– गिरीश्वर मिश्र
इतिहास गवाह है कि अंधकार के साथ मनुष्य का संघर्ष लगातार चलता चला आ रहा है । उसकी अदम्य जिजीविषा के आगे अंधकार को अंतत: हारना ही पड़ता है । वस्तुत: सभ्यता और संस्कृति के विकास की गाथा अंधकार के विरुद्ध संघर्ष का ही इतिहास है । मनुष्य जब एक सचेत तथा विवेकशील प्राणी के रूप में जागता है तो अंधकार की चुनौती स्वीकार करने पर पीछे नहीं हटता। उसके प्रहार से अंधकार नष्ट हो जाता है । संस्कृति के स्तर पर अंधकार से लड़ने और उसके प्रतिकार की शक्ति को जुटाते हुए मनुष्य स्वयं को ही दीप बनाता है । उसका रूपांतरण होता है । आत्म-शक्ति का यह दीप उन सभी अवरोधों को दूर भगाता है जो व्यक्ति और उसके समुदाय को उसके लक्ष्यों से विचलित करते हैं या भटकाते हैं ।
सच कहें तो मनुष्य की जड़ता और अज्ञानता मन के भीतर पैठे अंधकार के ऐसे प्रतिरूप हैं जो खुद उसकी अपनी पहचान को आच्छादित किए रहते हैं । वे हमारे नैसर्गिक स्वभाव को विकृत कर किसी दूसरे पराए रूप को अंगीकार करने के लिए उद्यत करते हैं । इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि सभ्यता के स्तर पर औपनिवेशिक काल में भारत को एक ऐसे पराये सांचे में ढाला गया जो उसकी सांस्कृतिक आत्म-विस्मृति का कारण बना। वेश–भूषा, सोचने-समझने के तौर तरीके, ज्ञान के स्वरूप, आचार-विचार के मानक और मूल्य-बोध आदि सभी क्षेत्रों में इस दौरान भारी उलटफेर हुआ ।
यह तथ्यों से भलीभांति प्रमाणित है कि उसके पीछे अंग्रेजों के निजी स्वार्थ काम कर रहे थे और योजनाबद्ध ढंग से उन्होंने भारत के आर्थिक संसाधनों का घोर शोषण और दोहन किया । पर अपने प्रभाव को दूरगामी बनाने के उपकरण के तौर पर शिक्षा, कानून और प्रशासन का जाल एक मजबूत सांचे में ढाला । इस तरह व्यवस्था के जिस शिकंजे में उन्होंने हमें जकड़ा उसे उपकार कहते हए लाद दिया और उसका भार ढोते रहने की विपत्ति कुछ इस तरह सिर पर आ पड़ी कि देश अभी तक उबर नहीं सका है। अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही हमारी न्याय व्यवस्था इस शिकंजे का एक ज्वलंत उदाहरण है । आज वह स्वयं भ्रष्टाचार, अपराध और अन्याय से घिर रही है।
देश में करोड़ों मुकदमे चल रहे हैं जिनमें फर्जी मुकदमे भी हैं और न्याय में विलम्ब की कोई सीमा ही नहीं है । न्याय की प्रक्रिया नितांत उलझाऊ, बेहद खर्चीली और आम आदमी के शोषण का जरिया बन चुकी है । इस विलक्षण न्याय प्रणाली में व्यवस्था किसी तरह के दायित्व से मुक्त है और उसमें छिद्र इतने हैं कि रसूख वाले और समर्थ कानून की गिरफ्त में आते ही नहीं हैं । यही हाल कमोबेश शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी रहा । स्वतंत्र भारत की स्वतंत्रता अंग्रेजी नियमों कानूनों के गिरवी रखी रही और अब जा कर उसमें सार्थक संशोधन की शुरुआत हो सकी है । ऐसे ही शिक्षा में भी व्यापक सुधार, सामाजिक सुरक्षा और भेद–भाव को दूर करने में भी हमारी प्रगति धीमी रही है ।
बिडम्बना यह रही कि लगभग दो सौ साल के राज में अंग्रेजों के प्रयास से जो मानसिकता स्थापित हुई उसने हमारी सोच को ही बदल दिया । स्थिति यह है कि आज हममें से बहुतों को उस सोच का देशज विकल्प ले आना यदि व्यर्थ नहीं तो अस्वाभाविक, अप्रासंगिक और अकल्पनीय सा प्रतीत होता है। भारत और भारतीयता के प्रति हममें से कइयों ने औपनिवेशिक दृष्टि को अपना लिया है क्योंकि साम्राज्यवादियों को और उनकी मानसिकता को अपना आदर्श मान अंगीकार कर लिया । वे ही हमारे मानक बन बैठे जिनके साथ तुलना कर के और जुड़ कर हम लोग स्वयं को धन्य मानने लगे । उन्हीं जैसा बनना ही हमारा लक्ष्य हो गया। ज्ञान–विज्ञान के क्षेत्र में पश्चिम से हमारी उधारी बढ़ती ही गई ।
ज्ञान-सृजन के नाम पर दुहराव और पृष्ठपेषण के साथ नकल की प्रवृत्ति ने शिक्षा की संस्कृति को ध्वस्त कर दिया और आत्म विश्वास जाता रहा । ज्ञान से मुक्ति और प्रकाश की जगह बंधन और संशय के अंधकार ने डेरा जमा लिया । पश्चिमी ज्ञान के वर्चस्व और अपने ज्ञान के साथ अपरिचय और वितृष्णा के चलते आधुनिक व्यक्ति केंद्रित दृष्टि में अहंकार की तुष्टि ही केन्द्रीय होती गई और ‘मैं’ सबसे पहले, ‘मैं’ औरों से अच्छा का भाव प्रमुख होता गया । समाज के पढ़े लिखे वर्ग में आत्म-बोध निरन्तर सिकुड़ता गया और करुणा, दया, सहिष्णुता, आदर, नैतिक दायित्व, आदर आदि मूल्य पृष्ठभूमि में जाने लगे । आम आदमी के जीवन में और लोक के परिसर में अभी भी इन मूल्यों की उपस्थिति दिखाती है और उत्सवों और त्योहारों में विशेष रूप से अभिव्यक्त होती है । तब व्यक्ति उन्मुक्त होता है और सहकार-सहयोग का आवाहन करता है ।
दीपावली का उत्सव अंधकार के विरुद्ध मनुष्य की अदम्य आकांक्षा का उद्घोष है । अंधकार कैसा भी हो और कितना भी घना क्यों न हो प्रकाश की किरण के आते ही उसके आगे ठहर नहीं पाता है। कार्तिक महीने में दीपावली का अवसर अपनी शक्ति और ऊर्जा का संचय कर अंधकार के विरुद्ध मुहिम जैसा लगता है। कालचक्र की गति कुछ ऐसी हो रही है कि आज हमारे जीवन में अंधकार कई रूपों में प्रवेश कर रहा है। असत्य, अविश्वास, कपट और छल इतने भिन्न-भिन्न रूपों में उभर रहा है कि आपसी भरोसा टूट रहा है और कलह बढ़ रहा है। ऐसे में यदि जन-समाज में असुरक्षा और भय का भाव बढ़े तो आश्चर्य नहीं । ऐसी घटनाओं से लोगों में घबड़ाहट और बेचैनी बढ़ने लगती है।
आज व्यक्ति की भूमिका प्रबल और आपसी रिश्तों की उजास कमजोर पड़ रही है। ‘मैं ही केंद्र में हूं’ यह भाव मैंपन के विस्तार के लिए निरंतर गतिशील बनाता रहता है। दूसरे या अन्य का होना सिर्फ उनकी उपयोगिता रहने तक ही सीमित रहता है । इसके चलते रिश्तों की हमारी समृद्ध शब्दावली खोती जा रही है । व्यक्तिकेंद्रिकता शोषण और हिंसा को भी जन्म देती है क्योंकि ‘दूसरा’ खतरा पैदा करने वाला लगता है। आज भी समाज की सेवा और देश के उत्थान को समर्पित राजनीति की छवि लेकर आम आदमी जीता है क्योंकि स्वातंत्र्य आन्दोलन में राजनीति और राजनेताओं की पहचान जन-सेवा के लिए निस्वार्थ भाव से कार्य के द्वारा होती रही है। अब राजनीतिक दलों के बीच जनता के लिए श्रद्धा और निष्ठा आम चुनाव की आहट के साथ तीव्र होती जाती है और वादों-प्रलोभनों की झड़ी लग जाती है। आगामी सरकार की कल्पना कल्प-वृक्ष की तरह परोसी जाती है और चाहतों की वर्षा की घोषणा होती है।
सरकार बनते ही मुफ्त में सब कुछ लुटा देने की जादुई घोषणाओं के साथ राजनीतिक दल जनता को रिझाने की भरपूर कोशिश में लग जाते हैं। वे जाति, क्षेत्र, भाषा, धर्म आदि की अस्मिताओं को उभार कर वोट बटोरने में लग जाते हैं । जाति का सत्य आज भी देश में भेदभाव, हिंसा और शोषण का एक मुख्य आधार बना हुआ है यह जान कर भी जाति की पहचान को सुदृढ़ करने की तीव्र कोशिशें जारी है। वोट बटोरने की कोशिश में तरह-तरह के आरक्षण की व्यवस्था की घोषणाएं जारी हैं। योग्यता की अनदेखी करते हुए लाभों के वितरण की व्यवस्था कुंठा पैदा कर रही है। जातिगत व्यवस्था अटूट बनाए रखने के लिए पुरजोर कोशिश बरकरार है। मुफ्त अन्न, बिजली, और यात्रा टिकट ही नहीं नकद सहायता की पेशकश के साथ गली-गली में बार खोलने की गारंटी की योजनाओं से समाज का काया पलट करने की कवायद करते हुए वोट बटोरने की जुगत में राजनीतिक दल अपना भविष्य ढूंढ रहे हैं। वे सामने खड़ी जनता को याचक और खुद को दाता मान बैठते हैं। अकर्मण्य बनाने का मंत्र देते हुए ये नेता यह बात बिलकुल ही भूल जाते हैं कि वे जन-मानस में किस नकारात्मक मनोवृत्ति को विकसित कर रहे हैं । हमारी नीतियों में सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय का उद्देश्य होना चाहिए। सामाजिक समावेश और सशक्तीकरण देश के सर्वांगीण विकास को लाने वाला होना चाहिए ।
दीपावली सत्य, शील और धैर्य के प्रतीक श्रीराम के अभिनन्दन का पावन अवसर है । इस अवसर पर भ्रमों और हीनता की अंध ग्रंथि को भेद कर आत्मनिर्भर भारत की शक्ति को स्थापित करने के लिए सामाजिक जीवन में मानवीय मूल्यों को पुनराविष्कृत करना सभी देशवासियों का कर्तव्य है । अमृत उत्सव देश की शक्ति के स्मरण का अवसर बना और अनेक संकल्प लेकर देश की यात्रा आगे बढ़ी। आज की बनती बिगड़ती वैश्विक परिस्थितियों के बीच एक समर्थ राष्ट्र की आवश्यकता को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। हमें तामसिक अंधकार की जगह सात्विक प्रकाश के आतंरिक श्रोत ढूंढ़ने होंगे और कलह, असत्य और आचार की कमजोरियों से बचना होगा । इसके लिए साहस, दृढ़ता और समर्पण का आत्मदीप चाहिए जो हमारा पथ आलोकित कर सके।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)