Friday, November 22"खबर जो असर करे"

राष्ट्रवाद पर सदैव अटल

– डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्र ने पहली बार सुशासन को देशभर में क्रियान्वित होते देखा। अटल जी के प्रधानमंत्रितत्व कार्यकाल में देश ने पहली बार सुशासन को चरितार्थ होते देखा। जहां एक ओर उन्होंने सर्व शिक्षा अभियान, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और राष्ट्रीय राजमार्ग विकास परियोजना जैसे विकासशील कार्य किए, वहीं दूसरी ओर पोखरण परीक्षण एवं कारगिल विजय से मजबूत भारत की नींव रखी। अटल बिहारी वाजपेयी अजातशत्रु थे। इसका कारण यह था कि उन्होंने सदैव सिद्धान्तों को महत्व दिया। किसी के प्रति उनका व्यक्तिगत रागद्वेष नहीं था। विपक्ष और सत्ता धर्म दोनों का उन्होंने बखूबी निर्वाह किया। वह कांग्रेस की जम कर आलोचना करते थे, लेकिन जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया तो वह कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के साथ खड़े हुए। आज के नेताओं को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। अटल जी के योगदान को देश कभी नहीं भुला पाएगा। भारत को उन्होंने परमाणु शक्ति बनाया। एक नेता के रूप में, सांसद के रूप में, मंत्री के रूप में और प्रधानमंत्री के रूप में अटल जी हमेशा सभी के लिए आदर्श रहे हैं।

भारत के विकास एवं लोगों के लिए वाजपेयी का अतुलनीय योगदान हमेशा याद किया जाएगा और देश के लिए उनकी दूरदृष्टि आगामी पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी। विपक्ष और सत्ता धर्म दोनों का उन्होंने बखूबी निर्वाह किया। वर्तमान में केंद्र और प्रदेशों की भाजपा सरकारें सुशासन के मार्ग का अनुसरण कर रहीं हैं। भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का देश बन गया है। तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की दिशा में अग्रसर हो रहा है। आत्मनिर्भर भारत अभियान प्रगति पर है। इस अवधि में सांस्कृतिक राष्ट्रभाव का जागरण हो रहा है। सदियों से चल रही समस्याओं का समाधान हो रहा है। दशकों से लंबित योजनाएं पूरी हुई हैं। सामरिक क्षेत्र में भारत अब निर्यातक बन गया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का महत्व और प्रभाव बहुत बढ़ा है। जी-20 की अध्यक्षता में भारत ने नया अध्याय जोड़ा है। अटल बिहारी वाजपेयी ऐसा ही शक्तिशाली भारत बनाना चाहते थे। भारत को उन्होंने परमाणु शक्ति बनाया। एक नेता के रूप में,सांसद के रूप में, मंत्री के रूप में और प्रधानमंत्री के रूप में अटल जी हमेशा सभी के लिए आदर्श रहे है। वह महान वक्ता अजातशत्रु, उदार लोकतांत्रिक मूल्यों के वाहक,राष्ट्रवादी कवि, कुशल प्रशासक थे।

राजनीति और राजनीति शास्त्र दोनों अलग क्षेत्र हैं। राजनीति में सक्रियता या आचरण का बोध होता है, राजनीति शास्त्र में ज्ञान की जिज्ञासा होती है। अटल बिहारी वाजपेयी ने इन दोनों क्षेत्रों में समान रूप से आदर्श का पालन किया। राजनीति में आने से पहले वह राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी थे। कानपुर के डीएवी कॉलेज में नई पीढ़ी भी उनकी यादों का अनुभव करती है। अटल जी उन नेताओं में शुमार थे, जिनके कारण किसी पद की गरिमा बढ़ती है। डीएवी में जाने पर अनुभूति होती है कि यहीं कभी अटल जी विद्यार्थी के रूप में उपस्थित रहते थे। कालेज के प्रथम तल पर कमरा नम्बर इक्कीस में वह बेंच पर बैठते थे। डीएवी कानपुर में अटल जी के गुरु रहे प्रोफेसर मदन मोहन पांडेय के निर्देशन में मुझे पीएचडी करने का सौभग्य मिला। अकसर बातचीत में वह अटल जी की चर्चा करते थे। इससे यह पता चला कि अटल जी बहुत होनहार विद्यार्थी थे, उनमें ज्ञान के प्रति जिज्ञासा थी। प्रोफेसर पांडेय के निर्देशन में पीएचडी करने के बाद शिक्षक के रूप में मेरी नियुक्ति इसी विभाग में हुई।

यहां प्रवेश करते ही अटल जी की फोटो दिखाई देती है। नीचे पूर्व प्रधानमंत्री नहीं,बल्कि पूर्व छात्र लिखा है। यहां बैठने पर ऊपर एक सूची पट्ट दिखाई देता है। उन्नीस सौ सैंतालीस पर नजर टिक जाती है। इसमें विद्यार्थी का नाम लिखा है-अटल बिहारी वाजपेयी… डिवीजन प्रथम, पोजिशन द्वितीय। यह वह समय था जब कानपुर विश्वविद्यालय अस्तित्व में नहीं था। डीएवी आगरा विश्वविद्यालय से संबंद्ध था। इतने बड़े विश्वविद्यालय में अटल जी ने उल्लेखनीय सफलता हासिल की थी। अटल जी ने राजनीति शास्त्र में एमए करने के बाद यहीं अगले वर्ष एलएलबी में दाखिला लिया था। सरकारी नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद उनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी लाल वाजपेयी ने भी विधि स्नातक करने का निर्णय किया था।

डीएवी छात्रावास में पिता-पुत्र एक ही कमरे में रहते थे। कभी पिताजी को देर होती तो अटल से पूछा जाता कि आपके पिताजी कहां हैं। जब अटल जी को देर हो जाती तो पिताजी से पूछा जाता आपके साहबजादे कहां हैं। लेकिन हंसी मजाक का यह दौर ज्यादा नहीं चला। एक वर्ष बाद ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से मिले दायित्व को संभालने के लिए अटल जी लखनऊ आ गए। विधि स्नातक की पढ़ाई पूरी नहीं हो सकी। अटल जी राजनीति शास्त्र में डिग्री हासिल करना चाहते थे। लेकिन उनके पिता आर्थिक रूप से खर्च वहन करने में असमर्थ थे। तत्कालीन राजा जीवाजी राव सिंधिया को जानकारी हुई तो उन्होंने वाजपेयी जी को छात्रवृत्ति देने की व्यवस्था की। छात्रवृत्ति लेकर कानपुर आए और डीएवी कॉलेज से राजनीति शास्त्र में परास्नातक किया। इस दौरान अटल जी को हर माह पचहत्तर रुपये मिलते रहे।

डीएवी में प्रोफेसर मदन मोहन पांडेय नियमित क्लास लेते थे। अटल जी छुट्टी नहीं लेते थे। लेकिन इतने मात्र से उनकी जिज्ञासा शांत नहीं होती थी। अटल जी कर्मयोगी थे। विद्यार्थी थे, तब ज्ञान प्राप्त करने में पूरी ऊर्जा लगा दी। पत्रकारिता में गए तो उसे भी पूरी क्षमता से अंजाम दिया। राजनीति में गए तो उच्च मर्यादाओं की स्थापना कर दी। उन्होंने उस दौर में राजनीति शुरू की थी, जब जनसंघ सत्ता की लड़ाई से बहुत दूर थी। माना जाता था कि यह पार्टी विपक्ष में रहने के लिए बनी है। इसके बाबजूद अटल जी जब बोलते थे, तब प्रधानमंत्री सहित जनसंघ के विरोधी भी ध्यान से सुनते थे। संख्या बल कमजोर था, लेकिन विचार मजबूत थे। शायद यही कारण था कि जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें भविष्य का प्रधानमंत्री बताया था।

सात दशक के राजनीतिक जीवन में उनका दामन बेदाग रहा। सत्ता मिली तब भी सहज रहे। सत्ता उद्देश्य नहीं बल्कि दायित्व था। विपक्ष में ही सत्तर वर्ष रहे, राष्ट्र के लिए वैसा ही समर्पण रहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने उन्हें भारत का पक्ष रखने के लिए जिनेवा भेजा था। अटल जी ने अपने इस दायित्व को बखूबी निभाया। वह अपने लिए नहीं देश और समाज के लिए जिये। उनका जीवन प्रेरणादायक है। अटल जी के राजनीतिक जीवन में लखनऊ का विशेष महत्व है। कानपुर डीएवी से शिक्षा पूर्ण करने के बाद वह लखनऊ आये थे। यहां उन्होंने राष्ट्रधर्म का सम्पादन किया। यह कार्य राष्ट्रभाव के मिशन का ही स्वरूप था। अटल जी ने इसके माध्यम से राष्ट्र व समाज की सेवा का व्रत लिया था। उनकी चुनावी राजनीति की दृष्टि से भी लखनऊ उल्लेखनीय पड़ाव था। यहां से वह चुनाव में पराजित भी हुए थे, लेकिन फिर एमपी से पीएम तक का सफर भी लखनऊ से ही तय किया था।

पूर्ण क्षमता, निष्ठा, ईमानदारी और मर्यादा के साथ दायित्व निर्वाह ही कर्म कौशल होता है। ‘योग: कर्म कौशलम’ इस अर्थ में अटल बिहारी वाजपेयी कर्मयोगी थे। राजनीति में ऐसे कम लोग ही हुए हैं जो कुर्सी नहीं, कर्म से महान बने। अटल जी ऐसे ही लोगों में से एक थे। अटल जी लगभग दशक भर से सार्वजनिक जीवन से दूर थे। किसी विषय पर उनका कोई बयान नहीं आता था। इसके बावजूद उनका मुख्यधारा में बने रहना अद्भुत था। बड़े-बड़े नेता उनके घर जाकर सम्मान की औपचारिकता का निर्वाह करते थे। अटल जी किसी पद के कारण महत्वपूर्ण नहीं थे। वैसे भी छह दशक के सार्वजनिक जीवन में वह मात्र आठ वर्ष ही सत्ता में रहे, इसमें तेरह दिन, तेरह महीने और फिर पांच वर्ष प्रधानमंत्री रहे। शेष राजनीतिक जीवन विपक्ष में ही बीता। लेकिन विपक्ष और सत्ता दोनों क्षेत्रों में उन्होंने उच्च कोटि की मर्यादा का पालन किया।

अटल जी का राजनीति में पदार्पण विपरीत परिस्थितियों में हुआ था। सम्पूर्ण देश में कांग्रेस का वर्चस्व था। संसद से लेकर विभिन्न विधानसभाओं में उसका भारी संख्याबल होता था। इसके अलावा आजादी के आंदोलन से निकले वरिष्ठ नेता कांग्रेस में थे। ऐसे में जनसंघ जैसी नई पार्टी और युवा अटल के लिए रास्ता आसान नहीं था। राजनीति जीवन का यह उनका पहला दायित्व था। जनसंघ के विचार अभियान में मुख्यधारा में पहचान बनाना चुनौती पूर्ण था। अटल जी में विलक्षण भाषण क्षमता थी। इसे उन्होंने राष्ट्रवादी विचारधारा से मजबूत बनाया।1957 में वह लोकसभा पहुंचे थे। सत्ता के संख्याबल के सामने जनसंघ कहीं टिकने की स्थिति में नहीं था। अटल जी ने यह चुनौती स्वीकार की। कमजोर संख्या बल के बाबजूद अटल जी ने जनसंघ को वैचारिक रूप से महत्वपूर्ण बना दिया। यहीं से राजनीति का अटल युग प्रारंभ हुआ। विपक्ष की राजनीति को नई धार मिली। अटल जी विपक्ष में रहे, उनके भाषण सत्ता को परेशान करने वाले थे, लेकिन किसी के प्रति निजी कुंठा नहीं रहती थी। पाकिस्तान के आक्रमण के समय उन्होंने विरोध को अलग रख दिया। सरकार को अपना पूरा समर्थन दिया। राजनीत की जगह उन्होंने राष्ट्र को महत्व दिया। आज विपक्ष सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाता है।

अटल जी सत्ता में आये तो लोककल्याण के उच्च मापदंड स्थापित कर दिए। विदेश मंत्री बने तो भारत का विश्व में गौरव बढ़ा दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी गुंजाने वाले पहले नेता बन गए। यह अटल जी का शासन था, जिसमें लगातार इतने वर्षों तक विकास दर सर्वाधिक बनी रही। अटल जी तीन बार देश के प्रधानमंत्री रहे। अटल जी सबसे पहले 1996 में तेरह दिन के लिए प्रधानमंत्री बने और बहुमत साबित नहीं कर पाने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। 1998 में अटल जी दूसरी बार प्रधानमंत्री बने। यह सरकार तेरह महीने ही चली क्योंकि सहयोगी दलों ने उनसे समर्थन वापस ले लिया था। 1999 में वह तीसरी बार प्रधानमंत्री बने थे। इस बार उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया। इतना ही नहीं उपलब्धियों का रिकार्ड बनाया। पोखरण में परमाणु परीक्षण का निर्णय अटल जी ने किया था। इस परीक्षण के बाद दुनिया के शक्तिशाली देशों ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध भी लगाए। अटल जी ने प्रतिबन्धों का डट कर मुकाबला किया। फिर ऐसा समय आया जब प्रतिबंध लगाने वाले देश भारत से संबन्ध सामान्य करने को आतुर हो गए।

अटल जी विश्व के भी महान नेता बन गए। वह जब विदेश मंत्री थे, तब दुनिया सोवियत संघ और अमेरिकी खेमे में विभक्त थी। अटल जी ने दोनों के बीच संतुलन स्थापित किया। जब वह प्रधानमंत्री बने तो विश्व की राजनीति बदल चुकी थी। सोवियत संघ का विघटन हो गया था। अटल जी ने इसमें भी भारत के अलग प्रभाव को बुलंद किया। पाकिस्तान से संबन्ध सुधारने के लिए बस यात्रा की। यह उनका उदार चिंतन था। लेकिन पाकिस्तान नहीं बदला। यह उसकी फितरत थी। देश के बड़े शहरों को सड़क मार्ग से जोड़ने की शुरुआत भी अटल जी के शासनकाल के दौरान हुई। पांच हजार किलोमीटर से ज्यादा की स्वर्णिम चतुर्भुज योजना को तब विश्व के सबसे लंबे राजमार्गों वाली परियोजना माना गया था। दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई व मुम्बई को राजमार्ग से जोड़ा गया।

अटल जी ने गांवों को सड़क से जोड़ने का काम शुरू किया था। उन्हीं के शासनकाल के दौरान प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना की शुरूआत हुई थी। इसी योजना से लाखों गांव सड़कों से जुड़े। इस योजना का प्रमुख उद्देश्य ग्रामीण इलाकों में पांच सौ या इससे अधिक आबादी वाले पहाड़ी और रेगिस्तानी क्षेत्रों में ढाई सौ लोगों की आबादी वाले सड़क-संपर्क से वंचित गांवों को मुख्य सड़कों से जोड़ना था। अटल जी के शासनकाल में ही भारत में टेलीकॉम क्रांति की शुरुआत हुई। स्पैक्ट्रम का आवंटन इतनी तेजी से हुआ कि मोबाइल के क्षेत्र में क्रांति की शुरुआत हुई। पाकिस्तान के घुसपैठियों ने कारगिल क्षेत्र में घुसपैठ कर भारत के बड़े क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। भारतीय सेना और वायुसेना ने पाकिस्तान के कब्जे वाली जगहों पर हमला किया। एक बार फिर पाकिस्तान को भागना पड़ा था। अटल जी अब हमारे बीच नहीं है। लेकिन अटल युग आज भी प्रासंगिक है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)