– मुकुंद
केंद्र सरकार कोहिनूर हीरा को ब्रिटेन से वापस लाने के विकल्पों पर विचार कर रही है। ब्रिटिश महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के निधन के बाद इसे वापस लाने की मांग देश में जोर पकड़ रही है। कोहिनूर हीरा को वापस लाने के सवाल पर हाल ही में विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने 2018 में संसद में सरकार के दिए गए पुराने जवाब को दोहराया है। सरकार ने संसद में कहा था कि कोहिनूर को लेकर वह आम जनता और सदन की भावनाओं से अवगत है। समय-समय पर ब्रिटेन की सरकार के साथ कोहिनूर और अन्य ऐतिहासिक वस्तुओं की वापसी का मसला उठाया गया है। भारत सरकार इसके संतोषजनक समाधान की कोशिश करती रहेगी.
दरअसल1849 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने महाराजा दलीप सिंह से कोहिनूर हीरा ले लिया था। 1937 में पहली बार इसे ब्रिटेन की महारानी के मुकुट में जड़ा गया। माना जा रहा है कि अगले वर्ष 06 मई को ब्रिटेन की क्वीन कंसोर्ट कैमिला की रानी के तौर पर ताजपोशी के दौरान उन्हें कोहिनूर हीरा लगा ताज पहनाया जाएगा। इस पर देश (भारत के लोगों) को आपत्ति है। आपत्ति होनी भी चाहिए, क्योंकि ताजपोशी के लिए कोहिनूर हीरा का इस्तेमाल औपनिवेशिक काल की दर्दनाक यादें उभारेगा।
दमनकारी अतीत की यह स्मृतियां कैसे कोई भूल सकता है। देश की पांच-छह पीढ़ियों ने विदेशी शासकों के अत्याचारों को झेला है। ब्रिटेन की महारानी के इस ताज में 2,800 कीमती हीरे जड़े हैं। इनमें 105 कैरेट का बेशकीमती कोहिनूर हीरा भी जड़ा है। कोहिनूर को दुनिया में तराशे गए सबसे बड़े हीरों में एक माना जाता है। ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक, कोहिनूर हीरा हैदराबाद की गोलकुंडा की खान से निकाला गया था। यह कई मुगल और फारसी शासकों के पास भी रहा। गोलकुंडा की खान से और भी प्रसिद्ध हीरे निकले हैं। ब्लू होप (संयुक्त राज्य अमेरिका), गुलाबी डारिया-ए-नूर (ईरान), सफेद रीजेंट (फ्रांस), ड्रेसडेन ग्रीन (जर्मनी), और रंगहीन ओर्लोव (रूस) , निज़ाम और जैकब (भारत) हैं।
वैसे तो साल 1947 में आजादी मिलते ही भारत ने अंग्रेजों से कोहिनूर वापस मांगा था। कांग्रेस ने कहा था कि इसे पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भेज दिया जाए। भारत की मांग पर ब्रिटिश सरकार ने कहा था कि हीरा उसके असली मालिक, लाहौर के महाराजा की ओर से औपचारिक रूप से तत्कालीन संप्रभु महारानी विक्टोरिया को दिया गया था। कोहिनूर का मामला ‘नॉन-नेगोशिएबल’ है। यानी इसपर कोई मोलभाव नहीं हो सकता। बाद में पाकिस्तान ने भी 1976 में कोहिनूर पर दावा जताया। तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपने ब्रिटिश समकक्ष को लिखा- ‘मुझे आपको यह याद दिलाने की जरूरत नहीं कि हीरा पिछली दो सदियों में जिन हाथों से गुजरा है। 1849 में लाहौर के महाराजा संग शांति संधि में इसे ब्रिटिश राजघराने को देने का स्पष्ट जिक्र नहीं है।’ अफगानिस्तान ने 2000 में कोहिनूर पर दावा ठोककर दुनिया को हैरत में डाल दिया। तब तालिबान के विदेश मामलों के प्रवक्ता फैज अहमद फैल ने कहा था कि ‘हीरे का इतिहास बताता है कि यह हमसे छीनकर भारत को दिया गया और फिर वहां से ब्रिटेन को। हमारा दावा भारतीयों से ज्यादा मजबूत है।’
बहरहाल कोहिनूर कब भारत आएगा, यह अभी साफ नहीं है। मगर सरकार को प्रयास जारी रखने होंगे। देश को उम्मीद है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भगीरथ प्रयास कोहिनूर को भारत में लाकर रहेंगे। साल 2016 में एक एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल दायर कर कोहिनूर को वापस लाने की मांग की थी। तब तत्कालीन सॉलिसिटर जनरल रंजीत कुमार ने भारत सरकार की ओर से अदालत को बताया था कि कोहिनूर हीरा ‘रणजीत सिंह ने अंग्रेजों को सिख युद्धों में मदद के लिए दिया था। कोहिनूर चोरी की गई वस्तु नहीं है।’ इसके फौरन बाद इस मसले पर तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की अध्यक्षता में बैठक बुलाई गई। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने तब दावा किया कि सरकार कोहिनूर को वापस लाने की सारी कोशिशें कर रही है।
हालांकि उसने यह भी कहा था कि हीरा को वापस लाने का कोई कानूनी आधार नहीं है। सवाल यह खड़ा होता है कि अगर सुप्रीम कोर्ट आदेश दे भी दे या फिर सरकार ही कूटनीतिक रास्ते से कोहिनूर को वापस करने की मांग रखे तो क्या ब्रिटेन मान जाएगा। 2013 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन भारत आए थे। उन्होंने कोहिनूर को वापस लौटाने के सवाल पर कहा था -‘अगर हम ऐसी मांगें पूरी करने लगे तो पूरा ब्रिटिश म्यूजियम खाली हो जाएगा।’ इस पर तेलंगाना और उत्तराखंड हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस आरएस चौहान का कहना है कि इसी वर्ष मार्च में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दौरे के वक्त ऑस्ट्रेलिया ने 29 कलाकृतियां लौटाई हैं। लेकिन यह भी सच है कि जब तक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय कानूनों को दुरुस्त नहीं किया जाता तब तक असली हकदार को उसकी सांस्कृतिक कलाकृतियां पाने में काफी संघर्ष करना होगा। भारत अपने एंटिक्विटीज ऐंड आर्ट ट्रेजर एक्ट, 1972 में संशोधन करके इस दिशा में कदम आगे बढ़ा सकता है। यह कानून हमारी सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित रखने के लिए है।
वह कहते हैं कि कलाकृतियां उन संस्कृतियों की धरोहर होती हैं जो उन्हें पैदा करती हैं। ये संबंधित संस्कृतियों के पोषक नागरिकों की पहचान होती हैं। न्याय का तकाजा तो यही है कि चोरी की गई या लूटी गई संपत्ति उसके हकदार को लौटाई जाए।अगर लूट की संपत्तियां वापस नहीं की जाती हैं तो यह धारणा पुष्ट होगी कि अतीत में उपनिवेशों को कमतर मानने की दुर्बुद्धि अब भी खत्म नहीं हुई है। वही लोग अपने पूर्वजों की कलाकृतियां देखने से महरूम रहेंगे क्योंकि यूरोप-अमेरिका जाना तो उनके बूते की बात नहीं है।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)