Saturday, September 21"खबर जो असर करे"

सहकारी बैंकों को डीबीटी से जोड़ने के मायने

– डॉ. विपिन कुमार

भारत में सहकारी आंदोलन के 100 से अधिक वर्ष पूरे हो चुके हैं। 1904 में सहकारी समिति अधिनियम के पारित होने के बाद अब इस दिशा में सबसे बड़ा प्रोत्साहन मिला है। देश में इस आंदोलन की शुरुआत किसानों, श्रमिकों और समाज के अन्य कमजोर वर्ग को अधिक समर्थ बनाने के उद्देश्य के साथ शुरू किया गया था। तब से अब तक सहकारी बैंक एक लंबी यात्रा तय कर चुके हैं। इन बैंकों ने देश के वित्तीय समावेशन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। विशेष रूप से ग्रामीण, निम्न और मध्य परिवार के बैंकिंग और ऋण संबंधित जरूरतों को पूरा करने में।

सहकारी बैंकिंग व्यवस्था को ग्रामीण और शहरी जैसे दो भागों में विभाजित किया गया है। मौजूदा समय में देश में 90,000 से भी अधिक प्राथमिक ऋण समितियां, 367 जिला केन्द्रीय सहकारी बैंक, 33 राज्य सहकारी बैंक और 1579 शहरी सहकारी बैंक हैं। हालांकि, सहकारी बैंकों की इतनी विशाल संख्या और पंचवर्षीय योजनाओं में इससे संबंधित प्रावधान होने के बावजूद, देश के बैंकिंग क्षेत्र में उनके आस्तियों का आकार पांच प्रतिशत से अधिक नहीं रहा। इन्हीं तथ्यों को देखते हुए, यह कहना गलत नहीं होगा कि देश में सहकारी बैंकों ने अभी तक अपनी वास्तविक शक्तियों को हासिल नहीं किया है।

आज के दौर में प्रतिस्पर्धी बैंकिंग सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने की दिशा में कोई भी अत्याधुनिक तकनीक की भूमिका को नजरअंदाज नहीं कर सकता है। लेकिन सहकारी बैंकों ने इस दिशा में कोई खास रुचि नहीं दिखाई। इस दिशा में सार्थक चर्चा में कमी, नए सदस्यों को शामिल करने में प्रतिबंधात्मक प्रथाओं के चलन, कम मतदान, आदि जैसी समस्याओं के कारण सहकारी स्वरूप में काफी क्षीणता आ रही है। इन समस्याओं के समाधान के लिए मालेगाम समिति द्वारा नई संगठनात्मक संरचना का सुझाव दिया गया, जिसमें निदेशक मंडल और प्रबंधक मंडल को एक साथ लाते हुए, वाणिज्य बैंकों के अलग स्वामित्व की अनुशंसा की गई। वर्ष 2013 में भारतीय रिजर्व बैंक ने ‘भारत में बैंकिंग संरचना – आगे की राह’ विषय पर एक चर्चा पत्र भी जारी किया था, जिसमें चारस्तरीय बैंकिंग संरचना की संकल्पना निर्धारित की गई। इस पत्र में अंतरराष्ट्रीय बैंकों को टियर (प्रथम), राष्ट्रीय बैंकों को टियर (द्वितीय), क्षेत्रीय बैंकों को टियर तृतीय और स्थानीय बैंकों को चतुर्थ टियर के अंतर्गत रखा गया। इस पत्र ने भारतीय की वर्तमान बैंकिंग संरचना को अधिक गतिशील और हमारी अर्थव्यवस्था की आवश्यताओं के अनुरूप बनाने की जरूरतों को स्पष्ट किया।

अब केन्द्रीय गृहमंत्री और भारत के पहले सहकारिता मंत्री अमित शाह ने सहकारी बैंकों को अधिक समर्थ और सक्षम बनाने के लिए एक बड़ा ऐलान किया है। उन्होंने कहा है कि सहकारी बैंक के ग्राहकों को अब सभी सरकारी योजनाओं का सीधा लाभ मिलेगा और केन्द्र सरकार सहकारी बैंकों को डायरेक्ट बैंक ट्रांसफर (डीबीटी) से जोड़ेगी। उल्लेखनीय है कि मौजूदा सभी में लाभार्थियों को 300 योजनाओं का सीधा लाभ डीबीटी के माध्यम से मिल रहा है, जो अब सहकारी बैंकों के ग्राहकों के लिए भी उपलब्ध रहेगा।

बैंकिंग क्षेत्र में सुधार की दिशा में जनधन योजना का उल्लेख करना भी जरूरी है। आज के समय में इस योजना के कारण 45 करोड़ नए लोगों का बैंक खाता खुला है और 32 करोड़ लोगों को रूपे डेबिट कार्ड का लाभ भी मिला है। वहीं, इस योजना के अंतर्गत खोले गए खातों का डिजिटल लेनदेन मौजूदा समय में 1 लाख करोड़ डॉलर को भी पार कर गया है। जाहिर है कि अब जब सहकारी बैंकों को डीबीटी से जोड़ने का प्रयास किया गया है, तो सहकारिता क्षेत्र को एक नई मजबूती मिलेगी, जिससे देश की समृद्धि और आर्थिक उत्थान भी सुनिश्चित होगी।

आज दुनिया सहकारिता के इर्द-गिर्द घूम रही है। साल 1844 में उत्तरी इंग्लैंड के रोशडेल शहर में सूती वस्त्रों की मिल में कार्यरत 28 कारीगरों के एक समूह ने आधुनिक सहकारिता का पहला व्यवसाय स्थापित किया था। इसे रोशडेल पॉयनियर्स सोसायटी कहा जाता है। इसके बाद सहकारिता आंदोलन पूरी दुनिया में फैला। भारत में सहकारिता क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन किया गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पिछले साल 06 जुलाई को नए सहकारिता मंत्रालय की स्थापना की जा चुकी है। इसका उद्देश्य सहकारी क्षेत्र के विकास को नए सिरे से प्रोत्साहन प्रदान करना और सहकार से समृद्धि की दृष्टि को साकार करना है। आरबीआई के डेटा के अनुसार देश के कुल शहरी सहकारी बैंकों की साल 2019-20 में पूंजी 14,933.54 करोड़ रुपये थी।

(लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)