– आर.के. सिन्हा
भारत के 15 वें राष्ट्रपति पद की शपथ हिन्दी में लेकर द्रौपदी मूर्मू ने सारे देश को एक बेहद महत्वपूर्ण संदेश दिया है। मूल रूप से ओडिशा से संबंध रखने वाली द्रौपदी मूर्मू अगर उड़िया या किसी अन्य भाषा में भी शपथ लेती तो कोई अंतर नहीं पड़ता। देश को अपनी सभी भाषाओं और बोलियों पर गर्व है। वो हिन्दी में शपथ लेकर अचानक से सारे देश में पहुंच गईं। समूचे देश ने उन्हें हिंदी में शपथ लेते हुए देखा-सुना। बेशक, हिन्दी देश की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। इस संबंध में कोई विवाद नहीं हो सकता। हिन्दी की सारे देश में स्वीकार्यता है और यह दिन-प्रतिदिन बढ़ भी रही है। अगर छुद्र राजनीति को छोड़ दिया जाए तो इसे सारे देश में बोली और समझी जाती है।
कुछ समय पहले ही देश के आठ पूर्वोतर राज्यों के स्कूलों में दसवीं कक्षा तक हिन्दी को अनिवार्य रूप से पढ़ाने पर वहां की राज्य सरकारें राजी हो चुकी हैं। इन राज्यों में 22 हजार हिन्दी के अध्यापकों की भर्ती की जा रही है I नौ आदिवासी जातियों ने भी अपनी बोलियों की लिपि देवनागरी को स्वीकार कर लिया है। मगर दुर्भाग्य से कुछ दल और उनके कुछ अंग्रेजीदां नेता हिन्दी को लेकर ओछी टिप्पणियां करने से बाज नहीं आते। जब पूर्वोत्तर राज्यों ने हिन्दी को स्कूलों में अनिवार्य रूप से पढ़ाने को लेकर फैसला लिया तो कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य जयराम रमेश यह कहने लगे ‘हिन्दी राजभाषा है न कि राष्ट्रभाषा।’ गनीमत है कि कांग्रेस या किसी अन्य दल के नेता ने द्रौपदी मूर्मू के हिन्दी में शपथ लेने पर बवाल नहीं काटा।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा यूं ही तो नहीं मिला। इसकी सर्वत्र राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता है। जब अनुच्छेद 343 में देवनागरी में लिखी हिन्दी को सर्वसम्मति से मान्यता मिली तभी तो वह ‘राष्ट्रभाषा हिन्दी’ मानी गई। बाद में चलकर ‘कोई राजभाषा’ ‘कोई सरकारी भाषा’ और ‘कोई आधिकारिक भाषा’ कहने लगा। सरदार पटेल ने 13 अक्टूबर,1949 को अपने एक संदेश में हिन्दी के लिए ‘राष्ट्र भाषा’ शब्द का ही प्रयोग किया है। शहीदे आजम भगत सिंह ने मूल रूप से पंजाब से होने के बावजूद हिन्दी के पत्रकार के रूप में काम किया। वे कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी के अखबार ‘प्रताप’ में नौकरी करते थे। वे प्रताप के प्रतिनिधि के रूप में कानपुर से दिल्ली में दंगा कवर करने भी गए थे। उन्हें हिन्दी की शक्ति का पूरा पता था। वे अंग्रेजी को अच्छी तरह जानते थे पर वे पत्रकार हिन्दी के ही बने ताकि अपनी आवाज दूर तक ले गए।
राष्ट्रपति द्रौपदी मूर्मू सुदूर ग्रामीण ओडिशा से आती हैं और वहां भी हिन्दी सुदूर गांवों तक में बोली जाती है। वह पूरे पांच वर्ष झारखंड की राज्यपाल भी रहीं। झारखंड हिन्दी भाषी राज्य है। वहां पर रहते हुए वह हिन्दी के और निकट आईं। अत: यह कहना चाहिए कि उन्होंने सोच-समझकर ही हिन्दी में शपथ ली। हिन्दी करोड़ों भारतवसियों की प्राण और आत्मा है। इसमें वे अपने को सही ढंग से व्यक्त कर पाते हैं। यह प्रेम और सौहार्द की भाषा है। यह सबको जोड़ती है।
संयोग देखिए कि उड़नपरी पीटी उषा ने भी राज्यसभा के नामित सदस्य के रूप में हिन्दी में ही शपथ ली। वह केरल से आती हैं और खांटी मलयालम उनकी मातृभाषा है। यह हिन्दी को लेकर उनका प्रेम ही है, जिसके चलते वह हिन्दी में शपथ लेती हैं। पीटी उषा के राज्यसभा के लिए मनोनीत किए जाने से तो सारा देश प्रसन्न है। उन्हें देश ने पहली बार सन 1982 में नई दिल्ली में आयोजित एशियाई खेलों से ही जाना था। 16 साल की पीटी उषा ने 1980 के मास्को ओलंपिक खेलों में भी भाग लिया था। दिल्ली और देश ने उन्हें कायदे से पहली बार राष्ट्रीय राजधानी के जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम में देखा था। पीटी उषा ने 100 मीटर की स्पर्धा में फाइनल में पहुंच कर एक तरह से साबित कर दिया था कि वह अब लंबे समय तक ट्रैक पर राज करेंगी। मुझे याद है 100 मीटर स्पर्धा के फाइनल को देखने के लिए जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम किस तरह खचाखच भरा हुआ था। रेस के आरंभ होते ही पीटी उषा ने बढ़त बना ली थी। वह शेष प्रतियोगियों से काफी आगे दौड़ रही थीं। फिर अचानक से वह पिछड़ने लगीं। रेस खत्म होने से पहले वह किसी तरह से दूसरे स्थान पर आ गईं और अंत में सिल्वर मेडल जीतने में सफल रहीं। तब दिल्ली के मुख्य रूप से हिन्दी भाषी दर्शकों ने उनका भरपूर उत्साहवर्धन और अभिवादन किया था।
पीटी उषा के राज्य से ही आने वाले एक अंग्रेजी के संपादक महोदय को देश की नई राष्ट्रपति के हिन्दी में शपथ लेने पर वास्तव में बहुत कष्ट हो रहा है। उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर यह लिखा कि यदि वह उड़िया या संथाली में शपथ लेतीं तो बेहतर होता। वैसे ये ज्ञानी संपादक महोदय यह नहीं बता सके कि कैसे बेहतर होता। उन्हें जब कहा गया कि हिन्दी को देश में सर्वाधिक लोग जानते-समझते हैं तो वे कुतर्क पर उतर आए। कहने लगे, अंग्रेजी ही भारत की संपर्क भाषा है। अंग्रेजी सभी भारतीयों को जोड़ती है। क्या आप मानेंगे कि कोई व्यक्ति हिन्दी को लेकर इतनी नफरत का भाव रख सकता है? आखिर कौन कह रहा है कि आप हिन्दी पढ़ें या जानें। मत पढ़िये, मत सीखिए। कोई जोर-जबरदस्ती तो नहीं कर रहा है। मगर अंग्रेजी को हिन्दी की तुलना में इक्कीस साबित करने के लिए झूठ तो मत बोलिए।
अब इन महामूर्ख पंडित को कौन बताए कि विश्व के महान विश्वविद्यालयों से एमबीए करके जब कोई बड़ा प्रबंधक पदस्थापित होता है, तब सारी मल्टीनेशनल कंपनियों में एक ही नियम है कि उसे पहले हिंदी सीखकर परीक्षा पास करनी होती है तभी उनकी पोस्टिंग स्थायी होती है क्योंकि पूरे विश्व का व्यापार यही मानता है कि हिंदी ही भारत की सार्वदेशिक संपर्क भाषा है I
यह सब जानते हैं कि दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार सभा ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यहां के अध्यापक हिन्दी के प्रसार-प्रचार में अपना अभूतपूर्व योगदान दे रहे हैं। हर साल चेन्नई की हिन्दी प्रचार सभा हजारों हिन्दी प्रेमियों को हिन्दी लिखना-पढ़ना सिखाती है। इससे जुड़े तमिल मूल के अध्यापक ही सच्चे हिन्दी सेवी हैं। सन् 1918 में मद्रास में ‘हिन्दी प्रचार आंदोलन’ की नींव रखी गई थी और उसी वर्ष स्थापित हिन्दी साहित्य सम्मेलन मद्रास कार्यालय आगे चलकर दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के रूप में स्थापित हुआ। वर्तमान में इस संस्थान के चारों दक्षिणी राज्यों में प्रतिष्ठित शोध संस्थान हैं और बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीय मूल के लोग इस संस्थान से हिन्दी में दक्षता प्राप्त कर ज्यादातर दक्षिण राज्यों में या देश के अन्य भागों में और विदेश के अन्य अनेकों देशों में जाकर हिन्दी की सेवा कर रहे हैं।
महात्मा गांधी से ज्यादा इस देश को कोई नहीं जान-समझ सकता। गांधी जी का ही विचार था कि देश की सांस्कृतिक एकता के लिए दक्षिण भारत में हिन्दी का प्रचार- प्रसार जरूरी है। तब से अब तक दुनिया बहुत बदल चुकी है। अब दक्षिण भारत भी अपनी भाषाओं के साथ-साथ हिन्दी बोल रहा है। पढ़ रहा है। पर कुछ कथित अपने को महाज्ञानी समझाने वाले महामूर्ख हिन्दी के प्रति अपनी भड़ास निकालकर अपनी कुंठा सबके सामने जाहिर कर ही देते हैं।
(लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)