– योगेश कुमार गोयल
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने वर्ष 2021 में भारत में विभिन्न कारणों से आत्महत्याओं के मामलों को लेकर जो रिपोर्ट जारी की, वह बेहद डरावनी है। दरअसल देश में आत्महत्या के मामलों में हर साल बढ़ोतरी हो रही है और रिपोर्ट के मुताबिक हर रोज देशभर में 450 व्यक्ति आत्महत्या करते हैं। आत्महत्या के ये आंकड़े डराने वाले इसलिए भी हैं क्योंकि जहां वर्ष 2021 में पूरे देश में हुए करीब 4.22 लाख सड़क हादसों में कुल 1.73 लाख लोगों की मौत हुई, वहीं कम से कम 164033 लोगों ने तो आत्महत्या करके ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर डाली।
समाज विज्ञान के जानकारों के अनुसार बढ़ती महंगाई तथा आम आदमी की लगातार घटती कमाई आत्महत्या के मामले बढ़ने का प्रमुख कारण है। दरअसल कमाई कम होने या रोजगार नहीं होने के कारण लोगों में तनाव बहुत बढ़ गया है, जिससे बहुत से मामलों में पारिवारिक क्लेश पैदा होता है और परिणामस्वरूप आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं। वर्ष 2016 में जहां आत्महत्या के कुल 1064033 मामले दर्ज हुए थे और 2017 में 1.29 लाख लोगों ने आत्महत्या की थी, वहीं 2017 से 2021 तक ये मामले 26 फीसदी से ज्यादा बढ़कर 1.64 लाख से भी ज्यादा हो गए।
विशेषज्ञों के मुताबिक अवसाद और तनाव के कारण लोगों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही है और जब व्यक्ति को परेशानियों से बाहर निकलने का कोई रास्ता नजर आता, ऐसे में वह आत्महत्या जैसा हृदयविदारक कदम उठा बैठता है। हालांकि जिन लोगों का मनोबल मजबूत होता है, वे प्रायः विकट परिस्थितियों से उबर भी जाते हैं लेकिन अवसाद के शिकार कुछ लोग विषम परिस्थितियों से लड़ने के बजाय हालात के समक्ष घटने टेक स्वयं को मौत के हवाले कर देते हैं। आत्महत्या करने वालों में करीब 64 फीसदी यानी 1.05 लाख लोग ऐसे हैं, जिनकी वार्षिक आय एक लाख रुपये से कम थी।
एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक बीते वर्ष देश में कुल 164033 लोगों ने आत्महत्या की, जिनमें से 118979 पुरुष, 45026 महिलाएं और 28 ट्रांसजेंडर थे। आत्महत्या करने वाली आधी से भी ज्यादा 23178 गृहिणियां थी जबकि 5693 छात्राओं और 4246 दैनिक वेतनभोगी महिलाओं ने आत्महत्या की। गृहिणियों द्वारा आत्महत्या के सर्वाधिक मामले तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में क्रमशः 3221, 3055, 2861 दर्ज किए गए, जो गृहिणियों द्वारा की गई आत्महत्या के मामलों का क्रमशः 13.9, 13.2 और 12.3 फीसदी है। आत्महत्या के मामलों में महिला पीड़ितों का अनुपात दहेज जैसे विवाह संबंधी मुद्दों, नपुंसकता और बांझपन में अधिक देखा गया। पेशेवर समूहों में स्वरोजगार करने वालों में भी आत्महत्या के मामले करीब 16.73 फीसदी बढ़े हैं। देश में 2020 में आत्महत्या के कुल 153052 मामले दर्ज हुए थे और 2021 में आत्महत्या की दर में 7.2 फीसदी की वृद्धि दर्ज हुई।
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक 33.2 फीसदी लोगों ने पारिवारिक समस्याओं के कारण जबकि 18.6 फीसदी ने बीमारी के कारण मौत को गले लगाया। आत्महत्या के अन्य मुख्य कारणों में 6.4 फीसदी मादक पदार्थों का सेवन और शराब की लत, 4.8 फीसदी विवाह संबंधी मुद्दे, 4.6 फीसदी प्रेम प्रसंग, 3.9 फीसदी दिवालियापन या कर्ज, 2.2 फीसदी बेरोजगारी, 1.6 फीसदी पेशेवर कैरियर की समस्या, 1.1 फीसदी गरीबी और 1 फीसदी परीक्षा में असफलता शामिल रहे।
आत्महत्या करने वालों में 18-30 वर्ष से कम आयु वर्ग के 34.5 फीसदी और 30-45 वर्ष से कम आयु के 31.7 फीसदी लोग शामिल हैं जबकि 18 वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों में 3233 आत्महत्याएं पारिवारिक समस्याओं के कारण, 1495 प्रेम संबंध और 1408 बीमारी के कारण हुई। एनसीआरबी के मुताबिक आत्महत्या की सर्वाधिक प्रवृत्ति महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में देखी गई है। केवल इन पांच राज्यों में ही देशभर में आत्महत्या के कुल मामलों में से 50.4 फीसदी मामले दर्ज हुए जबकि 49.6 फीसदी मामले 23 अन्य राज्यों और 8 केन्द्रशासित प्रदेशों में सामने आए। पिछले एक साल में उपरोक्त पांच राज्यों में क्रमशः 22207, 18925, 14965, 13500, 13056 लोगों ने आत्महत्या की, जो कुल मामलों का क्रमशः 13.5, 11.5, 9.1, 8.2 और 8 फीसदी है। प्रति एक लाख की आबादी पर आत्महत्या के मामलों की राष्ट्रीय दर हालांकि 12 रही लेकिन कुछ राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में स्थिति बेहद चिंताजनक है। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में यह दर 39.7, सिक्किम में 39.2, पुडुचेरी में 31.8, तेलंगाना 26.9 और केरल में 26.9 दर्ज की गई।
एनसीआरबी की रिपोर्ट में दिहाड़ी मजदूरों और कृषि श्रमिकों की आत्महत्या के मामले भी मन को विचलित करने वाले हैं। रिपोर्ट में यह चिंताजनक खुलासा हुआ है कि देशभर में आत्महत्या करने वालों में सबसे ज्यादा 25 फीसदी लोग दिहाड़ी मजदूर ही थे। 2020 में जहां कुल 33164 दिहाड़ी मजदूरों ने जीवन की परेशानियों से निजात पाने के लिए आत्महत्या का रास्ता चुना, वहीं 2021 में कुल 42004 दिहाड़ी मजदूरों ने खुदकुशी की। कृषि क्षेत्र से संबद्ध कुल 10881 लोगों ने आत्महत्या की, जो कुल मामलों का 6.6 फीसदी है। इनमें 2019 में 5957 और 2020 में 5579 किसानों की आत्महत्या के मुकाबले यह आंकड़ा 2021 में कम होकर 5318 दर्ज हुआ लेकिन कृषि श्रमिकों में आत्महत्या की दर लगातार बढ़ रही है। 2021 में कुल 5563 कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की और उनकी आत्महत्या की दर 2020 के मुकाबले 9 फीसदी और 2019 के मुकाबले 29 प्रतिशत अधिक रही। बीते वर्ष के दौरान हर दो घंटे में कम से कम एक कृषि श्रमिक ने मौत को गले लगाया।
एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, किसान वह है, जिनका व्यवसाय कृषि है और जो अपनी जमीन पर खेती करते हैं या पट्टे की जमीन पर बिना कृषि मजदूरों की मदद के खेती करते हैं जबकि कृषि श्रमिक वे हैं, जो मुख्यतः कृषि क्षेत्र में काम करते हैं और उनकी आय का स्रोत कृषि मजदूरी है। एनसीआरबी की रिपोर्ट में कहा गया है कि विगत दो वर्षों के दौरान जब कई आर्थिक गतिविधियां बंद हो गई और शहरों से गांवों की ओर पलायन हुआ, तब कई दिहाड़ी मजदूरों ने कृषि श्रमिक के रूप में भी काम किया क्योंकि उनके आय के अन्य स्रोत बंद थे।
अपनी रिपोर्ट में एनसीआरबी ने आत्महत्या की घटनाओं के पीछे पेशेवर या कैरियर संबंधी समस्याओं, अलगाव की भावना, दुर्व्यवहार, हिंसा, पारिवारिक समस्याओं, मानसिक विकार, शराब की लत, वित्तीय नुकसान, पुराने दर्द इत्यादि को मुख्य कारण माना है। हालांकि आत्महत्या के मामलों का विश्लेषण करें तो सर्वाधिक चिंता देश के युवा वर्ग और 18 वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति को लेकर होती है। मनोचिकित्सकों का मानना है कि वर्तमान में भागदौड़ भरी जिदगी में लोग अक्सर मानसिक तनाव में रहते हैं और तनाव की वजह से ही आत्महत्या करने की घटनाएं बढ़ रही हैं। कोई पारिवारिक कलह को लेकर तो कोई व्यवसाय को लेकर तनाव में है और ऐसी स्थिति में लोग अपनी बेशकीमती जिंदगी को ही दांव पर लगा रहे हैं। यह प्रवृत्ति न केवल ऐसे व्यक्ति के परिवार के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए खतरनाक है।
हालांकि माना जाता रहा है कि आत्महत्याओं को रोकना सरकार का काम नहीं है बल्कि इसके लिए सबसे बड़ी जिम्मेदारी समाज और परिवार की है लेकिन आत्महत्या के बीते वर्ष के आंकड़े समाज के साथ-साथ सरकार के समक्ष भी गंभीर सवाल खड़े कर रहे हैं। दरअसल देशभर में लोग यदि इतनी बड़ी संख्या में मौत को गले लगाने को विवश हो रहे हैं तो यह मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि इसके लिए कहीं न कहीं हमारा समाज और सरकारों की नीतियां भी जिम्मेदार हैं। भले ही सरकारों द्वारा रोजगार को लेकर हालात बेहतर होने के दावे किए जा रहे हैं लेकिन वास्तविकता यही है कि महंगाई और बेरोजगारी ने गरीब और मध्यवर्ग की कमर तोड़ कर रख दी है। गरीब व्यक्ति के पास खाने को कुछ नहीं होगा, उसके पास रोजगार का कोई साधन नहीं होगा या वह भारी-भरकम कर्ज में बोझ तले दबा होगा तो न चाहते हुए भी अवसाद का शिकार होकर वह आत्महत्या जैसा कदम उठाने को मजबूर होगा।
देश में आत्महत्या के मामलों का ग्राफ साल दर साल ऊपर क्यों जा रहा है, इसे लेकर न केवल सरकारों को बल्कि समाज को भी गंभीरता से विचार करना होगा और इसके कारणों के निदान के प्रयास भी करने होंगे, तभी आत्महत्या के मामलों में कमी की अपेक्षा संभव है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)