Friday, November 22"खबर जो असर करे"

द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से साकार हुआ बिरसा मुंडा का सपना

– आर.के. सिन्हा

आदिवासी समुदाय की द्रौपदी मुर्मू देश की 15 वीं राष्ट्रपति निर्वाचित हो गईं हैं। अब उन्हें सोमवार (25 जुलाई) को पद और गोपनीयता की शपथ राष्ट्रपति भवन के दरबार हॉल में दिलवाई जाएगी। वह जब भारत के प्रथम नागरिक के रूप में शपथ ग्रहण करेंगी तब देश के लगभग 10 करोड़ आदिवासी निश्चित रूप से दिल से गौरवान्वित महसूस करेंगे। भारत की साल 2011 की जनगणना के मुताबिक देश की कुल जनसंख्या का साढ़े आठ फीसदी हिस्सा आदिवासियों का है। जरा गौर करें क 2011 की जनगणना में हिन्दू देश की कुल आबादी में 96.93 करोड़ के साथ लगभग 80 फीसद थे। उनके बाद मुसलमान 17.22 करोड़ की आबादी के साथ दूसरे स्थान पर थे। उनकी आबादी 14.2 फीसद थी। ईसाई जनसंख्या 2.78 करोड़ के साथ तीसरे स्थान पर थी। सिखों की आबादी 2.08 करोड़ के साथ चौथे स्थान थी।

इससे समझा जा सकता है कि आदिवासियों को उनका सामान्य सा हक देने में भी कितना विलंब किया गया। आखिर देश में कुछ शक्तियां कब तक वंचित वर्गों के साथ अन्याय करती रहेंगी । 75 साल में तीन बार मुसलमान राष्ट्रपति बने। एक बार सिख राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी बने। और एक बार देश का ईसाई भी राष्ट्रपति बन गया। पर किसी को अनुसूचित जाति और जनजाति की बड़ी आबादी वाले वंचितों को आगे लाने का ख्याल नहीं आया। धिक्कार है ऐसे शीर्षस्थ राजनेताओं के वंचितों के प्रति नकारात्मक और हेय दृष्टि रखने वाले विचार पर।

आदिवासी शब्द दो शब्दों ‘आदि’ और ‘वासी’ से मिल कर बना है। इसका अर्थ किसी भी भू-भाग का मूल निवासी होता है। महात्मा गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन (पहाड़ पर रहने वाले लोग) कह कर पुकारा था । हालांकि सभी आदिवासी गिरिजन नहीं होते। वह वनवासी अवश्य होते हैं। भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए ‘अनुसूचित जनजाति’ शब्द का उपयोग किया गया है। भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में आंध, गोंड, खरवार, मुंडा, खड़िया, बोडो, कोल, भील, कोली, सहरिया, संथाल, मीणा, भूमिज, उरांव, लोहरा, बिरहोर, पारधी, असुर, टाकणकार आदि हैं।
द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति भवन पहुंचना इस बात की ठोस गवाही है कि भारत के राजनेताओं की सोच अब बदल चुकी है। अब भारत में सबको बराबर के अवसर प्रदान किए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में ओडिशान से आने वाली द्रौपदी मूर्म को देश का राष्ट्रपति बनाने का निर्णय उसकी सकारात्मक और आदिवासियों के हक में फैसले लेने के दृढ़ संकल्प को व्यक्त करता है। सच में यह बेहद सुखद संयोग है कि द्रौपदी मूर्मू उस साल भारत की राष्ट्रपति बन रही हैं जब देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। पर यहां पर यह भी सवाल तो पूछा ही जा रहा रहा है कि आजादी के इतने सालों तक विभिन्न सरकारों ने किसी आदिवासी को देश का महामहिम बनाने के संबंध में क्यों नहीं सोचा। उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किसलिए होता रहा। यह सवाल वाजिब भी है।

आदिवासी मुख्य रूप से ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान,नागालैंड, झारखंड, मिजोरम आदि में बहुसंख्यक व गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक हैं लेकिन अच्छी संख्या में हैं। भारत की लोकसभा में भी जनजातियों के 47 सीटें आरक्षित हैं। इस तरह हर राज्य में कुछ न कुछ सीटें रिजर्व हैं ही। मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से सारी दुनिया में भारत के पक्ष में एक बेहतर संदेश गया है। यह अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडेन के बयान से स्पष्ट है। कहा जा रहा है कि अब तक शोषित और वंचित समझे वाले वर्ग की महिला 135 करोड़ की आबादी वाले देश की राष्ट्रपति बनी हैं।

यह सामान्य बात नहीं है। बेशक, अब एक उम्मीद बंधी है कि आदिवासियों के जंगल और जमीन पर कारपोरेट घरानों के हमलों और खनन व विकास के नाम पर होने वाले प्राकृतिक सम्पदा-हड़प अभियान पर रोक लगेगी। देश सदियों से आदिवासियों के दमन और जनसंहार की भयावह कथाओं को सुनता रहा है। उस दौर का अंत होगा। वे तमाम घटनाएं अब सिर्फ इतिहास का हिस्सा होकर रह जाएंगी। आदिवासी महिला का राष्ट्रपति चुना जाना भारत ही नहीं पूरे विश्व के लिए एक बड़ी बात है। देश में आदिवासियों के साथ अन्याय की इंतेहा हो चुकी है। उनकी बची-खुची जमीनें कथित विकास की भेंट चढ़ गई हैं। अफसोस यह कि शासन उनकी वेदना को कभी नहीं समझ पाता। हम जानते हैं कि राष्ट्रपति पद की एक सीमा और गरिमा होती है पर द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से आदिवासी निश्चित रूप से और अधिक सशक्त होंगे और उनके हालात सुधरेंगे। इसके साथ ही यह भी सच है कि द्रौपदी मुर्मू सामाजिक ताने-बाने से समाज के चाहे जिस दबे-कुचले तबके का भी प्रतिनिधित्व क्यों न करती हों, लेकिन, आज वो इस देश की संवैधानिक मुखिया हैं। राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री अथवा ऐसा ही कोई भी संवैधानिक पद, एक संवैधानिक पद ही होता है, इसे दलित, महिला, आदिवासी, सिख, हिन्दू, मुस्लिम या ऐसे ही किसी दूसरे तरह के प्रतिमानों से देखने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। जनत सबकुछ देखती है और तुलनात्मक अध्ययन भी करती है।

आदिवासी समुदाय प्राचीनकाल से पारंपरिक तरीके से अपनी सांस्कृतिक विरासत के साथ देश के दूरस्थ क्षेत्रों में रह रहा है। उन्हें अपनी पहचान एवं निरंतरता को बनाए रखने में सक्षम होना चाहिए। साथ ही आज बदलती दुनिया के अनुसार आदिवासी बच्चों को सही मायने में शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आत्मनिर्भरता के पर्याप्त समान अवसर मिलने चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आने के बाद आदिवासी समुदाय के कल्याण के लिए धन आवंटन में भारी वृद्धि की है। यह भी सच है। मोदी सरकार ने अपने को गरीबों, अनुसूचित जाति, दलितों और पिछड़े वर्गों की कल्याण सोचने वाली सरकार के रूप में पिछले आठ वर्षों में साबित भी किया है। यह तो सभी देख ही रहे हैं। कहा गया है कि “हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फारसी क्या ?”

दरअसल द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने पर प्रसन्न होने वाले प्रत्येक इंसान को इस समय बिरसा मुंडा का पुण्य संस्मरण करना चाहिए। वे ऐसे नायक थे जिन्होंने अपने क्रांतिकारी चिंतन से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया था। वे समूचे भारत के लिए आदरणीय हैं। वे आदिवासियों के तो नायक सदैव रहेंगे ही । अगर बात देश के आदिवासियों की होगी तो देशभर के अनुसूचित जाति की क्यों नहीं होगी। इनकी कुल आबादी 20 करोड़ से ऊपर है। यह आंकड़ा 2011 की जनगणना के मुताबिक है। भारतीय लोकसभा में इनकी 84 सीटें आरक्षित भी हैं । बेशक, ये भी वंचित तबका रहा है। इसके साथ भी घनघोर भेदभाव का इतिहास रहा है। पर देश और वक्त बदलने के साथ अनुसूचित जाति वर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थिति तेजी से सुधर रही है।

आजादी के बाद बहुत किस्म से, बहुत से शब्दों में, बहुत नेता हुए। कोई दलित नेता के नाम से जाना गया और कोई आदिवासी नेता के नाम से जाना गया। लेकिन, दलित नेता के रूप में जाने गए नेताओं से भी ज्यादा काम दलित वर्ग के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने किया। उन्हीं की पहल पर देश को रामनाथ कोविन्द के रूप में पहला दलित राष्ट्रपति भी मिला। 2015 में समरसता दिवस मनाने का काम मोदी सरकार ने किया। संविधान दिवस मनाने की शुरुआत मोदी सरकार ने की। भारत अपने को तब ही पूरी तरह से विकसित और आत्मनिर्भर मान सकता है, जब हमारे अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोग अपने को मुख्यधारा का हिस्सा मानने लगेंगे। इसमें कतई कोई शक नहीं है कि इन दोनों समुदायों की स्थितियां सुधर रही हैं। इन्हें इनके हक मिल रहे हैं। पर इनके लिए अभी सरकार और समाज को और भी बहुत कुछ करते ही रहना होगा जब तक ये भी बाकी वर्गों की बराबरी में आकर खड़े न हो जाएं ।

(लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)