Friday, November 22"खबर जो असर करे"

लोकतंत्र के लिए !

– गिरीश्वर मिश्र

जनता द्वारा, जनता का और जनता के लिए शासन के महास्वप्न को साथ लेकर लोकतंत्र की शासन-विधा आधुनिक युग में सबसे प्रबुद्ध, व्यावहारिक और विवेकशील सरकार चलाने की पद्धति के रूप में स्वीकार की गई है। उत्तर कोरिया और चीन जैसे देश ज़रूर इसके अपवाद हैं जहाँ भिन्न क़िस्म की शासन-व्यवस्थाएँ हैं। यह भी सही है कि जिन देशों में लोकतंत्र है सभी एक जैसे नहीं हैं। राजतंत्र और सैन्य हस्तक्षेप के विविध रूप ऐसे अनेक देशों में मिलते हैं जहां स्वतंत्रता पर पहरा है, अन्याय और असमानता है। इन भेदों के बावजूद लोकतंत्र की व्यवस्था में जनता के चुने प्रतिनिधि या सीधे जनता से चुने लोगों को शासन सँभालने की ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है। इसके मूल में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का ही आदर्श सक्रिय है।

सबकी भागीदारी के लिए अवसर देना, ज़िम्मेदारी और पारदर्शिता के साथ शासन चलाना, शांति और समानता के सिद्धान्तों को ज़मीनी हक़ीक़त बनाने के साथ प्रतिबद्धता लोकतंत्र की जान होती है। यह सब लोकतंत्र को मानवता की वैचारिक प्रगति के इतिहास में एक ख़ास उपलब्धि बना देता है। आज के अधिकांश विकसित देशों की कहानी में वहाँ के दर्दभरे ख़ौफ़नाक अतीत की स्मृति आज भी लोगों को टीसती रहती है। लोकतंत्र की क़ीमत अब उन्हें भलीभाँति मालूम है। लोकतंत्र की सफलता के लिए ज़रूरी है कि जनता से शासन करने के लिए मिली शक्ति की स्वीकार्यता और ठीक-ठीक पहचान बनी रहे । यह भी ज़रूरी है कि शासन में सत्ता का वितरण विकेंद्रित हो और जनता से सलाह-मशविरा भी लगातार होता रहे। इसमें नियमित रूप से जाँच और संतुलन की व्यवस्था भी होनी चाहिए। चुनाव में मतदान से इसकी शुरुआत होती है, इसलिए नियमपूर्वक और समय से चुनाव होने चाहिए। नियमों और क़ानूनों का पालन होना चाहिए तथा क़ानून को ही सर्वोपरि माना जाना चाहिए। ज़रूरी यह भी है कि देश के नागरिकों के सभी मौलिक मानव अधिकारों की सुरक्षा अक्षत बनी रहे । इस सिलसिले में जीवन की, बोलने की, अभिव्यक्ति की और स्वच्छंद घूमने-फिरने की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखना सरकार का बड़ा महत्वपूर्ण दायित्व बनता है। अब इस सूची में सिविल सोसाइटी और ग़ैर सरकारी संस्थाएँ (एनजीओ) की व्यवस्थाएँ भी जुड़ गई हैं।

अक़्सर कहा जाता है कि लोकतांत्रिक शासन के संचालन की दृष्टि से न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका और मीडिया चार प्रमुख आधार-स्तंभ का काम करते हैं। इनकी संस्थाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता अखंड बनी रहनी चाहिए। इसी तरह समानता, समता और बंधुत्व के सिद्धांत भी व्यापक संदर्भ का काम करते हैं जिससे अनुप्राणित हो कर ही नियम क़ानून बनाते हैं और उनका अनुपालन किया जाना चाहिए। सरकार एक जीवन-शैली जैसा उपाय है जो देश और समाज के स्वस्थ विकास के लिए प्रयुक्त होता है। गौर से देखें तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने को सुनिश्चित करने में हर स्तर पर समाज की अधिकाधिक जन-भागीदारी होनी चाहिए। वह प्राण-वायु की तरह होती है, यदि वह अवरुद्ध हो जाय या उसके साथ अवांछित छेड़खानी हो तो लोकतंत्र और देश का स्वास्थ्य ख़राब हो जाएगा।

यदि सन 1947 में स्वतंत्रता के बाद के देश की लोकतांत्रिक यात्रा पर निगाह डालें और इतिहास पर गौर करें तो कुछ तथ्य ध्यान आकृष्ट करते हैं। देश के संविधान में पहला संशोधन पंडित नेहरू के नेतृत्व में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए 1950 में किया गया । भारत के संविधान में शायद कुल 80 संशोधन कांग्रेस के कार्यकाल में किए गए । देश ने यह भी देखा कि संविधान की उद्देशिका (प्रियम्बिल) में ही बदलाव लाने का भी अभूतपूर्व कार्य किया गया। जैसा कि सर्वविदित है देश में लोकतंत्र को स्थगित कर आपात काल (इमरजेंसी) लगाना और संविधान को निरस्त करना निश्चय ही लोकतंत्र का गला घोंटने जैसा कार्य था। वह भी कांग्रेस की ही पहल थी। अनेक प्रदेश की सरकारों को उठाने-गिराने का खेल भी चलता रहा। धारा 370 को लेकर भी कांगेस ने जिस मनोवृत्ति का प्रदर्शन किया वह संविधान की प्रतिष्ठा के अनुकूल न था। पिछले कांग्रेसी शासन में घोटालों की धूम मच रही थी और लगातार तुष्टीकरण पर ज़ोर दिया जाता रहा ताकि वोट बैंक को साधा जा सके । अब धर्म को आधार लेकर आरक्षण की बात और विभिन्न वर्गों को मुफ़्त की ख़ैरात बाँटने और क़र्ज़माफ़ी के प्रस्तावों के साथ जो बेहिसाब उद्घोषणाएँ हो रही हैं उनका कोई वित्तीय आधार नहीं दिखता।

सरकार को पूरे देश के समग्र विकास के लिए सोचना होता है और इस दृष्टि से विपक्ष कोई विकल्प नहीं दे पा रहा सिवाय यह कहने के कि जो कुछ वर्तमान सरकार का कार्य है वह निरर्थक है। विपक्षी नेताओं की ओर से कोई व्याख्या और विकल्प किसी कोने से आता नहीं दिख रहा है। ऐसे में एक रोचक संयोग यह भी बन रहा है कि विदेशों के मीडिया में भारत की छवि को हेठा दिखाने का समानांतर प्रयास भी चालू है। भारत की विविधता की उपेक्षा और समावेश की कमी को लेकर प्रश्न उठाए जाते रहे हैं। अब एक दशक तक सत्ता में रहने के अनुभव और भाजपा के तीसरे कार्यकाल की संभावना देख चिंता बढ़ रही है। जनमत सर्वेक्षणों में बीजेपी के पक्ष में जनादेश का संकेत है। ऐसे में भारत के “लोकतांत्रिक पतन” की पश्चिमी मीडिया की चिंताओं और विपक्षी कांग्रेस दल के विचार प्रमुखों पित्रोदा और ऐयर जैसे माननीयों के सुर एक जैसे हैं । अंग्रेजों से देश को विरासत में प्राप्त करने वाला अभिजात वर्ग हाशिए पर जा रहा है और वह प्रासंगिकता खोता जा रहा है। स्मरणीय है कि नेहरू-गांधी वंश और उसके विभिन्न उत्तराधिकारियों के प्रति वफ़ादारी निभाते प्रमुख कांग्रेसी चिंतक श्री अय्यर ने, जो एक पूर्व राजनयिक थे, कभी मोदी को सुझाव दिया था कि उनको चाय बेचने वापस लौट जाना चाहिए । आम आदमी की साधारण पृष्ठभूमि का इस तरह का तिरस्कार करना घोर अहंकार की मानसिकता का ही पर्याय था जिसे देश ने नकार दिया।

भारतीय भाषाओं और यहाँ की विविध संस्कृतियों और परम्पराओं को साथ लेकर चलते हुए अपने सामाजिक दृष्टिकोण में भाजपा समावेशी होने के लिए यत्न करती रही है। पिछले दशकों के अनुभव से बनी आदतों के विरोध से यह अटपटा भी लगता है और ग़ैर-सेकूलर होने का आरोप भी चस्पा किया जाता है । अपनी आस्था, अपनी भाषा, और अपनी सभ्यता-संस्कृति के प्रति हीन भावना नहीं है । ‘भारत’ के निवासी और भारतीय कहलाने में गर्व की अनुभूति करना भी स्वाभाविक है। आज विश्व की पाँचवी अर्थ व्यवस्था वाला यह देश स्वतंत्रता की शताब्दी पूरा होते-होते सन 2047 में तीसरे स्थान पर पहुँचने के लिए तत्पर है। भारतवर्ष की आवाज़ बड़े विश्व समुदाय में सुनी जाती है। जी-20 शिखर सम्मेलन ने कई संकेत दिए जो आने वाले समय में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाएँगे। राष्ट्रीय हितों की रक्षा और विदेशों में रहने वाले हर भारतीय नागरिक की हिफ़ाज़त के अनेक अवसर हमने देखे। महिलाओं के सशक्तीकरण, आदिवासी समुदायों के उत्थान, समाज के अंतिम जन को अच्छे जीवन का अवसर मुहैया कराने, शिक्षा को प्रासंगिक बनाने और भ्रष्टाचारमुक्त भारत के लिए कठिन संघर्ष की यात्रा जारी है। पर राजनीतिक हस्तक्षेप और संस्थाओं के संचालन में बाधाएँ भी आ रही हैं। इसलिए सब ठीक है यह नहीं कहा जा सकता।

भारत की अगली लोक सभा के गठन के लिए हो रहे ताजे चुनाव के लिए प्रचार के माहौल में मतदाताओं को रिझाने के लिए साम, दाम, दंड, और भेद हर तरह की तरकीबों का उपयोग किया जा रहा है। स्टार प्रचारक खुली छूट लेते नज़र आ रहे हैं। सामान्य शिष्टाचार भूल कर वे जिस तरह दुष्प्रचार कर रहे हैं, आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं उसमें बहुत सारा विष-वमन भी होता दिख रहा है। लोकतंत्र पर ख़तरा, संविधान-परिवर्तन, लोकतांत्रिक संस्थाओं के हनन और आरक्षण की व्यवस्था को लेकर भय और संदेह पैदा करने का प्रयास हो रहा है। इन सब के सहारे जो सूचना परोसी जा रही है उससे हौआ खड़ा कर आम जन को भयाक्रांत होने के लिए काफ़ी विस्फोटक मसाला पैदा किया जा रहा है। ग़ैर ज़िम्मेदाराना ढंग से कुछ भी कहना जनता में भ्रम भी फैलाता है। यह प्रजातांत्रिक मूल्यों के ख़िलाफ़ है।

यह याद रखना ज़रूरी है कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी ख़ासियत यही है कि यह व्यवस्था लोकसंभव होती है यानी लोक या समाज के भीतर से उपजने वाली लोक-शक्ति ही इसके लिए नियामक होती है। विश्व-इतिहास इस बात का गवाह है यह व्यवस्था व्यापक जनहित की दृष्टि से अधिनायकवादी क़िस्म की दूसरी व्यवस्थाओं की तुलना में ज़्यादा कारगर साबित हुई है और निश्चित रूप से कम बर्बर है । भारतीय समाज ने अनेक कठिनाइयों को झेलते हुए लोकतंत्र में दृढ़ विश्वास व्यक्त किया है। इस जज़्बे को बचाए रखने की ज़रूरत है। तभी हम सशक्त और समर्थ भारत का निर्माण कर सकेंगे। परिवारवादी और वंशवादी सोच की जगह ‘लोका: समस्ता: सुखिनो भवन्तु’ की सर्वसमावेशी कामना ही हमारा ध्येय होना चाहिए।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)