Friday, November 22"खबर जो असर करे"

कनाडा विवाद, नये भारत का नजरिया

– प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल

भारत के घोषित आतंकवादी और कनाडा के नागरिक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत सरकार की भूमिका को लेकर कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो का बयान विश्व राजनीति में अद्भुत है और वैश्विक कूटनीतिक में उस पर सवाल भी उठे हैं। पर यह ध्यान रहे कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में प्रत्येक देश अपने हितों की चिंता करते हुए ही किसी के साथ खड़ा होता है। इसलिए जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वे कूटनीतिक हैं। जो हर देश के द्वारा भारत और कनाडा दोनों से अपने रिश्ते को बचा करके रखने के चिंतन के साथ है तो विश्व राजनीति में अपनी स्वतंत्र आवाज को प्रस्तुत करना भी है। कूटनीति में ऐसा ही होता भी है। पर भारतीय मीडिया विशेष कर अंग्रेजी मीडिया भी इसी प्रकार की कूटनीतिक रिपोर्ट ही प्रस्तुत कर रही है।

भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि निज्जर की हत्या में किसी भी रूप में कोई भारतीय अधिकारी या भारतीय एजेंट सम्मिलित नहीं है। यह खालिस्तानी आतंकवादियों के गैंगवार का परिणाम है। उसके बाद भी अंग्रेजी मीडिया द्वारा खालिस्तान उग्रवादियों पर की गई भारत सरकार की कार्रवाई का इतिहास निज्जर तक ले आते हुए भारत के अंदर ही भारत को अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन का दोषी सिद्ध करने की साजिश जैसा प्रतीत हो रहा है। जब जस्टिन ट्रूडो भारत को किसी प्रकार का सबूत देने में असफल रहे हैं और केवल खुफिया संकेतों के आधार पर अपने दृढ़ विश्वास से भारत को घेरने की कोशिश कर रहे हैं तो ऐसे में भारतीय खुफिया एजेंसियों को मोसाद के मोडस अपरेन्डी पर काम करने वाला बताने की जो मुहिम चल रही है वह निश्चित रूप से भारतीय पक्ष को गलत दिशा में ले जाएगा।

भारत सरकार के पक्ष को भारत के मीडिया में जिस प्रकार की जगह मिलनी चाहिए थी वह नहीं मिल रही है शायद भारत का मुख्यधारा मीडिया कहे जाने वाला अंग्रेजी मीडिया पश्चिम के सूचना और जनसंचार माध्यमों के अनुरूप रिपोर्ट परोसने में इतना सिद्धहस्त हो गया है कि उसे भारत में होने वाला विमर्श और भारतीय जन की प्रतिक्रियाएं प्रभावित नहीं करती हैं। निज्जर हत्याकांड में भारत की प्रतिक्रिया को कनाडा और पश्चिम के मीडिया द्वारा महत्वपूर्ण न माना जाना और उसकी अवहेलना किया जाना तो समझ में आता है कि वहां ऐसे किसी डिस्कोर्स को महत्व नहीं मिलेगा जो पश्चिम विशेषत: नाटो समूह के विपरीत हो। चिंताजनक तो यह है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य को भारत में भी मुख्यधारा मीडिया ने सही दृष्टि से नहीं प्रस्तुत किया। यह समय तो पश्चिम को विशेषतः नाटो देशों को आतंकवाद पर दोहरे मानदंड अपने के लिए आईना दिखाने का समय था, जिसको भारत के विदेश मंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में ठीक से कर दिखाया।

निज्जर वैसे ही भारत का घोषित आतंकवादी था जैसा ओसामा बिन लादेन, अल जवाहिरी अमेरिका के लिए थे। दुनिया के किसी भी देश ने लादेन और जवाहिरी को पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अमेरिका द्वारा मारे जाने को उन देशों की संप्रभुता का उल्लंघन नहीं बताया था। यही है आतंकवाद को लेकर दोहरा मापदंड और सुविधा के अनुसार आतंक को परिभाषित करने की राजनीति। निज्जर घोषित आतंकवादी था और भाग करके कनाडा गया था। कनाडा ने उसको नागरिकता दी तथा पंजाब में आतंकवाद जारी रखने के लिए सहूलियतें भी मिलीं। क्योंकि खालिस्तानी आतंकवादियों के समर्थन पर ही ट्रूडो की सरकार टिकी हुई है। निज्जर के प्रत्यर्पण की मांग भारत सरकार द्वारा लगातार की जा रही थी और उसके अपराधों के संबंध में सबूत से भरा डोजियर भी सौंपा गया था। लेकिन अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते कनाडा ने निज्जर को सौंपने से मना कर दिया था। दूसरा सच यह भी है कि कनाडा के गुरुद्वारों पर नियंत्रण और वर्चस्व को लेकर निज्जर का अपने प्रतिद्वंद्वी खालिस्तानी आतंकवादियों के साथ में संघर्ष चल रहा था।

तीसरा और महत्वपूर्ण तथ्य यह है की ऐतिहासिक रूप से कनाडा और भारत संबंध कनाडा के अलगाव पद आतंकवाद को भारत में घोषित करने तथा खालिस्तानी आतंकवादियों को संरक्षण देने का है। एयर इंडिया के विमान कनिष्क को गिराने की घटना में 268 कनाडाई नागरिक मारे गए थे पर कनाडा ने उसे पर कोई कठोर कार्रवाई नहीं की तथा लोगों की हत्या करने वाला समूह एक दो लोगों को 5 साल की सजा के साथ छूट गया।। आखिर अपने नागरिकों की रक्षा वाला तेवर कनाडा ने कनिष्क विमान को उड़ाये जाने के समय क्यों नहीं दिखाया था। उसका मुख्य आरोपी तलविंदर सिंह बराड़ तो कनाडा की न्याय प्रक्रिया में बाइज्जत हो गया। उसका भी भारत में प्रत्यर्पण नहीं हुआ तथापि 1992 में वह भारत में ही मारा गया। जबकि कनाडा की खुफिया एजेंसियों को उन आतंकियों के बारे में पुख्ता जानकारी थी और उसी के आधार पर गिरफ्तार करके मुकदमा चलाया गया था। वस्तुत खालिस्तान समर्थन और खालिस्तानी आतंकवादियों का संरक्षण लंबे समय से कनाडा की राजनीतिक मजबूरी है।

21वीं शताब्दी में एक नया भारत उभर रहा है जो अपने राष्ट्रीय हितों पर कोई समझौता नहीं कर सकता है। बेसिक राजनीति में दुनिया के किसी भी देश को किसी भी मंच पर सीधी और कड़ी बात सुनाने की कूटनीति नए भारत की कूटनीति है। आज भारत नखदन्त विहीन राष्ट्र के स्थान पर स्वाभिमानी तथा समस्त समर्थ राष्ट्र के रूप में देखा जाने लगा है। इसके विपरीत वैश्विक स्तर पर कनाडा लगातार कमजोर होता जा रहा है और आंतरिक राजनीति में सत्ताधारी दल की कमजोर स्थिति के कारण जस्टिन ट्रूडो खालिस्तान आतंकवादियों के समूह के सामने समर्पण कर चुके हैं। निज्जर के बहाने भारत पर कनाडा की संप्रभुता में हस्तक्षेप के आरोप लगाकर के ट्रूडो खालिस्तानी आतंकवादियों के समर्थन को पुख्ता करना चाहते हैं। यह उनकी घरेलू राजनीति की मजबूरी है। किंतु भारत के मुख्यधारा मीडिया कहे जाने वाले अंग्रेजी मीडिया की क्या मजबूरी है कि वह कनाडा ब्रॉडकास्ट कॉरपोरेशन द्वारा जारी की गई विज्ञप्तियों के आधार पर ही भारतीय पक्ष का मूल्यांकन कर रहा है।

प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के संसद में दिए गए बयान का सही भाषिक विश्लेषण न होना चिंतास्पद है। यह केवल अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की मान्य परंपराओं का उल्लंघन नहीं है अपितु कनाडा की संसद में महज अपने विश्वास के आधार पर भारत को दोषी ठहराना स्पष्ट रूप से शत्रुता के भाव से दिया गया बयान है। इसके साथ ही फाइव आइज देशों की प्रतिक्रिया को भी सही संदर्भ में देखा जाना जरूरी है। इन सब के बीच यह उभर करके आना ही चाहिए कि भारत सरकार ने भारत की संप्रभुता स्वाभिमान और कनाडा में रह रहे लाखों भारतीयों की सुरक्षा के मद्देनजर जो रास्ता अपनाया है वह एक जिम्मेदार राष्ट्र की भूमिका है। यह नरेटिव भारत की मुख्यधारा मीडिया में नहीं आया बल्कि पश्चिम की मीडिया के नरेटिव को ही भारत में परोसने का अभियान सा चल पड़ा।

निज्जर हत्याकांड में भारत की संलिप्तता का कोई भी सबूत देने में असफल जस्टिन ट्रूडो केवल खालिस्तान समर्थक राजनीतिक समूह के 15 सांसदों को संतुष्ट करने तथा कनाडा की 2.1 प्रतिशत सिख आबादी को अपने पक्ष में लाने के लिए प्रयासरत हैं। अमेरिका का भारत के विरुद्ध न जाते हुए भी कनाडा के साथ खड़ा होना मात्र नाटो संगठन के साथ खड़ा होना नहीं है अपितु कनाडा के प्राकृतिक संसाधनों की प्राप्ति तथा विश्व के सबसे बड़े बाजार भारत में अपनी स्थिति को संतुलित रखने का प्रयास है। कनाडा की संसद से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक ट्रूडो के शोर का कोई असर नहीं है बल्कि एक बात उभर करके सामने आई है कि भारत दुनिया के किसी भी देश के साथ संबंधों का निर्धारण अपने हित और सम्मान के आधार पर ही करेगा। विश्व राजनीति में भारत की यह एक नई इबारत है। यह मजबूत राष्ट्र की पहचान है। समाज और सक्षम राष्ट्र ऐसी स्थिति में सफाई नहीं देते बल्कि दृढ़तापूर्वक प्रतिकार करते हैं। भारत इस दिशा में बढ़ रहा है और यह जनसंचार माध्यमों में भी प्रखरता से आना चाहिए।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के निवर्तमान कुलपति एवं प्रख्यात दर्शनशास्त्री हैं।)