Friday, November 22"खबर जो असर करे"

हिन्दू होने के मायने

– वीरेन्द्र सिंह परिहार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने पिछले दिनों मेघालय में कहा था कि हिन्दू बनने के लिए यह जरूरी नहीं कि कोई अपना धर्म बदले। हिमालय के दक्षिण में हिन्द महासागर के उत्तर में और सिंघु नदी के तट के निवासियों को परम्परागत रूप से हिन्दू कहा जाता है। मुगलों और ईसइयों के पहले भी हिन्दू अस्तित्व में थे। हिन्दू धर्म नहीं, बल्कि जीवन जीने का तरीका है। जब आरएसएस हिन्दुत्व की बात करता है तो वह जीवन जीने की इसी तरीके की बात करता है। संघ धर्म विशेष भी बात नहीं करता। हिन्दू शब्द उन सभी को अपने आप में शामिल करता है जो भारत माता के पुत्र हैं। भारतीय पूर्वजों के वंशज हैं और जो भारतीय संस्कृति के अनुसार आचरण करते हैं। भारत में रहने वाले किसी भी भारतीय को हिन्दू बनने के लिए धर्म बदलने की आवश्यकता नहीं है। उल्लेखनीय है कि संघ प्रमुख भागवत इन दिनों मुस्लिम बुद्धिजीवियों और प्रमुख लोगो के साथ हिन्दू-मुस्लिम एका की दृष्टि से सतत संवाद भी कर रहे हैं।

इस विचार मंथन में यह बताने की जरूरत नहीं कि हिन्दू किसी पंथ या मजहब का पर्यायवाची नहीं, अपितु यह भौगोलिक एवं संस्कृति बोधक शब्द है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी इस बात की पुष्टि कर चुका है। वैसे भी हिन्दू शब्द की व्युत्पत्ति सिंधु शब्द से हुई है। यानी की विदेशियों के अनुसार ई. सदी के आरंभ में जो लोग सिंधु नदी के इधर रहने वाले थे, वह हिन्दू कहलाए। पुराणों में स्पष्ट रूप से कहा गया है- ‘‘आ सिंधु- सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका पितृभूः पुण्यभूश्चैव हिन्दूरिति स्मृतः।’ कहने का आशय यह कि सिंधु नदी से लेकर समुद्र पर्यन्त की भारत भूमि जिसकी पितृभूमि एवं पुण्यभूमि है, वहीं हिन्दू है। निष्कर्ष यह है कि हिन्दू शब्द राष्ट्रीयता का पर्याय है। वैसे भी हिन्दुओं के खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाजों में पर्याप्त विभिन्नताएं हैं, इस्लाम, ईसाई, यहूदी की तरह वह एक किताब एवं एक पैगम्बर से नियंत्रित नहीं है। यहां तक कि हिन्दुओं में नास्तिक पंथ भी शामिल है। इसी को दृष्टिगत रखते हएु कभी भारत के विदेश मंत्री रह चुके मोहम्मद करीम छागला ने कहा था- ‘‘मै उपासना पद्धति से मुसलमान और वंश से हिन्दू हूं।’’ कभी जोश मलीहाबादी ने मुसलमानों को संबोधित करते हुए लिखा था – ‘‘सबसे पहले मर्द बन हिन्दुस्तान के वास्ते, हिन्दुस्तान उठे तो सारे जहां के वास्ते।’’

कहने का तात्पर्य यह कि राष्ट्र पहले और मजहब बाद में। स्वामी विवेकानन्द अथर्ववेद की इस बात पर बहुत जोर देते थे-एक सतः बहुधा वंदन्ति विप्राः। यानी की सत्य एक है, विद्वान उसकी विभिन्न रूपों में व्याख्या करते हैं। इसलिए हमारी परंपरा में कोई किसी भी पंथ को मानने वाला हो, सार रूप में सभी एक ही है। यह भी सच है कि हमारे देश में अनेक पंथ के लोग हैं, पर उनकी संस्कृति एक होगी, तभी सच्चे अर्थों में वह राष्ट्र के नागरिक कहला सकेंगे। वस्तुतः संस्कृति किसी राष्ट्र की प्रकृति होती है। विविधता में एकता और एकता का विभिन्न रूपों में प्रकट होना ही हमारी संस्कृति का केन्द्रीय भाव है। इसी अंतमुक्त एकता के आधार पर भारतीय संस्कृति यह उद्घोषित करती है- ‘‘एको अहम द्वितीया नास्ति।’’ यानी हम एक हैं, दूसरा कोई है ही नहीं। जैसा कि तुलसीदास ने लिखा-‘‘सब प्रभुमय देखति जगत केहि सन करहिं विरोध।’’ इसीलिए पंथ, सम्प्रदाय, अथवा पूजा-पद्धति के आधार पर किसी से विरोध करने की हमारी संस्कृति जो हिन्दुत्व का पर्याय है, उसकी प्रवृत्ति ही नहीं है।

इस तरह से पंथ एवं पूजा-पद्धति तो अलग-अलग हो सकते हैं और भी तमाम विभिन्नताएं हो सकती हैं। लेकिन यदि किसी राष्ट्र की संस्कृति में विभिन्नताएं हैं तो इसका तात्पर्य यह कि राष्ट्र के नागरिकों के आदर्श अलग-अलग हैं। जबकि हमारी महान परंपराए, गौरवशाली इतिहास, हमारे महापुरुष सभी राष्ट्र के नागरिकों की विरासत है। तभी तो 24 जनवरी 1948 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के बुद्धजीवियों एवं छात्रों से पूछा- ‘‘मैने कहा कि मुझे अपनी विरासत पर तथा अपने उन पूर्वजों पर गर्व है, जिन्होंने भारत को एक बौद्धिक एवं सांस्कृतिक उत्कर्ष प्रदान किया है। आप इस अतीत के बारे में कैसा महसूस करते हैं? क्या आप महसूस करते हैं कि आप भी इसके साझीदार हैं एवं इसके वारिस हैं। परिणामस्वरूप मेरे साथ ही साथ आपके पास भी विरासत के रूप में जो कुछ है, क्या उस पर आपको गर्व होता है, अथवा आप अपने को बेगाना समझते हैं?’’

काश, अब देश के मुसलमानों और ईसाइयों को यह एहसास हो जाए कि किन्हीं परिस्थितियों के चलते उन्होंने अपनी पूजा पद्धति अथवा पंथ बदल दिया है, लेकिन उनके पूर्वज वहीं हैं, जो हिन्दुओं के हैं, उनकी परम्पराएं और आदर्श भी वहीं है। जैसा कि एक बार इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो से किसी ने पूछा कि आप और आपके देश के लोग मुसलमान होकर भी हिन्दू प्रतीकों से जुडे़ नाम क्यों रखते हैं, तो डॉ. सुकर्णो का जवाब था कि पूजा-पद्धति बदलने से पूर्वज नहीं बदलते। इसी तरह से ईरानी मुसलमान भी रुस्तम और सोहराब को अपना राष्ट्रीय नायक मानते है, जबकि ये दोनों ही मुसलमान नहीं थे। कहने का तात्पर्य यह है कि इस देश के मुसलमान एवं ईसाई अधिकतर हिन्दुओं से ही धर्मांतरित है। इस तरह से वह सांस्कृतिक रूप से हिन्दू ही हैं और राम, कृष्ण, शंकर तथा दूसरे महापुरुष उनके भी नायक एवं आदर्श होने चाहिए।

जिन लोगो को सरसंघचालक की बात से आपत्ति है, उन्हे विवेकानन्द की इस चेतावनी को ध्यान में रखना चाहिए-जब भी एक हिन्दू अपने धर्म का परित्याग करता है तो राष्ट्र का एक शत्रु बढ़ जाता है। अब सोचने का विषय यह कि जो विवेकानन्द यह कहते थे कि नए भारत के निर्माण के लिए हिन्दुत्व की आत्मा और इस्लाम का शरीर चाहिए, क्या वह इस्लाम अथवा किसी और भी मजहब के विरोधी हो सकते हैं? पर सच्चाई यही है कि इस देश में रहने वाला कोई भी यदि राष्ट्रीयता और संस्कृति की दृष्टि से हिन्दू नहीं है, तो यह देश के लिए अहितकारी है।

अंत में ऐसे हिन्दू विरोधियों और वोट बैंक के सौदागरों को स्वामी विवेकान्द की यह बात बताना उचित होगा- ‘‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं।’’ वह किसी के विरुद्ध नहीं,बल्कि जो अपने को हिन्दू कहते हैं, उन्होंने विश्व को ऐसा दर्शन दिया, जो व्यापक है, वैश्विक है, जो संकीर्ण नहीं है, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आच्छादित कर सकता है। आज देश की ज्वलंत सच्चाई यही है कि हिन्दुत्व ही सभी चुनौतियों का समाधान है। क्योंकि हिन्दुत्व ही वह रसायन है, जो सभी देशवासियों को भावात्मक रूप से जोड़ सकता है, और हमारी सोच को एक सामूहिक दिशा में ले जा सकता है। जैसा कि हमारा प्राचीन आदर्श रहा है- ‘‘हम सभी मिलकर चलें, सभी एक स्वर में बोलें तथा एक समान मत वाले होकर विचार करें, जैसा कि प्राचीन समय में देवता किया करते थे।’’

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)