Friday, November 22"खबर जो असर करे"

समाजिक समरसता और सद्भाव का उत्सव है होली

– सुरेन्द्र किशोरी

होली एक ऐसा उत्सव है जिसका नाम सुनते ही क्या बूढ़े, क्या बच्चे, क्या पुरुष क्या महिला, सबके मन में उमंग हिलोरे मारने लगती है। वसंत ऋतु के इस महत्वपूर्ण उत्सव में हर कोई एक दूसरे को रंग देना चाहता है। यह रंग सिर्फ बाहरी रंग नहीं, बल्कि मन के अंदर का भी रंग होता है। होली एक ऐसा उत्सव है जो बुराइयों को भस्म कर हंसी-खुशी का वातावरण बनाने का संदेश देता है। इसमें अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, छोटे-बड़े जैसी सारी दूरियां सिमट जाती हैं, समरसता और सद्भाव का सुन्दर वातावरण विनिर्मित होता है।

यह मनोविनोद के सहारे मनोमालिन्य मिटाने का उत्सव है। यह आपस के मनमुटाव को भुलाकर एक-दूसरे के गले मिलने का पर्व और उत्सव है। होली शुचिता, स्वच्छता, समता, ममता, एकता का पर्व है। समय की मांग है कि आज प्रत्येक व्यक्ति होली का दर्शन समझे, कम से कम स्वयं गंदगी नहीं करने और गंदगी नहीं होने देने का संकल्प अपने जीवन में उतार ले। यदि ऐसा होता है तो होली पर्व मनाना सार्थक हो जाएगा। होली का दर्शन होलिका दहन की कथा सर्वविदित है।

हिरण्यकश्यप ने भगवान से ऐसा विचित्र वरदान प्राप्त कर लिया था कि वह अपने को अजेय, अमर मानने लगा। उसका अहंकार इतना बढ़ गया कि स्वयं को ही भगवान घोषित कर दिया और अपने साम्राज्य में भगवान की भक्ति पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन भगवान की लीला ऐसी हुई कि स्वयं उसके पुत्र प्रहलाद ने ही इस अहंकार को तोड़ा। भगवान श्रीहरि विष्णु के प्रति अनन्य आस्था रखने वाला प्रहलाद हर क्षण अपने नारायण की भक्ति में डूबा रहता था।

प्रहलाद की ईश्वर भक्ति प्रजा में हिरण्यकश्यप की इच्छा के विपरीत संदेश दे रही थी। इसलिए उसने प्रहलाद को मारने के कई उपाय किए, लेकिन ईश्वर की कृपा से वह मरा नहीं। अंत में होलिका की गोद में प्रहलाद को बिठा कर उसे भस्म करने के प्रयास किया गया। लेकिन भगवान की लीला हुई कि होलिका भस्म हो गई और प्रहलाद नारायण-नारायण कहते हुए धधकती लपटों के बीच से बाहर आ गए।

प्रहलाद और हिरण्यकश्यप के कहानी की दृष्टि से देखा जाए तो होली का सबसे बड़ा संदेश अहंकार पर आस्था और असुरता पर देवत्व का विजय है। जिसके मन में अपने सृजेता के प्रति गहन आस्था है, जो उसे सर्वव्यापी और न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन के अनुरूप जीवन जीता है, उसके मन में सदैव ईश्वर का वास होता है। बड़ी से बड़ी कठिनाई और चुनौती उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाती है। प्रहलाद प्रतीक है सत्य, ईश-निष्ठा, सद्गुणों का, जो हर चुनौती और कठिनाइयों के बीच भी सुरक्षित रहता है।

हिरण्यकश्यप एवं होलिका प्रतीक है असुरता, अहंकार, अवगुण, आतंक के, जिन्हें ईश्वरीय वरदान भी बचा नहीं सकते। होली मानव काया में बैठे इस प्रहलाद को जगाने का पर्व है। यह अंतःकरण में ईश्वर के प्रति विश्वास को दृढ़ता प्रदान करता है। कहा जाता है कि कुम्हार के जलते भट्ठी से एक बिल्ली के बच्चे को सुरक्षित निकलते देखकर प्रहलाद के मन में यह विश्वास दृढ़ हुआ था कि होलिका की अग्नि उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी। उसी तरह होली लोगों में आध्यात्मिक आस्थाओं को जगाने का पर्व है।

यह विश्वास जगाने का पर्व है कि यदि मन निर्मल हो, इंसान सच्चाई और अच्छाई का रास्ता अपना ले तो संसार की बड़ी से बड़ी चुनौतियों के बीच भी वह भय और तनाव रहित उत्कृष्ट जीवन जी सकता है। होली की प्रमुख प्रेरणा अंतःकरण को निर्मल कर, ईश्वर के न्यायकारी स्वरूप एवं संरक्षण पर दृढ़ विश्वास रखते हुए आदर्शोन्मुख जीवन जीने की है। आज लौकिक जीवन में यह पर्व सामाजिक स्वच्छता और मानवीय एकता व समरसता को प्रोत्साहित करता दिखाई देता है। यह उसके मूल उद्देश्य की ही पूरक प्रेरणाएं हैं।

हृदय निर्मल होगा तो सामाजिक गंदगी रह ही नहीं सकती और सामाजिक स्वच्छता का अभियान चलाना मानवीय भावनाओं के परिष्कार का ही अभियान है। समाज में अनेक प्रकार की बुराइयां विद्यमान हैं। विडंबना यह है कि जो पर्व सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए मनाया जाता है, उसी पर्व की परम्पराओं में अनेक विसंगतियां जुड़ गई हैं। अच्छा हो कि अवांछनीय परम्पराओं के विरुद्ध जनजागरण अभियान को प्रखर किया जाए और स्वस्थ परम्पराओं के साथ इसे मनाते हुए राष्ट्रीय उत्थान एवं मानवता के कल्याण के प्रयास किए जाएं।

अखिल विश्व गायत्री परिवार सहित अन्य संगठन देश के हर हिस्से में नशामुक्ति, अश्लीलता निवारण, अस्वच्छता निवारण, नारी स्वाभिमान जैसे अनेक अभियान पूरे जोश और उल्लास के साथ प्रभावशाली ढंग से चला रहा है। समय रहते सक्रियता अपनाई जाए तो हम पर्व की प्रेरणाओं को और भी प्रखरता के साथ समाज के समक्ष प्रस्तुत कर सकते हैं। होली के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण का संदेश दिया जाना चाहिए। देखा गया है कि अनेक स्थानों पर होलिका दहन के लिए जलाऊ लकड़ी बड़ी मात्रा में मोल खरीदी जाती है।

अच्छा हो कि होली का आकार बड़ा करने की होड़ नहीं लगाई जाए, मूल्यवान जलाऊ लकड़ी का कम और अवांछनीय कूड़े-करकट का प्रयोग अधिक से अधिक मात्रा में किया जाए। इसे घर-घर से इकट्ठा करने का अभियान पुराने समय की तरह चलाया जाए। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी यही आदर्श परम्परा रही है। घरों से चोरी कर लकड़ी या फर्नीचर लाना और होलिका में रख देना भी समय के साथ पनपी एक बुराई है, जिसे नहीं अपनाया जाना चाहिए।

संभव हो तो होलिका पूजन के समय पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करने के लिए हरीतिमा पूजन का क्रम जोड़ा जाए। होलिका दहन से पूर्व देववृक्षों से युक्त गमले रखकर उनका पूजन किया जा सकता है। गौसंवर्धन मूल्यवान लकड़ी जलाने की अपेक्षा कंडा (गोयठा) की समिधाओं का प्रयोग किया जा सकता है। इससे गौधन की उपयोगिता बढ़ाने और परोक्ष रूप से गौसंवर्धन करने का संदेश समाज में जाएगा।

होली के दौरान अश्लीलता भी बढ़ती जा रही है। पहले लोग किसी को भी जब रंग अबीर लगाते थे तो इसमें अपनत्व और प्यार का भाव होता था। लेकिन आज उसका भाव बदल गया है। पुरुष द्वारा महिलाओं को रंग अबीर लगाने में कामुकता का भाव आ गया है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो महिलाओं को रंग लगाते समय जबरदस्ती और उनके नाजुक अंगों से छेड़छाड़ करने से पीछे नहीं हटते। अश्लीलता समाज में आधुनिकता के नाम पर बढ़ती अश्लीलता एक सामाजिक बुराई है।

अच्छा हो कि विवेक बुद्धि अपनाने की बजाय प्रवाह में बहने वाले समाज को कामुकता और कुसंस्कारों से बचाया जाए। स्वतंत्रता का अधिकार सभी को है, लेकिन ऐसी स्वच्छंदता जो समाज पर दुष्प्रभाव डाले, उसे उचित नहीं माना जा सकता। आज जब हम गौमाता के सम्मान की लड़ाई लड़ रहे हैं तो अपनी मां-बहनों के सम्मान का ध्यान तो रखा ही जाना चाहिए। होली मनाने के समय भाभियों, सालियों के साथ भद्दे मजाक, फूहड़ गीत, गाली-गलौज की जो परम्परा चल पड़ी है, उसे रोका जाना चाहिए।

होली के बहाने होने वाले अश्लीलता के इस कुचक्र को तोड़ना होगा। क्योंकि अश्लीलता की प्रवृत्ति एक भयानक विषबेल की तरह अपना प्रभाव दिखा रही है। एक पतली सी बेल, जिसमें वृक्षों, पौधों की तरह अपने बूते खड़े होने की क्षमता भी नहीं है। भूमि पर फैलती हुई इतने विषैले फल पैदा कर दे रही है कि समाज के एक बड़े सभ्य वर्ग के लिए संकट पैदा कर रहे हैं। वर्तमान समय में सभ्य समाज को कलंकित करने वाले ढेरों दुष्कृत्य अश्लीलता की विषबेल से ही उपज रहे हैं। पुरुष के पुरुषार्थ को पंगु बनाना, नारी का नारकीय उत्पीड़न करना तथा परिवार और समाज की गरिमा पर हो रहा चोट इसी का तो दुष्परिणाम है।

समाज की सुख-शान्ति और राष्ट्र की प्रगति-समृद्धि सद्गुणों पर निर्भर है, सदगुण अध्यात्म की बुनियाद हैं। यदि यह जीवन में प्रतिष्ठित हो जाएं तो सफलता और सिद्धियों के द्वार सहज ही खुलते चले जाते हैं। अंतःकरण निर्मल हो तो ईश्वर से कुछ मांगने की आवश्यकता ही नहीं है। निर्मल मन में साक्षात ईश्वर का वास होता है। ऐसे हृदय में ईश्वरीय अनुदान सहज रूप से प्रवाहित होने लगते हैं। होली के अवसर पर विभिन्न प्रकार का नशा कर हुड़दंग मचाना युवाओं का स्टेटस सिंबल बनता जा रहा है। होली जैसे पवित्र पर्व पर शराब पीकर हुड़दंग करना उचित नहीं देखा गया है। नशा समाज में प्रेम और सद्भाव बढ़ाने की बजाय तरह-तरह के विवाद ही बढ़ाता है। इससे बचना, बचाना जाना चाहिए। इसके लिए नशा उन्मूलन आंदोलन को गतिशील बनाना होगा।

क्योंकि यह पूतना नई पीढ़ी के बच्चों को सुख देने के बहाने विषपान कराकर नष्ट कर रही है, इसका वध तो करना ही होगा। नशा रुपी होलिका युवाओं को प्यार से अपनी गोद में बिठाकर कामांगी में भस्म करने का कुचक्र रच रही है, इस कुचक्र को भी जल्दी से तोड़ना होगा। क्योंकि इस राक्षसी प्रवृत्ति ने शिष्ट परिवारों और सभ्य समाज की गरिमा को ध्वस्त कर देने का कुचक्र रच दिया है। होली पर्व मन की मलिनता तथा सामाजिक अवांछनीयताओं को दूर करने की प्रेरणा देता है। इस कार्य के लिए छोटे-मोटे नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर के बड़े अभियान चलाने की आवश्यकता है।