Friday, September 20"खबर जो असर करे"

दीपावली विशेष: तुम दीपक हम बाती

– गिरीश्वर मिश्र

भारतीय समाज अपने स्वभाव में मूलतः उत्सवधर्मी है और यहाँ के ज़्यादातर उत्सव सृष्टि में मनुष्य की सहभागिता को रेखांकित करते दिखते हैं। प्रकृति की रम्य क्रीड़ा स्थली होने के कारण मौसम के बदलते मिजाज के साथ कैसे जिया जाय इस प्रश्न विचार करते हुए भारतीय जन मानस की संवेदना में ऋतुओं में होने वाले परिवर्तनों ने ख़ास जगह बनाई है। फलतः सामंजस्य और प्रकृति के साथ अनुकूल को ही जीवन का मंत्र बनाया गया। यहाँ जीवन का स्पंदन उसी के अनुसार होता है और उसी की अभिव्यक्ति यहाँ के मिथकों और प्रतीकों के साथ होती है। कला , साहित्य , संगीत आदि को भी सुदूर अतीत से ही यह विचार भावित करता आ रहा है। इस दृष्टि से दीपावली का लोक-उत्सव जीवन के हर क्षेत्र -घर-बार, खेत-खलिहान, रोज़ी-रोटी और व्यापार-व्यवहार सबसे जुड़ा हुआ है। इस अवसर पर भारतीय गृहस्थ की चिंता होती है घर-बाहर के परिवेश को स्वच्छ करना और निर्मल मन के साथ उत्साहपूर्वक आगामी चुनौतियों के लिए अपने को तैयार करना। प्रकृति की लय के साथ अपनी लय मिलाते हुए यह त्योहार जीवन में सुख , समृद्धि , उत्साह और गति के उत्सुक स्वागत का अवसर होता है । इसका मुख्य आकर्षण है शक्ति के केंद्र प्रकाश की ऊर्जा से अपने आप को पुष्ट और संवर्धित करना।

सनातन के साथ पुराणी युवती का तालमेल बिठाती भारतीय संस्कृति में बहुत पहले यह समझ लिया गया था कि यंत्रवत दुहराते रहने की जगह अपना परिष्कार करना और अपने को पुनर्नवा करते रहना ही जीवन का रहस्य है। उसी में जीवंतता का प्रमाण मिलता है। यह इसलिए भी ज़रूरी अनुभव किया गया क्योंकि काल कभी स्थिर नहीं रहता और उसके प्रवाह में नित्य कुछ नया होता रहता है जिसे अनसुना करना ठीक नहीं है। देश-काल के साथ सुसंगत बने रहते हुए ही हम प्रगति कर सकते हैं । इसी भाव से गाँव हो या शहर बच्चे बूढ़े हर जगह हर किसी को प्रतिवर्ष वर्षा ऋतु के बाद शीत के आरम्भ की संधि वेला में दीपावली की आतुरता से प्रतीक्षा रहती है।

यह भी अकारण नहीं है कि कार्तिक यानी अक्तूबर के महीने में भारतीय उत्सवों की भरमार होती है ।यह प्रकृति की सुषमा का ही प्रकटन है क़ि विजया दशमी से जिस मंगल-यात्रा की शुरुआत होती है वह पूरे महीने भर चलती रहती है। नव-रात्रि में दुर्गा की आराधना और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम मचती है । फिर आती है विजयादशमी। भगवान रामचंद्र द्वारा राक्षस -राज रावण के संहार को याद किया जाता है और रावण-दहन होता है। फिर बड़ी आशा और उत्साह के साथ घर की सफ़ाई -पुताई के साथ दीपावली की तैयारी शुरू होती है। कहते हैं इसी दिन राजा राम अयोध्या पधारे थे और उनके स्वागत में दीपोत्सव हुआ था और वह परम्परा तब से चली आ रही है। दीपावली के साथ उसके आगे-पीछे कई उत्सव भी जुड़े होते हैं। इनमें शरद पूर्णिमा ( कोजागरी) और करवा चौथ के बाद आती है धन तेरस जिस दिन धन्वन्तरि जयंती भी होती है। फिर तो अटूट क्रम चल पड़ता है । इस क्रम में छोटी दिवाली ( नरक चतुर्दशी ), काली पूजा ( श्यामा पूजा या महा निशा पूजा), गोवर्धन पूजा , भैया दूज ( यम द्वितीया ) , चित्र गुप्त पूजा ( बहीखाते और कलम की पूजा ) और छठ की पूजा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

इन उत्सवों को मनाने में पर्याप्त क्षेत्रीय विविधता भी देखने को मिलती है और विभिन्न समुदायों की व्यावसायिक की भिन्न भिन्न रुचियाँ भी परिलक्षित होती हैं। समय के साथ होड़ ले रहे ये सभी त्योहार हमारी जिजीविषा के परिचायक हैं। समय के साथ इनको मनाने के तौर तरीक़ों में बदलाव आता रहा है। बचपन में जब घर में बिजली का सुभीता नहीं था तो सूर्यदेव के अस्ताचल जाने के बाद प्रकाश पाने के लिए विशेष उद्यम करना पड़ता था। तब अपनी औक़ात के हिसाब से मिट्टी के दिया , ढेबरी, लालटेन , पेट्रोमेक्स आदि से घरों में प्रकाश की व्यवस्था की जाती थी। तब प्रकाश बड़ा क़ीमती था , उसकी सुरक्षा की जाती थी और उसका समुचित उपयोग करने की चेष्टा रहती थी। रात में घर से बाहर जाना आसान नहीं होता था और सामाजिक जीवन पर भी विराम लगा रहता था। समय का अहसास और उसका अधिकाधिक सार्थक उपयोग कैसे किया जाए यह एक गम्भीर विषय रहता था क्योंकि प्रकाश बहुमूल्य था और उसकी उपलब्धता सीमित बनी रहती थी। तब हम सबका अभ्यास बन गया था कि दीपक का उपयोग अंधकार को दूर करने के लिए होना चाहिए। आज बिजली की महिमा से प्रकाश की कोई कमी नहीं है। कोयला , ज़ल , परमाणु ऊर्जा और सौर ऊर्ज़ा जैसे विभिन्न स्रोतों से देश के अधिकांश भागों में बिजली की चौबीस घंटे अनवरत आपूर्ति सुनिश्चित हो रही है। अब जल और वायु की तरह बिजली का भी अजस्त्र प्रवाह है और उसका उपयोग (और दुरुपयोग ) खुल कर हो रहा है। अंधेरे में कुछ सूझता नहीं और कोई अगर हिम्मत कर के चल भी पड़े तो हमेशा ठोकर लगने और चोट खाने का अंदेशा बना रहता है। अंधेरे में गंतव्य की ओर जाने की दिशा भी स्पष्ट नहीं हो पाती। अंधेरा गति पर ताला लगा देता है और जीवन ठहर सा जाता है। बिजली से भौतिक स्तर पर हमारी समस्या दूर हो जाती है पर मन , बुद्धि और विचार में जो अंधेरा पलता रहता है उसका समाधान हमें स्वयं करना होता है। मुश्किल तब और बढ़ जाती है जब हमें मन का अंधेरा अंधेरा ही नहीं लगता।

मनुष्य होने का एक अर्थ तो डार्विन महोदय की कृपा से यह समझ में आया है कि धरती पर प्राणियों के उद्विकास (इवोल्यूशन) के क्रम में सुदूर अतीत में कभी हम आज के दुपाए जीव के रूप में पहुँचे। साथ-साथ शरीर की जैविक रचना में परिवर्तन आया और आकार प्रकार भी बदला। मस्तिष्क की जटिलता और आकार भी बदला और एक लम्बी छलांग के साथ हम आज के अर्थ में आदमी बन गए। होमोसेपियन हो कर हम में सोचने -विचरने की विलक्षण क्षमता आ गई। इस काम में भाषा की उपलब्धि बड़ी मददगार हुई। इससे सोचने वाले दुपाए प्राणी के लिए वर्तमान में रहते हुए सोच-विचार के स्तर पर अतीत ही नहीं भविष्य की कल्पना में भी आने-जाने की सुविधा मिल गई। अपनी रचनात्मक बुद्धि के ज़रिए मनुष्य ने नए प्रयोग शुरू हुए। नित्य नई खोज के साथ धरती , पाताल और आकाश हर कही मनुष्य अपनी पद चाप छोड़ने लगा। इस यात्रा में आज हम सब चंद्रमा और मंगल ग्रह की तरफ़ अधिकार जमाने के लिए आगे बढ रहे हैं। अंतरिक्ष में मनुष्य की इस तरह की चमत्कारी दिग्विजय से सभी अभिभूत हैं। इस उन्नति का दूसरा पक्ष भी सामने है जिसके चलते युद्ध , हिंसा , अविश्वास और अतिक्रमण का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है। अहंकार की घोर विभीषिका सब कहीं छाती जा रही है और सब कुछ लीलती जा रही है। पूरी सृष्टि हमारी भोग्य है यह मान कर दर्प में चूर मनुष्य को सिर्फ़ अपना सीमित अस्तित्व ही दिख रहा है। संस्कृति और प्रकृति के बीच एक अनवरत होड़ मच रही है। किस तरह प्रकृति के साधन और शक्ति का अधिकाधिक दोहन कर सम्पदा अर्जित की जाय यह अंतर राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का मुख्य मुद्दा बन गया है।

भारतीय सोच इस पूरे मामले में भिन्न रही है । उसमें मनुष्य इस ब्रह्मांड का केंद्र नहीं है न ही मनुष्य से इतर सृष्टि अकेले उसका भोग्य ही है । सिर्फ़ मनुष्य उसका अकेला भोक्ता नहीं है। आत्म या ब्रह्म या परम सत्ता या चैतन्य का विचार हमारे अस्तित्व की विराटता का स्मरण सदैव दिलाता रहता है। वेदांत का मोक्ष, बौद्ध मत का निर्वाण और योग का कैवल्य ये सभी लक्ष्य मनुष्य जीवन के उद्देश्य के रूप में इसीलिए रखा गया कि अहंकार की तीव्र होती जा रही अंधी भूख पर लगाम लग सके। मनुष्य होने की सार्थकता मनुष्यता के सीमित आवरण वाली पहचान से बाहर निकल कर या कहें अपना अतिक्रमण कर व्यापक मनुष्यत्व को या समग्र जीवन की सत्ता को पहचान सके और आत्मसात् कर सके। उसी के आलोक में मनुष्य को अपने कर्तव्य का निश्चय किया जाना चाहिए। शायद दूसरे का हित करना ही सुख की सही कसौटी है। भौतिक शरीर के साथ जुड़े मनुष्य का जीवन अनंत नहीं होता है। उसका उपयोग और सार्थकता इसी में होती है कि उसका समुचित रूप से सदुपयोग हो। छोटे स्वार्थों के अधकचरे घरौंदों को बनाने-संवारने में हम टूटते भी हैं पर अहंकार की ध्वनि और रूप के बीच उसकी आहट अक्सर अनसुनी कर देते हैं। तब कब दबे पाँव अंधेरा जीवन में आ जाता है पता ही नहीं चलता। हमारे जीवन का क्रम भी आज ऐसा ही बना जा रहा है। काल का पहिया बिना रुके घूमता रहता है। दिन और रात के क्रम के साथ प्रकाश और अंधकार का अनुक्रम भी सदैव लगा रहता है। यानी दिन के प्रकाश से मिलने वाला आश्रय और संतोष नित्य नहीं रहने वाला है। सजग और सतर्क ढंग से अंधकार से जूझने के लिए सतत तैयार रहना ज़रूरी है। अस्तित्व और विश्व के प्रति हमारी दृष्टि ही जीवन-संग्राम का पाथेय होती है। विवेक कहता है कि विराट अस्तित्व के साथ जुड़ना ज़रूरी और कल्याणकारी है। इस ज़रूरत को पहचानना होगा और इसकी आवाज़ सुननी होगी। स्वयं को उसके साथ नियोजित भी करना होगा। सृष्टि की दीपावली में विराट प्रकाश का माध्यम बनना ही मनुष्य होने की सार्थकता है। संत रैदास के शब्दों में कहें तो हम प्रभु रूपी दीपक की बाती है : प्रभु जी तुम दीपक हम बाती जाकी जोत जरै दिन राती!

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)