Friday, November 22"खबर जो असर करे"

आचार्य शंकर: राष्ट्रीय एकता एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रवर्तक

– वीरेन्द्र सिंह परिहार

जगतगुरु श्री शंकराचार्य का जन्म उस समय हुआ था, जब बौद्ध धर्म पतनात्मक स्थिति की ओर जा रहा था, धर्म के नाम पर अनाचार फैल रहा था। विडम्बना यह कि अनेक वर्षों तक राजाश्रय प्राप्त होने के चलते बौद्धों को सत्ता का स्वाद लग चुका था। विदेशियों ने ढलती हुई बौद्ध सत्ता का उन्नायक बनकर भारत में प्रवेश किया और बौद्धों ने बिना सोचे-समझे उनका सहयोग किया। लेकिन प्रखर राष्ट्रीयता का पोषक हिन्दू समाज इसे सहन न कर सका, जिसके चलते कुमारिल भट्ट द्वारा प्रज्ज्वलित चिंगारी शंकराचार्य के रूप में दावानल बनकर प्रगट हुई- जिसने सभी झाड़-झंखाड़ को भस्मीभूत कर दिया, जिसके चलते देश एवं धर्म की रक्षा हुई।

पुत्र की प्राप्ति पर भगवान शंकर का वरदान मानकर उनके पिता शिवगुरु ने उनका नाम शंकर रखा। शंकर की असाधारण बुद्धि को देखते हुए शिवगुरु ने तीन वर्ष की उम्र में ही उनका अक्षराभ्यास आरंभ करा दिया। पांच वर्ष की आयु तक शंकर ने समस्त लौकिक साहित्य पढ़ लिया। पांच वर्ष की आयु में शंकर का उपनयन संस्कार हुआ तथा बालक शंकर वेदाध्ययन के निमित्त गुरुकुल गये। जितनी तीव्रता से शंकर ने लौकिक विद्या प्राप्त की थी, उतनी ही शीघ्रता से उन्होंने वेदों और वेदांगों का अध्ययन कर लिया। अपनी बुद्धि की विलक्षणता के चलते छोटी ही उम्र में ’’बाल-बोध संग्रह’’ नाम का एक ग्रन्थ भी रच डाला। उन्होंने अनुभव किया कि हम सब एक हैं और यही सत्य है। आठ वर्ष की अवस्था तक गुरुकुल में रहने और समस्त वेद-शास्त्रों में पारंगत होने के चलते शंकर को आचार्य की उपाधि दी गई और वह शंकराचार्य हो गये। घर लौटने पर उन्हें ऐसा महसूस होने लगा कि घर-बार छोड़ कर सच्चे हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए काम करना चाहिए, क्योंकि देश में इतने मत-मतांतर फैले हुए थे कि लोग सच्चे वैदिक धर्म को भूल गये थे।

अपनी माता को प्रणाम करके गुरु की खोज में शंकराचार्य निकल पड़े। उसी समय उन्होंने अच्युताष्टक नाम की भक्तिभाव से परिपूर्ण कविता की रचना की। नर्मदा किनारे पहुंच कर अमरकांत आश्रम में उन्होंने विधिवत संन्यास धर्म की दीक्षा गोविन्दपाद से ली और गोविन्दपाद ने शंकराचार्य को समस्त शास्त्रों का अध्ययन बड़ी योग्यता से कराया। इसके बाद गोविन्दपाद शंकराचार्य को लेकर बदरिकाश्रम चले गये जहां शंकर ने चार वर्ष बिताये। वहां रह कर शंकराचार्य ने गोविन्दपाद के गुरु गौड़पाद की आज्ञा तथा उन्हीं के तत्वावधान में अनेक ग्रन्थों की रचना की। उन्होंने परम गुरु से आज्ञा लेकर उनकी मुंडकोपनिषद- कारिका पर भाष्य लिखने के साथ वेदान्त-प्रस्थानत्रयी पर भी भाष्य लिखा। वेदान्तसूत्र पर तो उनका भाष्य अद्वितीय है ही। इस कार्य को समाप्त कर शंकराचार्य ने देश भ्रमणार्थ गुरु से आज्ञा प्राप्त की और हाथ में भगवा ध्वज, दण्ड और कमण्ड लेकर धर्म यात्रा पर निकल पड़े।

इसी बीच उनका संबंधी अग्नि शर्मा वहां पहुंच गया। उसने बहुत-सा धन निकाल कर शंकराचार्य के सामने रखा और बताया कि यह तुम्हारी मां द्वारा भेजा गया है और वह अंतिम सांसें गिन रही हैं। उस धन से शंकराचार्य ने बदरिकाश्रम में श्री बद्रीनाथ का मंदिर बनवाया। तेरह हजार फीट की ऊंचाई पर हिमालय की उपत्यका में आज भी वह मंदिर खड़ा है और इसके साथ वह विशाल राष्ट्र भी खड़ा है जिसकी नींव शंकर ने इस मंदिर के माध्यम से डाली थी। शंकराचार्य ने निश्चित किया कि सम्पूर्ण भारतवर्ष में आंदोलन करने के पूर्व साथ देने वाले साथी तैयार करने होंगे। इसके लिए उन्होंने गोविन्दपाद के शिष्यों के साथ काशी में डेरा डाल दिया। उनकी धारणा स्पष्ट थी कि देश में राजनीतिक एकता के मूल में सांस्कृतिक एकता होनी चाहिए।

काशी में अब उनकी शिष्य मण्डली इतनी बड़ी हो गई थी कि स्थान-स्थान पर अपने शिष्यों को छोड़ कर वे सम्पूर्ण भारत में एक ही विचारधारा उत्पन्न कर सकते थे। फलतः वह दिग्विजय के निमित्त निकल पड़े। हिन्दू धर्म में समन्वय की दृष्टि से वह बताते कि सम्पूर्ण देवी-देवता एक ही परम्ब्रम्ह के भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं, जो वैष्णव है वह शैव भी है और शक्ति भी है। एक की पूजा और दूसरे का विरोध-भला यह कैसे चल सकता है? कोई छोटा और बडा नहीं होता। स्थान-स्थान पर उन्होंने पंचायतन की पूजा करने को कहा, हां अपने इष्टदेव को मध्य में रखने की सबको छूट थी।

इसके पश्चात् शंकराचार्य दक्षिण की ओर बढ़े, क्योंकि वे सम्पूर्ण भारत को एकात्मता का अनुभव कराना चाहते थे, सम्पूर्ण जन सामान्य को अद्वैत (हम सब एक हैं) का पाठ पढ़ाना चाहते थे। वह कांची पहुंचे जो दक्षिण की काशी कही जाती है। वह ऐसा स्थायी प्रबंध करना चाहते थे कि देश के जन-समाज में एकत्व की भावना युगों-युगों तक बनी रहे। अतः उन्होंने समाज को स्फूर्ति देने वाले उसके जीवन-स्त्रोत स्वरूप प्रत्येक की श्रद्धा के केन्द्र मठ की स्थापना का विचार किया। कहते हैं कि कांची में ही उन्होेंने अपना पहला मठ स्थापित किया था, किन्तु उनका स्थापित श्रृंगेरी मठ ही सबसे अधिक विख्यात है। सुरेश्वाचार्य को उन्होंने श्रृंगेरी का सबसे पहला मठाधीश नियुक्त किया और उत्तर में जोशी मठ का आचार्य दक्षिण का ब्राह्मण नियुक्त किया। जीवन के एक-एक क्षेत्र में उन्होंने भारत की एकता को बनाये रखने के लिए वृहद सावधानी से प्रयास किया था, तभी तो चैतन्यमय् भारत का आज भी अभिव्यक्त और अविछिन्न स्वरूप हमारा आराध्य बना हुआ है। आगे चलकर वह जगन्नाथपुरी में मठ की स्थापना की और वहां से चल कर काशी होते हुए एकत्व का संदेश सुनाते हुए द्वारिकापुरी जाकर मठ की स्थापना की। महात्मा बुद्ध को विष्णु का अवतार बताकर लाखों बौद्धों को राष्ट्र की मुख्यधारा में खड़ा कर दिया। इतना ही नहीं वह कश्मीर, प्रागज्योतिषपुर पहुंच कर वाममार्गियों से देश को सावधान किया और वैदिक धर्म की पताका फहराई।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय के शब्दों में-’’आचार्य शंकर के सिद्धांतों और प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप भारतवर्ष एक ओर तो रूढ़िवादी कर्मकाण्ड और दूसरी ओर नास्तिकतावादी जड़वाद के गर्त में गिरने से बच गया। आचार्य शंकर ने जिस तरह से भारतवर्ष का उद्धार किया, उनके इस एकत्व के सिद्धांत को अपने जीवन में लाकर भारतवर्ष को उन्नत और वैभवशाली बनायें। यही है उनका पुण्य-स्मरण एवं उनकी सच्ची पूजा।’’

21 सितम्बर को ओंकारेश्वर के मांधाता में आचार्य शंकर सनातन के माध्यम से राष्ट्र की एकता और समरसता का जो योगदान किया गया उसके चलते उनकी 108 फिट ऊँची प्रतिमा का अनावरण किया जा रहा है। जहाँ उनके स्त्रोत के साथ शास्त्रीय संगीत की स्वर लहरियाँ भी वातावरण को संगीतमय बना देंगी। आजादी के अमृत काल में जब देश अपनी जड़ो को तलाश रहा है, तब आचार्य शंकर के प्रति देश की यह छोटी-सी श्रद्धांजलि होगी। जिसके माध्यम से हम अपने महापुरुषों के प्रदाय से परिचित होने के साथ सनातन पर हो रहे हमलों को लेकर यानी देश की संस्कृति, विरासत और अपने अस्तित्व के ऊपर हो रहे हमलों का सक्षम प्रतिकार करने में सक्षम हो सकेंगे। वस्तुतः आचार्य शंकर देश को जोड़ने वाले सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और एकात्मता की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। यह देश सदैव उनका ऋणी रहेगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)