Friday, November 22"खबर जो असर करे"

‘छेदी जगन से ऋषि सुनक तक…,’ भारत करे इन पर गर्व

– आर.के. सिन्हा

भारत की मौजूदा पीढ़ी को संभव है कि छेदी जगन के बारे में पर्याप्त जानकारी न हो। वे सन 1961 में सुदूर कैरिबियाई टापू देश गयाना के प्रधानमत्री बन गए थे। उन्होंने जो सिलसिला शुरू किया था वह आज भी जारी है। अब ग्रेट ब्रिटेन में ऋषि सुनक देश के प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए हैं। वे भारतवंशी भी हैं और हिन्दू भी हैं। ऋषि सुनक भारत की सबसे प्रतिष्ठित आईटी कंपनियों में से एक इंफोसिस के फाउंडर चेयरमेन एन. नारायणमूर्ति के दामाद हैं। नारायणमूर्ति की पुत्री अक्षिता तथा सुनक स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में सहपाठी थे। सुनक के पुरखे वैसे तो मूल निवासी पंजाब से हैं। वे पूर्वी अफ्रीकी देश केन्या में बस गए थे करीब 100 साल पहले। उनके पिता यशवीर का जन्म केन्या और मां का जन्म तंजानिया में हुआ था। हिन्दी और पंजाबी भी जानने वाले सुनक का परिवार 1960 के दशक में ब्रिटेन शिफ्ट कर गया था। गोरे शासक सन 1824 से लेकर 1901 के बीच करीब 32 हजार मजदूरों को भारत के विभिन्न राज्यों से केन्या, तंजानिया, युंगाडा मॉरीशस, सूरीनाम , फिजी आदि देशों में लेकर गए थे। इन्हें रेल पटरियों को बिछाने के लिए और गन्ने की खेती के लिए ले जाया गया था। इनमें पंजाब, बिहार और उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक मजदूर थे। पूर्वी अफ्रीका का सारा रेल नेटवर्क पंजाब के लोगों ने ही तैयार किया था। इन्होंने बेहद कठिन हालतों में रेल नेटवर्क तैयार किया। उस दौर में गुजराती भी केन्या पहुंचने लगे। पर वे वहां पहुंचे बिजनेस करने के इरादे से न कि मजदूरी करने की इच्छा से । रेलवे नेटवर्क का काम पूरा होने के बाद अधिकतर पंजाबी श्रमिक वहीं पर ही बस गए। हालांकि, उनमें से कुछ आगे चलकर बेहतर भविष्य की चाह में ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका आदि देशों में भी जाकर बसते रहे। सुनक का परिवार ब्रिटेन चला गया था।

बेहद सौम्य और मृदुभाषी ऋषि सुनक के ग्रेट ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद यह याद रखा जाए कि वे अपने देश ब्रिटेन के हितों का सबसे पहले ख्याल रखेंगे। उन्हें यह करना भी चाहिए। हां, लेकिन, उनका भारत से भावनात्मक संबंध तो बना ही रहेगा। जब सारा भारत दिवाली मना रहा था तब सुनक के ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने का समाचार आते ही भारतीयों की दिवाली की खुशी दोगुनी बढ़ गई। इस दौरान सोशल मीडिया पर कुछ ज्ञानी कहने लगे कि वे भारत के हक में तो कुछ नहीं करेंगे। अब उनसे पूछा जाना चाहिए कि भारत सुनक से अतिरिक्त अपेक्षा क्यों करेगा?

कमला हैरिस अमेरिका की उपराष्ट्रपति हैं। उन्हें डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपना उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था। कमला हैरिस का परिवार मूलतः भारतीय है। पर उपराष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने कभी भी इस तरह का कोई संकेत नहीं दिया जिससे कि लगे कि वह अपने देश के भारत से संबंध प्रगाढ़ करने की बाबत अतिरिक्त प्रयास कर रही हैं। तो बात यह है कि भारतवंशी भारत को प्रेम करते हैं। लेकिन उनकी पहली निष्ठा तो उसी देश को लेकर रहेगी जहां पर वे बसे हुए हैं। भारत भी यही चाहता है।
खैर, भारतीयों का राजनीति करने में कोई जवाब नहीं है। ये देश से बाहर जाने पर भी सियासत के मैदान में मौका मिलते ही कूद पड़ते हैं। वहां पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा ही देते हैं। संसद का चुनाव कनाडा का हो, ब्रिटेन का हो या फिर किसी अन्य लोकतांत्रिक देश का, भारतीय उसमें अपना असर दिखाने से पीछे नहीं रहते। उन्हें सिर्फ वोटर बने रहना नामंजूर है। वे चुनाव भी लड़ते हैं। हिन्दुस्तानी सात समंदर पार मात्र कमाने-खाने के लिए ही नहीं जाते। वहां पर जाकर हिन्दुस्तानी सत्ता पर काबिज होने की भी भरसक कोशिश करते हैं। अगर यह बात न होती तो लगभग 22 देशों की पार्लियामेंट में 182 भारतवंशी सांसद न होते।

दरअसल ब्रिटेन को 1840 के दशक में गुलामी प्रथा का अंत होने के बाद श्रमिकों की जरूरत पड़ी जिसके बाद भारत से मजदूर बाहर के देशों में जाने लगे। बेशक भारत के बाहर जाने वाला प्रत्येक भारतीय अपने साथ एक छोटा भारत ले कर जाता था। उनका साथी था गीता, रामचरित मानस, हनुमान चालीसा आदि। इसी तरह भारतवंशी अपने साथ तुलसी रामायण, भाषा, खान पान एवं परंपराओं के रूप में भारत की संस्कृति ले कर गए थे। उन्हीं मजदूरों की संतानों के कारण फीजी, त्रिनिडाड, गयाना, सूरीनाम और मॉरीशस लघु भारत के रूप में उभरे। मजदूरों से गन्ने के खेतों में काम करवाया जाता था। इन श्रमिकों ने कमाल की जीवटता दिखाई और घोर परेशानियों से दो-चार होते हुए अपने लिए जगह बनाई। इन भारतीय श्रमिकों ने लंबी समुद्री यात्राओं के दौरान अनेक कठिनाइयों को झेला। अपने देश से हजारों किलोमीटर दूर जाकर बसने के बावजूद इन्होंने अपने संस्कारों को कभी छोड़ा नहीं। इनके लिए अपना धर्म, भाषा और संस्कार बेहद खास थे। ऋषि सुनक का हालांकि जन्म ब्रिटेन में हुआ पर वे एक संस्कारी हिन्दू हैं। वे अपने परिवार और हिन्दू धर्म के संस्कारों से पूरी तरह जुड़े हुए हैं।

हां, ये अप्रवासी मजदूर उन देशों के मूल्यों को भी आत्मसात करते रहे जिधर ये बसे। ये सात समंदर पार जाकर अपनी जातियों को भूल गए। यानी ये जिधर भी बसे वहां पर ये जाति के कोढ़ से मुक्त हो गए। अपनी धरती से दूर जाकर भारतवंशी राजनीति तक ही सीमित नहीं रहे। इन्होंने खेलों में भी बुलंदियों को छुआ। अगर क्रिकेट की ही बात करें तो सोनी रामाधीन की जादुई स्पिन गेंदबाजी के बाद कैरिबियाई देशों में रहने वाले नौजवानों को कहीं न कहीं लगा कि वे खेलों में अपनी प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ सकते हैं। इसी के चलते रोहन कन्हाई, एल्विन कालीचरण, इंसान अली, शिव नारायण चंद्रपाल, राम नरेश सरवान आदि कितने ही भारतीय मूल के खिलाड़ी वेस्ट इंडीज से खेले और कइयों ने इसकी कप्तानी भी की। रामाधीन से पहले यह कल्पना से परे कि स्थिति थी। वे उस महान वेस्टइंडीज टीम का अहम हिस्सा थे जिसमें वारेल, विक्स और वाल्कट यानी थ्री डब्ल्यू थे। उस टीम को महानतम क्रिकेट टीमों में से एक माना जाता है। रामाधीन से हटकर बात करें तो फीजी के भारतवंशी गॉल्फर विजय सिंह दुनिया के चोटी के गॉल्फ खिलाड़ी बने और फीजी के ही एक गिरमिटिया परिवार का नौजवान विकास धुरासू फ्रांस की फुटबॉल टीम से फीफा विश्व कप में खेला।

भारत के बाहर बसे संभवत: सबसे प्रख्यात सिख खिलाड़ी केन्या के अवतार सिंह सोहल तारी कहते हैं- “सोनी रामाधीन अफ्रीका तक में बसे भारतवंशी खिलाड़ियों के लिए रोल मॉडल थे।” तारी ने 1960, 1964,1968 और 1972 के ओलंपिक खेलों के हॉकी मुकाबलों में केन्या की नुमाइंदगी की है। फुल बैक की पोजीशन पर खेलने वाले तारी तीन ओलपिंक खेलों में केन्या टीम के कप्तान थे। वे क्रिकेट के भी खिलाड़ी रहे हैं।

खैर, ऋषि सुनक का ग्रेट ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना भारत और भारतवंशियों के लिए गर्व की बात है। भारत से बाहर बसा हरेक भारतवंशी भारत का ब्रांड एंबेसेडर है। इनकी सफलता से भारत का गर्व होना लाजिमी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जो सिलसिला छेदी जगन ने शुरू किया और जिसे मॉरीशस में शिवसागर रामगुलाम से लेकर अनिरुद्ध जगन्नाथ, त्रिनिदाद और टोबैगो में वासुदेव पांडे, सूरीनाम में चंद्रिका प्रसाद संतोखी, अमेरिका में कमला हैरिस और ग्रेट ब्रिटेन में सुनक ने आगे बढ़ाया, वह निरंतर चलता रहेगा। भारतवंशी भारत से बाहर भी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बनते ही रहेंगे।

(लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)