– डॉ. रमेश ठाकुर
छत्तीसगढ़ के कांकेर में पिछले सप्ताह केंद्रीय सुरक्षाकर्मियों ने एक ऑपरेशन के तहत बड़ी संख्या में नक्सलियों को मार गिराया। सूचनाएं थी कि नक्सली चुनाव में गड़बड़ी करने वाले थे। उनका निशाना पोलिंग बूथ थे। उनके पास से बड़ी मात्रा में हथियार और गोला बारूद बरामद हुआ। नक्सलियों पर इस कार्रवाई को लेकर एक दफा फिर कांग्रेस ने प्रमाणिकता पर सवाल उठाए हैं। वाजिब सवाल ये है कि आखिर चुनाव के बीच नक्सल और सुरक्षाबलों के बीच चले इस संघर्ष को राजनीतिक रंग देने में किसका भला होगा? भूपेश बघेल तो मुठभेड़ को फर्जी भी बता रहे हैं। वहीं, कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने भी बिना सोचे समझे नक्सलियों से हमदर्दी जताई। हालांकि, विरोध होने पर अब दोनों अपने बयानों को लेकर लीपापोती करने में लगे हैं। कुछ विपक्षी नेताओं ने इससे पूर्व भी नक्सलियों को शहीद बताकर उनके प्रति हमदर्दी जताई थी। यह तो जगजाहिर है ही कि कांग्रेस नक्सल आंदोलन के हिंसावादी रवैये की प्रति शुरू से नरम रही है। जबकि, कायदे से देखें तो नक्सलियों ने उनके भी कई नेताओं को मौत के घाट उतारा है।
बहरहाल, कांकेर मुठभेड़ को लेकर कांग्रेस और सत्तारूढ़ पार्टी के बीच जमकर वाकयुद्ध जारी है। पर, नक्सलवाद की समस्या चुनाव तक ही सीमित नहीं रहने वाली? क्योंकि देश विगत 70 वर्षों से नक्सल आतंकवाद झेलता आया है। अब समय की मांग है कि इसे जड़ से खत्म किया जाए। केंद्र की योजना फिलहाल इसी ओर अग्रसर भी है। अभी तक हजारों नक्सली मारे गए हैं जिनमें बड़ी संख्या में हमारे जवान भी शहीद हुए हैं। इसलिए इस समस्या को राजनीतिक चश्मे से देखने कतई औचित्य नहीं? इस समस्या को जड़ से मिटाने की राष्ट्रीय नीति के प्रति सभी को एक समान विचार रखना चाहिए। केंद्र सरकार ने गत दस वर्षों में नक्सल उन्मूलन की नीति पर एक निरंतरता बनाया हुआ है जिसके बेहतरीन परिणाम भी मिले हैं।
आंकड़ों पर गौर करें तो 2004-14 के यूपीए के दस सालों के नक्सली हमलों या मुठभेड़ों में 1,750 सुरक्षा बलों के जवानों की शहादत हुई थी, लेकिन 2014-23 में करीब 72 फीसदी तक कमी आई। इस दौरान 485 सुरक्षाबलों के जवानों की जान गई। इसी अवधि में नागरिकों की मौत की संख्या भी 68 प्रतिशत घटकर 4,285 से 1,383 हुई। कांग्रेस सरकार अपने वक्त में ये तय नहीं कर पाई थी कि वह आर्म्ड वाम विद्रोह के खिलाफ केंद्रीय नीति किस तरह की रखे। कांग्रेस के नेताओं में इस पर एकमत था ही नहीं। प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह उच्चस्तरीय सुरक्षा सम्मेलनों में तो यह कहते रहे कि नक्सलवाद देश के लिए खतरा है। पर, गृहमंत्री के रूप में चिदंबरम ने सशस्त्र विद्रोह के प्रति कोई आक्रामक नीति कभी बनाई ही नहीं? मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह ने नक्सलवाद के मूल कारणों को ढूंढने के अपने सिद्धांत बना लिए और उसी की वकालत करते रहे।
सन 2009 में यूपीए सरकार ने ऑपरेशन ‘ग्रीन हंट’ शुरू किया था। तब कहा गया था कि सरकार नक्सलियों को पूरी तरह खत्म कर देगी। सीआरपीएफ को इसके लिए खास तरह के टास्क दिए गए। इस अभियान में भारतीय सेना को भी लगाया गया। लेकिन, यह ऑपरेशन सुरक्षा बलों के लिए ही काल बन गया। अप्रैल-2010 में नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में एक ही दिन 76 सीआरपीएफ के जवानों की हत्या कर दी। घरेलू मोर्चे पर यह ऑपरेशन ‘ब्लूस्टार’ के बाद सुरक्षाबलों की सबसे ज्यादा मौतों की यह घटना बन गई। यूपीए में तीन-तीन गृह मंत्री बनाए गए, शिवराज पाटिल, चिदंबरम और सुशील शिंदे। नक्सलवाद को लेकर तीनों की अपनी अलग-अलग राय थी। यूपीए सरकार में ही हिंसक नक्सलियों को गुमराह और नेक इरादे वाले लोगों के रूप में वर्णन किया गया। यूपीए सरकार ने ही मलकानगिरी के कलेक्टर विनील कृष्णा के बदले में आठ माओवादियों को रिहा किया। उसी दौरान माओवादी समर्थकों का एक पढ़ा लिखा वर्ग भी तैयार हुआ, जिन्हें आज अर्बन नक्सली कहा जाता है। फिलहाल केंद्र सरकार अब ये दावा करती है कि उसने हिंसक वाम आंदोलन और उग्रवाद खिलाफ जोरदार अभियान छेड़ा है।
नक्सल वामपंथी उग्रवाद को किसी भी तरह की रियायत नहीं दी जाएगी। 2015 में मोदी सरकार ने आतंकवाद और उग्रवाद के खिलाफ ’राष्ट्रीय नीति और कार्ययोजना’ शुरू की थी, जिसमें हिंसा के प्रति ‘जीरो टॉलरेंस’ की बात कही गई थी। सरकार ने उसी समय से किसी भी तरह की हिंसा से निपटने के लिए पुलिस और सुरक्षाबलों का आधुनिकीकरण करना शुरू कर दिया। प्रशिक्षण के लिए विशेष तौर पर फंड जारी किए। इसके साथ ही सरकार ने हिंसा प्रभावित राज्यों की सहायता के लिए विशेष बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की योजना पर काम शुरू किया। सुरक्षा जरूरतों में आने वाले खर्चों के लिए अलग से धनराशि जारी की। इतना ही नहीं इस पूरे काम की निगरानी करने के लिए सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में अमित शाह के नेतृत्व में गृह मंत्रालय में एक अलग डिवीजन बनाया। इसे वामपंथी उग्रवाद प्रभाग का नाम दिया गया।
वामपंथी उग्रवादियों का मुकाबला करने और राज्य पुलिस बलों की क्षमता को बढ़ाने के लिए राज्यों में इंडिया रिजर्व बटालियन का भी गठन किया गया। लगातार ऑपरेशन से माओवादियों और नक्सलियों के पांव उखड़ गए हैं। हिंसा और अपराधों के आकड़े में लगातार कमी आई है। वर्ष 2014 से 2023 के बीच में वामपंथी उग्रवाद से संबंधित हिंसा में 52 फीसदी से अधिक की कमी आई है। इस तरह कुल मौतों में भी 69 फीसदी की कमी आई है। सुरक्षाबलों के हताहतों की संख्या इस समय काफी कम है। यह एक बड़ी उपलब्धि है। ये तभी संभव हुआ जब केंद्रीय गृह मंत्रालय ने केंद्र और राज्यों के बीच एक सहयोगात्मक दृष्टिकोण का मार्ग प्रशस्त किया, जिसके चलते ही विगत वर्षों में उग्रवादी गुटों के कई सदस्य सरकार के सामने आत्मसमर्पण करने को भी मजबूर हुए।
केंद्र सरकार ने कई मर्तबा वामपंथी उग्रवादियों को हिंसा छोड़ने और बातचीत करने का प्रस्ताव दिया था। उनके लिए केंद्र ने कई विकास परियोजनाएं भी शुरू करने की बात कही। इनमें वामपंथी उग्रवाद से ग्रस्त क्षेत्रों में 17,600 किलोमीटर सड़कों को मंजूरी देना। केंद्र ने राज्यों को नियमित निगरानी के लिए हेलीकॉप्टर और मानव रहित हवाई वाहन उपलब्ध करवाना। सुरक्षा इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ाने के लिए स्पेशल फंड्स जारी किए। इस मद में करीब 971 करोड़ रुपये की परियोजनाएं मंजूरी भी हुईं। इन परियोजनाओं में 250 किलेबंद पुलिस स्टेशन स्थापित करने का काम शुरू भी हुआ। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लिए सड़क आवश्यकता योजना को केंद्र सरकार ने आठ राज्यों आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और उत्तर प्रदेश के 34 जिलों में लागू किया है। इस योजना में 5,362 किलोमीटर सड़कों का निर्माण हो भी चुका है।
नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में मोबाइल कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए सरकार ने अगस्त 2014 में इन क्षेत्रों में मोबाइल टावरों की स्थापना को भी मंजूरी दी। अब तक 4885 मोबाइल टावर लगाए गए हैं। दूसरे चरण में 2,542 मोबाइल टावर और लगाए जा रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार ने वामपंथी उग्रवाद के पीड़ित परिवारों के लिए मुआवजे को 2017 में 5 लाख से बढ़ाकर 20 लाख रुपये कर दिए और अब इसमें बढ़ोतरी करके 40 लाख रुपये कर दिए हैं। नक्सली फिर भी बाज नहीं आ रहे। तभी हारकर अब उनके खिलाफ ‘पुलिस टेक्नोलॉजी मिशन’ शुरू हुआ है। ताकि इनपर अंतिम प्रहार किया जाए। कांकेर मुठभेड़ उसी का हिस्सा है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)