Friday, November 22"खबर जो असर करे"

अवसादग्रस्त लोगों को दिखानी होगी सही राह

– योगेश कुमार गोयल

लोगों में अवसाद निरन्तर बढ़ रहा है, जिसके चलते ऐसे कुछ व्यक्ति आत्महत्या जैसा हृदयविदारक कदम उठा बैठते हैं। जीवन से निराश होकर आत्महत्या की बढ़ती दुष्प्रवृत्ति गंभीर चिंता का सबब बन रही है। कोरोना काल में लोगों में हताशा और निराशा ज्यादा बढ़ी है, जिससे आत्महत्याओं का प्रतिशत भी लगातार बढ़ रहा है। खासकर युवाओं में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति सरकार के साथ-साथ समाज को भी गंभीर चिंतन-मनन के लिए विवश करने हेतु पर्याप्त है।

राजस्थान के कोटा में एक ही दिन एक कोचिंग संस्थान के तीन छात्रों द्वारा आत्महत्या करने की घटना तो स्तब्ध करने वाली है। शुरुआती जांच में सामने आया कि तीनों छात्र पढ़ाई के दबाव के कारण डिप्रेशन में थे और कुछ दिनों से कोचिंग कक्षाएं भी नहीं ले रहे थे। वैसे, कोटा में छात्रों द्वारा आत्महत्या करने का यह कोई पहला मामला नहीं है बल्कि एक वर्ष के भीतर यहां करीब 20 छात्र मौत को गले लगा चुके हैं। देश के युवा वर्ग और खासकर 18 वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों में आत्महत्या की बढ़ती यह प्रवृत्ति बेहद चिंताजनक है। शिक्षा तथा कैरियर में गलाकाट प्रतिस्पर्धा के चलते छात्रों पर पढ़ाई का बढ़ता अनावश्यक दबाव इसका सबसे बड़ा कारण है।

दरअसल कई बच्चे इस दबाव को झेल नहीं पाते, जिसके चलते उनमें अवसाद पनपता है और कुछ मामलों में यही बढ़ता अवसाद आत्महत्या का कारण बन जाता है। मनोचिकित्सकों के मुताबिक इंसान को कोरोना ने शारीरिक रूप से जितना बीमार किया है, उससे कहीं ज्यादा मानसिक तनाव दिया है। छात्र अपनी शिक्षा एवं भविष्य को लेकर गहरे असमंजस में हैं। किसी को कैरियर या नौकरी की चिंता सता रही है तो कोई वित्तीय संकट से जूझ रहा है। हालांकि आत्महत्या की यह समस्या केवल छात्रों तक सीमित नहीं है बल्कि देश में आत्महत्या के मामलों में जिस प्रकार साल दर साल उछाल आ रहा है, वह पूरे समाज के लिए गंभीर चिंता का कारण बन रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया में हर 40 सेकेंड में एक व्यक्ति आत्महत्या करता है यानी प्रतिवर्ष दुनियाभर में करीब आठ लाख लोग आत्महत्या के जरिये अपनी जीवनलीला खत्म कर डालते हैं। इनमें बड़ी संख्या में आत्महत्या के मामले 15 से 29 वर्ष के लोगों में होते हैं जबकि आत्महत्या का प्रयास करने वालों का आंकड़ा इससे बहुत ज्यादा है। डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों के अनुसार दुनियाभर में 79 फीसदी आत्महत्या निम्न और मध्यवर्ग वाले देशों के लोग करते हैं और इसमें बड़ी संख्या ऐसे युवाओं की होती है, जिनके कंधों पर किसी भी देश का भविष्य टिका होता है। बीते वर्षों में दुनियाभर में खुदकुशी की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं लेकिन भारत में आत्महत्याओं का आंकड़ा काफी चिंताजनक है। कुछ ही महीने पहले राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने वर्ष 2021 में भारत में आत्महत्या के मामलों को लेकर ‘भारत में आकस्मिक मौतें एवं आत्महत्याएं-2021’ रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक 2021 में देश में 164033 लोगों ने आत्महत्या की।

एनसीआरबी के मुताबिक आत्महत्या की घटनाओं के पीछे पेशेवर या कैरियर संबंधी समस्याएं, अलगाव की भावना, दुर्व्यवहार, हिंसा, पारिवारिक समस्याएं, मानसिक विकार, शराब की लत, वित्तीय नुकसान, पुराने दर्द इत्यादि मुख्य कारण हैं। आर्थिक स्थिति में उतार-चढ़ाव, पारिवारिक क्लेश, रिश्तों में टूटन तथा बीमारी से परेशानी सहित कई अन्य कारणों के चलते देश में 2021 में आत्महत्याएं 2020 के मुकाबले करीब 7.2 फीसदी बढ़ गई। 2020 में आत्महत्या के मामलों की संख्या 153052 दर्ज हुई थी। तनाव के दौर में निजी रिश्तों में भी खटास बढ़ी है और आमजन में नकारात्मक विचारों का बढ़ता प्रवाह तथा उपरोक्त चिंताएं कई बार अवसाद का रूप ले लेती हैं, जिसके चलते कुछ लोग परेशानियों से निजात पाने के लिए आत्महत्या का खतरनाक रास्ता चुन लेते हैं।

जब कोई व्यक्ति ज्यादा बुरी मानसिक स्थिति से गुजरता है तो एकाएक अवसाद में चला जाता है और इसी अवसाद के कारण ऐसे कुछ लोग आत्महत्या कर लेते हैं, जिसका उनके परिवार के साथ-साथ समाज पर भी बहुत नकारात्मक असर पड़ता है। विशेषज्ञों के मुताबिक अवसाद और तनाव के कारण ही लोगों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही है और जब व्यक्ति को परेशानियों से बाहर निकलने का कोई मार्ग नजर आता, ऐसे में वह आत्महत्या जैसा हृदयविदारक कदम उठा बैठता है। हालांकि जिन लोगों का मनोबल मजबूत होता है, वे प्रायः विकट परिस्थितियों से उबर भी जाते हैं लेकिन अवसाद के शिकार कुछ लोग विषम परिस्थितियों से लड़ने के बजाय हालात के समक्ष घुटने टेक स्वयं को मौत के हवाले कर देते हैं।

हालांकि जब भी कोई व्यक्ति गहरे मानसिक तनाव से जूझ रहा होता है तो उसके व्यवहार में पहले की अपेक्षा कुछ बदलाव देखने को मिलते हैं। ऐसे में आसपास मौजूद लोगों की बड़ी जिम्मेदारी होती है कि वे ऐसे व्यक्ति को इमोशनल, मेंटल या फिजिकल जैसी भी जरूरत हो, सहयोग करें, उसका मनोबल बढ़ाने का प्रयास करें ताकि वह व्यक्ति स्वयं को अकेला महसूस न करे। मनोचिकित्सकों के अनुसार आत्महत्या करना काफी गंभीर समस्या है और आत्महत्या करने के पीछे अधिकांशतः अवसाद को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है, जो ऐसे करीब 90 फीसदी मामलों का प्रमुख कारण भी है लेकिन सभी आत्महत्याओं के लिए अवसाद को ही पूरी तरह जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। उनके मुताबिक आत्महत्या करने का विचार किसी इंसान के अंदर तब पनपता है, जब वह किसी मुश्किल से बाहर नहीं निकल पाता।

मनुष्य जीवन को संसार में सबसे अनमोल माना गया है क्योंकि हमारा यह जीवन एकमात्र ऐसी चीज है, जिसे हम दोबारा नहीं पा सकते। परिवर्तन प्रकृति और समाज का नियम है, इसलिए यह मानकर चलना चाहिए कि यदि आज बुरा समय आया है तो कल अच्छा भी आएगा लेकिन इसके लिए जरूरी है कि नकारात्मकता को स्वयं पर हावी न होने दें और सकारात्मक सोच के साथ मेहनत करते रहें। जीवन में आने वाली समस्याओं को स्वीकार करते हुए स्वयं पर भरोसा रखकर उन्हें हल करने का तरीका ढूंढ़ें। मुसीबतों से घिरा व्यक्ति जब स्वयं को अकेला समझने लगता है, तभी वह अवसादग्रस्त होने लगता है और अवसादग्रस्त होने पर लोग प्रायः चीजों से या अपने करीबी लोगों से भी दूर रहना पसंद करते हैं।

परिवार या दोस्तों से दूर रहने पर अकेले में किसी भी व्यक्ति का आत्मबल कमजोर पड़ जाता है और कई तरह के नकारात्मक विचार मन में आते हैं, इसलिए ऐसी स्थिति में अपने परिवार या दोस्तों के साथ समय बिताएं, जो विकट परिस्थितियों में बड़ा मानसिक संबल दे सकते हैं। यदि कभी जरूरत से ज्यादा तनाव अथवा किसी मानसिक बीमारी का अहसास हो तो तुरंत किसी मनोचिकित्सक से मिलकर अपनी परेशानियों के बारे में खुलकर बात करें। केन्द्र सरकार द्वारा अगस्त 2020 में एक मेंटल हैल्थ रिहैबिलिटेशन हेल्पलाइन (किरण हेल्पलाइन) नंबर भी जारी किया गया था, जिस पर कॉल करके ऐसी स्थिति में मदद या काउंसलिंग की मांग की जा सकती है। इसके अलावा भी कई सुसाइड हेल्पलाइन नंबर उपलब्ध हैं, जिनका उपयोग आत्महत्या की घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए किया जा सकता है।

लोगों में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता फैलाकर भी आत्महत्या जैसे मामलों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। किसी भी व्यक्ति के मन में आत्महत्या का विचार आए ही नहीं, ऐसा वातावरण तैयार करना परिवार के साथ-साथ समाज की भी बड़ी जिम्मेदारी है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)