– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
राजनीति में व्यक्ति की निजी छवि का असर कितना, कितनी दूर तक और कितनी जल्दी पड़ता है इसका जीता जागता उदाहरण इंग्लैंड में कंजरवेटिव पार्टी के नेता भारतवंशी ऋषि सुनक की ताजपोशी से देखा जा सकता है। कंजरवेटिव पार्टी का दावा है कि वह यूरोप की सबसे पुरानी पार्टी है। इस पार्टी के जन्म के तार ‘टोरी’ गुट से से जुड़े हैं। यह गुट 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रकट हुआ था। कुछ माह पहले यही टोरी कमजोर पड़ रहे थे। लेबर पार्टी की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। सुनक के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही बदलाव शुरू हो गया है। पिछले कुछ सालों में कंजरवेटिव पार्टी अर्थात टोरियों को लेकर यूएस में लोगों में निराशा आई। देश संकटों से घिरा। दरअसल ब्रेक्जिट का निर्णय कहीं न कहीं यूरोपीय देशों को सुहाया नहीं है । तभी से इंग्लैंड के सामने चुनौतियों का पहाड़ भी खड़ा हुआ है।
कोढ़ में खाज यह कि कोरोना के दुष्प्रभाव, आर्थिक मंदी, टोरियों में मतभेद, एकजुटता में कमी, महंगाई, रूस और यूक्रेन युद्ध के कारण देश के हालात बिगड़ते ही चले गए। रही सही कसर 45 दिन के ट्रस के शासन ने पूरी कर दी। ट्र्स के बजटीय निर्णयों ने हालात को और अधिक तेजी से बिगाड़ा। आखिरकार उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा। सुनक के भारतीय मूल के होने से देश में खुशी का माहौल है। प्रतिक्रिया में इसे राष्ट्रीय गौरव के रूप में देखा गया। भारतीय मूल के लोगों में जैनेटिक गुण होता है कि वे फैसलों में पक्षपात नहीं करते। अपनों पर निर्णय करने से पहले दस बार सोचते हैं। इसलिए भारतीयों को अपने इस जैनेटिक गुण के कारण गर्व भी करना चाहिए।
ऋषि सुनक से भारत के पक्ष में आंख बंदकर निर्णय करने की गलतफहमी किसी को नहीं पालनी चाहिए। खैर यह विषयांतर ही होगा। पर इतना स्पष्ट है कि आज इंग्लैंड ही नहीं भारत सहित दुनिया के देश सुनक की ओर आशा की नजर से देख रहे हैं। इसका बड़ा कारण भी है। कोरोना की महामारी से दुनिया के तमाम देशों ने सबक नहीं लिया है। रूस-यूक्रेन युद्ध इसका उदाहरण है। कई देश आर्थिक मोर्चे पर जूझ रहे हैं। आपसी तनाव, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव, दावानल और आतंकवादी गतिविधियों से दो चार हो रहे हैं। खाद्यान्न संकट अलग है। ऐसे हालात में कुछ अधिक हासिल करना बड़ी बात होगी।
ऋषि सुनक के आने के बाद एक सप्ताह में ही इंग्लैंड में कंजरवेटिव पार्टी पर लेबर पार्टी की 27 अंक की बढ़त घटकर 16 फीसदी रह गई है। यह तब है जब सुनक ने सही तरीके से काम करना ही शुरू नहीं किया है। देश के 28 फीसदी लोग टोरियों को पसंद कर रहे हैं। कुछ समय में ही यह आकंडा 23 फीसदी से बढ़कर 28 प्रतिशत हुआ है। लेबर पार्टी की लोकप्रियता का ग्राफ 50 प्रतिशत से घटकर 44 प्रतिशत पर आ गया है। इससे दो बातें साफ हो जानी चाहिए कि पिछले कुछ माह में टोरियों ने खोया ही खोया है तो सुनक के आने के बाद कुछ पाने की शुरुआत होने लगी है। करीब दो माह पहले सुनक को पीछे छोड़ते हुए ट्रस प्रधानमंत्री बनी थीं। उन्होंने लोगों की आशाएं बहुत जगाई थीं पर केवल 45 दिनों में ही पूरी तरह से विफल होकर मजबूरन पद छोड़ गईं। न चाहते हुए भी आखिरकार सुनक को चुनना पड़ा।
अब सुनक के सामने अपनी पार्टी और देश का आर्थिक मोर्चों पर आगे बढ़ाने का दोहरा संकट है। जहां पार्टी में एकजुटता बनाना बड़ी चुनौती है तो विदेश नीति को लेकर भी बड़ी चुनौती है। अभी तक रूस-यूक्रेन युद्ध में इंग्लैंड आंख बंदकर अमेरिका के साथ है। इसी तरह से उत्तरी आयरलैंड से व्यापार को लेकर भी समाधान खोजना होगा। भारत और इंग्लैंड मुक्त व्यापार समझौता भी एक अहम मुद्दा है। हिन्दुस्तानी सोच से देखें तो यह सकारात्मक हो सकता है पर वहां के माहौल के अनुसार इसे समस्या के रूप में ही देखा जा रहा है।टोरियों के प्रति आमजन की सोच में सकारात्मक बदलाव के बावजूद यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि इंग्लैंड के हालात सुधर जाएंगे या सुनक की नीतियां सफल होंगी। बावजूद इसके यह साफ है कि लोगों को सुनक से और भी बहुत आशाएं हैं।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)