डॉ. विकास दवे
आप कहेंगे एक अत्यंत गंभीर शब्द श्वांस के साथ रमेश बाबू जैसा फिल्मी संवाद जोड़कर में क्यों आखिर एक गंभीर विषय को हास्य का विषय बनाना चाहता हूं? किंतु अपना भ्रम दूर कर लीजिए यह संवाद भी किसी हास्य का विषय नहीं बल्कि अत्यंत गंभीर चिंता और उससे अधिक चिंतन का विषय है। यह संस्मरण लिखने का एकमात्र कारण यह कि अनेक वर्षों के बाद भी हम सब अपनी मानवीयता से ओतप्रोत ज्ञान परंपरा का गौरव करने के बाद भी पश्चिमी जगत से कुछ बातें अब तक नहीं सीख पाए। हां !! मैं मानता हूं कि हमारी ज्ञान परंपरा में अत्यंत समृद्ध जीवन विज्ञान भरा पड़ा है किंतु यदि उसको हमने अपने जीवन में अंगीकार नहीं किया तो पुरखों की संपूर्ण तपस्या धूल धूसरित होने में समय नहीं लगता। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण विषय सीपीआर अर्थात कृत्रिम श्वांस देने का है।
पश्चिमी जगत से तुलना इसलिए कर रहा हूं क्योंकि संपूर्ण पश्चिमी दुनिया में बच्चों को बाल्यकाल से ही शिशु कक्षाओं में आते ही सीपीआर देने का महत्व और उसकी प्रक्रिया समझा दी जाती है किंतु भारत में हमको विद्यालय स्तर पर ऐसा कोई उपक्रम संपादित होते दिखाई नहीं देता। यह सब बातें दरअसल इसलिए ध्यान में आई कि विगत दिनों परिवार के ही एक विवाह समारोह में एक अप्रत्याशित घटनाक्रम हुआ। उस विवाह समारोह में जबकि सब कुछ आनंदपूर्वक चल रहा था। परिवार के सैकड़ों परिजन भोजन, नृत्य और संगीत का आनंद ले रहे थे कि अनायास इंद्र देवता प्रसन्न हुए। रुक – रुककर वर्षा ने पूरे कार्यक्रम में थोड़ी सी असहजता पैदा की किंतु जल्दी ही संपूर्ण व्यवस्थाएं पुनः सुचारू रूप से संचालित होने लगी। एक नवयुवक जिसकी अवस्था मुश्किल से 18-20 वर्ष की रही होगी एक स्टॉल की तरफ रखे कूलर को ठीक करने के लिए गया। इसे उस तरुण का दुर्भाग्य ही कहूंगा कि वह जैसे ही पानी के डबरे कूलर के पास पहुंचा अचानक बिजली का एक तार मैदान में छू गया। अचानक तेज विद्युत प्रवाहित हुई और एक झटके में युवक जमीन पर गिरकर तड़पने लगा। कुछ ही सेकंड में भयभीत जन समूह ने देखा कि वह युवा न केवल अचेत हो चुका है बल्कि उसकी जीभ भी बाहर की ओर लटक गई। आनन-फानन में विद्युत प्रवाह को बाधित किया गया किंतु अब एक शिक्षित समाज की परीक्षा प्रारंभ हुई। आमतौर पर भारतीय समाज में जैसा होता है उस युवा को घेर कर सारे लोग या तो भय के वशीभूत केवल मुक दर्शक बने थे या कुछ जागृत लोगों ने मोबाइल निकाल कर फोटो और वीडियो बनाना प्रारंभ कर दिए थे। इतना ही नहीं तो अनेक लोग जिस दिशा से कूलर की हवा आ रही थी उस हवा को रोक कर बड़े आराम से उस युवक को मृत्यु के मुख में जाते हुए देख रहे थे।
अनायास एक तेजस्वी स्त्री स्वर वातावरण में तैर गया। यह स्वर क्रीडा क्षेत्र की जानी-मानी तैराक सुश्री कविता रावल का था। कविता ने वैसे तो अब तक सैकड़ों बालक, बालिकाओं और महिलाओं को तैराकी सिखाई है पर अभी तो उसका क्रोध चरम पर था- भीड़ छोड़कर सारे लोग दूर हट जाइए और कम से कम कूलर से आने वाली हवा को मत रोकिये। उसके क्रोधित चेहरे से जो तेज टपक रहा था उसने पूरे वातावरण को एकदम से सकते में ला दिया। देखते ही देखते न केवल भीड़ छंट गई बल्कि कूलर की ठंडी हवा भी उस युवा के चेहरे पर आने लगी। तत्क्षण कविता ने उस युवा के सीने पर पंप देना शुरू किया और सीपीआर देने की प्रक्रिया शुरू कर दी।
मुझे स्मरण आ रही थी अनेक धर्म कथाओं में कथा वाचकों के माध्यम से व्यास पीठ से सुनी कुछ दार्शनिक बातें। वे विषय सुनते हुए ऐसे वाक्य विन्यास कानों में पढ़ते रहे हैं -मनुष्य को जीवन ईश्वर ने निश्चित करके दिया है। एक-एक श्वांस का हिसाब प्रभु रखते हैं। कोई मनुष्य कितना ही धनवान हो या कितना ही गरीब, कितना ही शक्तिशाली हो या निशक्त अपनी एक भी श्वांस को वह ना तो बढ़ा सकता है और न घटा सकता है। यही कारण है कि जीवन मृत्यु पर मनुष्य का आज तक बस नहीं चला। मनुष्य देह धारण करके जगत में आता है तो प्रभु की इच्छा से और जाता भी है तो प्रभु की इच्छा से।
परंतु…… आज ईश्वर की बनाई एक कृति कविता ईश्वर के ही बनाए हुए विधान को चुनौती तो नहीं दे रही थी पर ईश्वर का एक संदेश जरूर उस पूरे जन समूह में प्रसारित कर रही थी कि मनुष्य को जीवन जीने की अंतिम आस तक संघर्ष करते रहना चाहिए। संभवतः ईश्वर ने किसी व्यक्ति को और जीने का प्रसाद दिया हो और हम मनुष्यों की जिजीविषा,साहस और प्रत्युत्पन्नमति की कमी के कारण शायद वह समय से पूर्व दुनिया छोड़ रहा हो। कविता रावल ने जब उस युवा को लगातार सीने पर पंप करना शुरू किया और कृत्रिम श्वांस देने की विधि संपन्न करती चली जा रही थी। ऐसा लग रहा था मानो थोड़ी देर पहले जो कविता साक्षात दुर्गा का स्वरूप धारण किए हुए थी वह थोड़ी ही देर में ममतामई मां कौशल्या और यशोदा की तरह उस बच्चे को जीवन प्रदान करने के लिए अपनी श्वासों का नेह आशीर्वाद स्वरुप प्रदान रही थी। युवा पुनर्जीवन प्राप्त कर चुका था।विवाह की खुशियों पर लगता ग्रहण अचानक छंट गया था। प्रसन्नता की लहर चारों ओर फैल गयी थी। बाद में उस युवा के परिजनों की कृतज्ञता की कल्पना हम कर सकते हैं। नागर समाज ने कविता रावल को ‘नागर वीरांगना सम्मान’ से सम्मानित भी किया।
समाज में बाद में सम्मानित होना यह तो एक सहज प्रक्रिया है किंतु कविता ने समाज जनों से आग्रह किया कि कृत्रिम श्वांस देने की यह प्रक्रिया समाज के सभी स्त्री, पुरुषों, युवाओं और बच्चों को ज्ञात होनी चाहिए। उन्होंने अपने सम्मान के प्रति उत्तर में यह आग्रह किया कि मेरा वास्तविक सम्मान तब होगा जब एक बड़ा प्रशिक्षण कार्यक्रम रख कर आप सब भी इस प्रक्रिया में पारंगत हो सकें।
मैंने कविता से पूछा – तुमने अब तक बीसियों व्यक्तियों को डूबने से बचाया है पर यह सीपीआर से बचाने का अनुभव कैसा रहा?
वह बोलीं- दोनों ही जीवन प्राप्ति के संघर्ष हैं पर तैराकी सीखकर किसीको बचाना लंबे प्रशिक्षण के बाद संभव है जबकी सीपीआर देना बहुत संक्षिप्त प्रशिक्षण से सीखा जा सकता है।
इस संपूर्ण घटनाक्रम ने यह बात तो स्पष्ट कर दी कि भले ही ईश्वर ने प्रत्येक मनुष्य को श्वासें गिन कर दी है किंतु यदि कोई मनुष्य चाहे तो सीपीआर पद्धति से अपनी कुछ श्वांस उधार देकर मृत्यु के मुख में जाने वाले मनुष्य को जीवन भर के लिए और लाखों करोड़ों श्वांस प्रदान कर सकता है। आपकी दी हुई हर सूक्ष्म श्वांस से विराट हो जाने की इस प्रक्रिया को हमें अवश्य जानना चाहिए।
(लेखक, मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के निदेशक हैं।)