Friday, November 22"खबर जो असर करे"

सिविल अधिकारियों की जिम्मेदारी और कठिनाई पर चर्चा जरूरी

– हृदयनारायण दीक्षित

भारतीय प्रशासनिक सेवा ने बड़ा लम्बा सफर तय किया है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक प्रशासन का मुख्य लक्ष्य लोकहित ही रहा है। उनकी योग्यता और प्रतिभा बेजोड़ रही है। लेकिन तमाम ज्ञान गरिमा से युक्त होने के बावजूद वे भारतीय जनमानस के आत्मीय हित साधक नहीं बन सकते। प्रशासन और भारतीय जनता के मध्य दूरी है। प्रशासन एक तरह से स्थाई कार्यपालिका है। इसके कामकाज में आमजनों के साथ सम्पर्कों में संवेदनशीलता का अभाव देखा गया है। संविधान सभा में अनेक सदस्यों ने अंग्रेजीराज के सिविल ढांचे को समाप्त करने की मांग की थी। सरदार पटेल ने कहा था, ”हमने इनके साथ कठिन समय में काम किया है। मेरे ख्याल से इन्हें बनाए रखना जरूरी है।” पटेल ने स्वतंत्र भारत के सिविल अधिकारियों की पहली खेप को 21 अप्रैल को 1947 में सम्बोधित किया था। यह एक महत्वपूर्ण क्षण था। इसीलिए इस तिथि को सिविल सेवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। तब से 77 वर्ष बीत गए।

संवेदनशील प्रशासन राष्ट्रीय अपरिहार्यता है। उत्कृष्ट प्रशासन प्राचीन काल से ही किसी न किसी रूप में समाज के लिए जरूरी रहा है। भारत का वर्तमान प्रशासन प्राचीन काल की प्रशासनिक व्यवस्थाओं का विकास है। इसका प्राचीनतम स्वरूप ऋग्वैदिक काल में भी मिलता है। ऋग्वेद के समाज की सबसे छोटी इकाई कुटुम्ब या परिवार थी। परिवार का सबसे वरिष्ठ कुटुम्ब का प्रधान संचालक होता था। घर के मुखिया की बात सब लोग मानते थे। अनेक परिवारों से मिलकर बनने वाली राजनीतिक इकाई ‘ग्राम’ थी। राजनीतिक दृष्टि से ग्राम का प्रमुख ग्रामणी कहलाता था। वह स्वयं ग्राम का प्रशासनिक अधिकारी भी था। अनेक ग्रामों से बनी बड़ी इकाई विश कहलाती थी। विश के प्रशासनिक अधिकारी को विशपति कहते थे। विश से बड़ी इकाई जन होती थी। जन के संचालक प्रशासनिक अधिकारी को गोप कहा जाता था। गोप प्रायः राजा ही होते थे। ऋग्वैदिक समाज में गणतंत्र भी थे। राजा निरंकुश नहीं था। राजा राज्याभिषेक के समय प्रजा के हित में काम करने की शपथ लेता था। राजा को जवाबदेह बनाने वाली दो लोकतांत्रिक संस्थाएं भी थीं। इन्हें सभा और समिति कहा गया। लुडविग ने लिखा है, ”समिति जनसाधारण की संस्था थी। सभा वरिष्ठों की संस्था थी।” उस समय के नियम सबको मान्य थे।

नियम या विधि को ऋग्वेद में ‘धर्मन्’ कहा गया है। ग्रिफ्थ ने धर्मन का अनुवाद लॉ या लॉज किया है। ग्राम में न्याय करने के लिए ग्रामवादिन नाम की न्यायायिक संस्था भी थी। वैदिक काल के बाद सिन्धु घाटी की सभ्यता का समय (2250 ईसापूर्व से 1750 ईसापूर्व तक) आता है। व्हीलर और पिगट के अनुसार मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के राज्य ठीक से संचालित थे। सिन्धु सभ्यता में सड़कें सुनियोजित थी। जल निकासी की व्यवस्था थी। अनुमान किया जाता है यहां नागरिक संस्थाएं थीं। पिगट के अनुसार व्यवस्थित निर्माण कार्य से अनुमान लगता है कि यहां नगर पालिकाएं जैसी संस्थाएं भी रही होंगी। सम्पूर्ण सिन्धु क्षेत्र में प्रशासन व्यवस्थित था। उत्तर वैदिक काल में शक्तिशाली राजाओं का उदय दिखाई पड़ता है। उत्तर वैदिक काल में प्रशासनिक काम करने वालों की संख्या बड़ी है। महाभारत में बड़े राज्यों का उल्लेख है।

चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में भारत ने पहली बार राजनैतिक एकता हासिल की। यह विशाल साम्राज्य था। चन्द्रगुप्त मौर्य स्वयं में योग्य प्रशासक थे। कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मैगस्थनीज की इंडिका, अशोक के शिलालेख व यूनानी साहित्य में मौर्य शासन व्यवस्था की तमाम जानकारी हैं। भारतीय प्रशासन के विकास में मौर्य शासन के अनेक तत्व हैं। भारत परम्परा प्रिय देश है। यहां के समाज में कालवाह्य को छोड़ने और कालसंगत को जोड़ने की क्षमता रही है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक लोक प्रशासन को जनोन्मुखी बनाने के प्रयास चलते रहे हैं। आदर्श राजव्यवस्था के संवेदनशील प्रशासन के विवरण कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलते हैं और महाभारत में भी। कौटिल्य संवेदनशील प्रशासन के व्याख्याता हैं। वाल्मीकि की रामायण में श्रीराम की आदर्श राजव्यवस्था के उल्लेख हैं। वाल्मीकि द्वारा लिखी आदर्श राजव्यवस्था काल्पनिक नहीं है। तुलसीदास ने आज से 450 वर्ष पहले रामचरितमानस लिखी थी। रामचरितमानस में भी आदर्श राजव्यवस्था की खूबसूरत झांकी है।

राम राज्य कल्पना नहीं है। आदर्श राजव्यवस्था के सूत्र ऋग्वेद से लेकर आधुनिक काल तक एक जैसे हैं। अंग्रेजी सत्ता के समय भारत को साम्राज्यवाद का शोषण क्षेत्र बनाने की कोशिशें की गईं। अंग्रेजी सत्ता का उद्देश्य भारत की जनता को सुन्दर प्रशासन देना नहीं था। वे यहां से कच्चा माल इंग्लैंड ले जाते थे। उसके उपयोग से अंग्रेजी ब्रांड की वस्तुएं बनाते थे। यहाँ से कपास इंग्लैंड जाता था। वहां से ‘मेड इन इंग्लैंड’ के कपड़े बनकर आते थे। भारतीय व्यापारी और किसान कर्ज में डूब गए थे। अंग्रेजों का प्रशासन संवेदनहीन था। ईसाई मिशनरी अंग्रेजी सत्ता के दुरुपयोग से धर्मांतरण कराते थे। लेकिन भारतीय संस्कृति और दर्शन का डंका चारों ओर पिट रहा था। भारतीय प्रशासन के लिए इंग्लैंड से सिविल अधिकारी आते थे।

मैक्समूलर भारतीय दर्शन और संस्कृति के व्याख्याता थे। उन्होंने भारत आने वाले सिविल अधिकारियों को पढ़ाया था कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क भारतवासियों का है। संस्कृत दुनिया की आदर्श भाषा है। भारतीय दर्शन विज्ञान को ध्यान से समझ कर स्वयं का निजी जीवन और समाज को श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। यह बातें भारत का कोई व्यक्ति नहीं कह रहा था। जर्मनी के विद्वान मैक्समूलर भारत जाने वाले सिविल अधिकारियों को भारत को समझने की प्रेरणा दे रहे थे। उनका सारा भाषण ‘व्हाट इंडिया कैन टीच अस’ के नाम से संकलित है। अंग्रेजी प्रशासकों को भारत समझना जरूरी था। मोटे तौर पर अंग्रेजी शासन और वैधानिक व्यवस्था की वास्तविक शुरुआत भारत शासन अधिनियम 1935 से होती है। संविधान निर्माताओं ने भारतीय प्रशासन के गठन में 1935 के अधिनियम की बातें लगभग यथावत रखी हैं।

राजनैतिक कार्यपालिका विधायी सदनों के प्रति जवाबदेह है। मंत्रीगणों को सम्बंधित प्रश्नों के उत्तर तैयार कराने में प्रशासन की मुख्य भूमिका होती है। प्रश्नोत्तरों की तैयारी में हुई त्रुटि का खामियाजा सदन में मंत्री को भुगतना पड़ता है। जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों के मध्य भी उत्साहवर्द्धक सम्बंध नहीं दिखाई पड़ते। बहुधा विधायकों और सांसदों से प्रशासनिक अधिकारियों के बीच अप्रिय कलह की खबरें आती रहती हैं। टेलीफोन न उठाने और जनप्रतिनिधियों के पत्रों के उत्तर न देने की शिकायतें पुरानी हैं। विधायी सदनों की समितियों में प्रशासनिक अधिकारियों को सम्बंधित विषय पर साक्ष्य के लिए आमंत्रित किया जाता है। अध्यक्ष विधानसभा के रूप में मेरा अनुभव रहा है कि समिति के भीतर जनप्रतिनिधियों द्वारा पूछे गए उत्तर अधिकारियों को नागवार लगते हैं। निर्वाचित सरकार के द्वारा बनाए गए कार्यक्रमों को पूरा करना सिविल अधिकारियों की जिम्मेदारी है। विकास कार्यों को ठीक से सम्पन्न कराना भी इन्हीं की जिम्मेदारी है। लेकिन तमाम राज्यों में भिन्न-भिन्न विभागों के लिए निर्धारित बजट का बड़ा भाग उपयोग में ही नहीं आता। आज के इस महत्वपूर्ण दिवस पर सिविल अधिकारियों की जिम्मेदारियों और उनकी कठिनाइयों पर बेबाक चर्चा होनी ही चाहिए।

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)