– रमेश सर्राफ धमोरा
महाराष्ट्र के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम से दल बदल निरोधक कानून अप्रासंगिक सा हो गया है। इसे और अधिक प्रभावी बनाने की जरूरत है। महाराष्ट्र में शिवसेना के विधायकों की बगावत के बाद उद्धव ठाकरे की सरकार गिर चुकी है। और बागियों के नेता एकनाथ शिंदे नई सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। इस कानून की कमजोरियों का फायदा उठाकर जनप्रतिनिध लगातार पाला बदल रहे हैं। हाल ही में बिहार में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी के पांच में से चार विधायक राजद में शामिल हो चुके हैं। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव कांग्रेस के अधिकांश विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल करा चुके हैं। सिक्किम में सिक्किम डेमोक्रेटिक पार्टी के 10 विधायक भाजपा में शामिल हो चुके हैं। मौजूदा नियमों के मुताबिक किसी पार्टी के दो तिहाई व उससे अधिक विधायक एक साथ किसी अन्य पार्टी में विलय करते हैं तो उनकी सदस्यता बच जाती है। इसी का फायदा राजनीतिक दल उठाते हैं। चुनाव के दौरान आया राम और गया राम ज्यादा नजर आते हैं।
निर्वाचित माननीय अपनी सुविधानुसार दल बदल कर सत्ता का लाभ प्राप्त करते हैं। ऐसे में मतदाता खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए दल बदल विरोधी कानून को और अधिक मजबूत बनाने की जरूरत है। ऐसा कानून हो कि कार्यकाल में जनप्रतिनिधि दलबदल नहीं कर सकें। अक्टूबर 1967 में हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने एक ही दिन मे तीन बार पार्टी बदलकर इस मुद्दे को राजनीति की मुख्यधारा में ला दिया था। 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से दलबदल विरोधी कानून पारित कर इसे संविधान की दसवीं अनुसूची में जोड़ा गया था। इस कानून का उद्देश्य भारतीय राजनीति में शुचिता स्थापित करना था। मगर ऐसा न हो सका। 2003 में इस कानून में संशोधन भी किया गया। तब भी बड़े पैमाने पर दल-बदल हुए।
इससे निपटने के लिए 2003 में दसवीं अनुसूची में संविधान में 99वें संशोधन का प्रस्ताव किया गया था। 16 दिसंबर, 2003 को लोकसभा और 18 दिसंबर, 2003 को राज्यसभा ने यह बिल पारित किया। जनवरी 2004 में राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त हुई। इसके बाद संविधान (निन्यानवे संशोधन) अधिनियम – 2003 को 2 जनवरी 2004 को भारत के राजपत्र में अधिसूचित किया गया। इसमें एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय करने की अनुमति दी गई है। बशर्ते कि उसके कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य विलय के पक्ष में हों। इस प्रकार इस कानून के तहत एक बार अयोग्य सदस्य उसी सदन की किसी सीट पर किसी भी राजनीतिक दल से चुनाव लड़ सकते हैं।
दलबदल के आधार पर अयोग्यता संबंधी प्रश्नों पर निर्णय के लिए मामले को सदन के सभापति या अध्यक्ष के पास भेजा जाता है जो कि न्यायिक समीक्षा के अधीन होता है। इस कानून में यदि एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता को छोड़ देता है। यदि वह पूर्व अनुमति प्राप्त किये बिना अपने राजनीतिक दल या ऐसा करने के लिये अधिकृत किसी व्यक्ति द्वारा जारी किसी भी निर्देश के विपरीत सदन में मतदान करता है या मतदान से दूर रहता है। यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है। यदि छह महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है तो उसकी सदस्यता समाप्त की जा सकती है।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला की अध्यक्षता में संसद भवन में आयोजित पीठासीन अधिकारियों की बैठक में दल बदल विरोधी कानून को मजबूत करने पर चर्चा हो चुकी है। बैठक में तय हुआ है कि इस पर अंतिम निर्णय से पहले सभी हित धारकों जैसे पीठासीन अधिकारियों, संवैधानिक विशेषज्ञों और कानूनी विद्वानों के साथ विचार विमर्श किया जाए। उम्मीद है राजनीति में नासूर बन चुके दलबदल के खेल पर जल्द ही रोक लग सकेगी।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)