेष महत्व है। इसी कारण इस दिन बहुत से लोग गाय, बैल तथा अन्य पशुओं की सेवा करते हैं और गायों की आरती भी उतारी जाती है। इस दिन शाम के समय गोवर्धन पूजन के समय भगवान विष्णु, भगवान श्रीकृष्ण के साथ-साथ दैत्यराज महाप्रतापी एवं महादानवीर बलि का भी पूजन किया जाता है।

माना जाता है कि इस पर्व का प्रचलन द्वापर युग से शुरू हुआ था और तभी से हर वर्ष कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को यह पर्व मनाया जाता रहा है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने देवराज इन्द्र के अहंकार को चूर-चूर कर गोकुलवासियों को गोधन के महत्व से परिचित कराया था। इस दिन गोबर से गोवर्धन बनाकर उसकी पूजा की जाती है। वेदों में इस दिन वरुण, इन्द्र और अग्निदेव के पूजन का भी विधान है। पुराणों में बताया गया है कि इस दिन भगवान विष्णु ने लक्ष्मी सहित समस्त देवी-देवताओं को बलि की कैद से मुक्त कराया था।

इस पर्व के संबंध में द्वापर युग की एक कथा प्रचलित है। एक बार भगवान श्रीकृष्ण अपने बाल सखाओं के साथ गायों को चराते हुए गोवर्धन पर्वत की तराई में पहुंच गए। वहां उन्होंने देखा कि हजारों गोप-गोपियां बड़े उत्साह से नाच-गाकर कोई उत्सव मना रहे हैं और 56 प्रकार के व्यंजन वहां रखे हैं। श्रीकृष्ण के पूछने पर गोपियों ने बताया कि आज के दिन वृत्रासुर नामक राक्षस का वध करने वाले मेघों व देवों के राजा इन्द्र का पूजन किया जाता है क्योंकि उनकी कृपा से ही ब्रज में वर्षा होती है और अन्न पैदा होता है। यह सुनकर श्रीकृष्ण ने वहां उपस्थित समस्त ब्रजवासियों से कहा कि अगर देवराज इन्द्र स्वयं यहां आकर भोग लगाएं, तभी तुम्हें यह उत्सव मनाना चाहिए।
ब्रजवासी श्रीकृष्ण की बात से सहमत नहीं हुए। गोपियों ने श्रीकृष्ण से कहा, ‘अगर इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए ‘इन्द्रोज’ नामक यह यज्ञ नहीं किया गया तो समस्त ब्रजवासियों को इन्द्र के कोप का सामना करना होगा और समूचा ब्रज अकाल या बाढ़ की चपेट में आ जाएगा। इसलिए हमें यह यज्ञ हर हाल में करना ही चाहिए।’ इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, ‘इन्द्र में क्या शक्ति है? उससे ज्यादा शक्तिशाली तो हमारा यह गोवर्धन पर्वत है और ब्रज में इसी के कारण वर्षा होती है।

इसलिए हमें इन्द्रोज यज्ञ करने के बजाय गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए।’ काफी वाद-विवाद के पश्चात् ब्रजवासी इन्द्र के बजाय गोवर्धन की पूजा करने के लिए तैयार हो गए। सभी अपने घरों से पकवान लाकर श्रीकृष्ण द्वारा बताई विधि के अनुसार गोवर्धन का पूजन करने लगे। श्रीकृष्ण ने तब गोवर्धन पर्वत में अपना दिव्य रूप प्रविष्ट कराकर स्वयं गोवर्धन के रूप में समस्त व्यंजनों का भोग लगाया और ब्रजवासियों को आशीर्वाद दिया। ब्रजवासी गोवर्धन को प्रसन्न करने के लिए किए गए अपने यज्ञ को सफल मानकर बड़े प्रसन्न हुए।

नारद मुनि ने इन्द्र को इस घटना की जानकारी दी तो इन्द्र इसे अपना अपमान मानकर क्रोध के मारे फुफकार उठा और मेघों के जरिये ब्रज में तबाही शुरू कर दी। ब्रजवासियों की घबराहट देख श्रीकृष्ण ने उन्हें गोवर्धन पर्वत की शरण में चलने को कहा और गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठ उंगली पर उठा लिया। इस प्रकार पूरे सात दिन तक ब्रजवासी गोवर्धन के नीचे सुरक्षित रहे।

अंततः देवराज इन्द्र को हार माननी पड़ी और तब ब्रह्मा जी ने उन्हें श्रीकृष्ण अवतार का रहस्य बताया तो इन्द्र श्रीकृष्ण से अपनी भूल के लिए क्षमा याचना करने लगे। श्रीकृष्ण ने तब गोवर्धन को अपनी उंगली से नीचे उतारते हुए ब्रजवासियों से हर वर्ष इसी दिन गोवर्धन की पूजा करने को कहा। माना जाता है कि तभी से प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को यह पर्व मनाया जाने लगा। इस दिन गौ पूजन करने के पीछे धारणा यह है कि इससे व्यक्ति को भोग एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह पर्व जहां गोधन के महत्व को दर्शाता है, वहीं इसे इन्द्र का अहंकार नष्ट होने के रूप में भी देखा जाता है। प्राणीमात्र को इससे यही सीख मिलती है कि अहंकार मनुष्य को सदा नीचा दिखाता है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)