– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
वर्तमान चुनावों में तीनों पार्टियां एक-एक जगह से जीत गईं लेकिन दो-दो जगह से हार गईं। इन मुख्य चुनावों के अलावा कुछ उपचुनाव भी अलग-अलग प्रांतों में हुए। उनमें सबसे ज्यादा चर्चित रहा मैनपुरी से डिंपल यादव का चुनाव लोकसभा के लिए। डिंपल अखिलेश यादव की पत्नी और मुलायम सिंह की बहू हैं। वे लगभग 3 लाख वोटों से जीती हैं। उन्होंने भाजपा के उम्मीदवार को हराया है लेकिन भाजपा का एक उम्मीदवार रामपुर से जीत गया है, यह भी भाजपा की उल्लेखनीय उपलब्धि है।
डिंपल को हराने के लिए भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। डिंपल के खिलाफ ऐसे उम्मीदवार को खड़ा किया था, जो पहले सपा का नामी-गिरामी नेता रहा था। इसके अलावा मुलायम सिंह पिछले चुनाव में सिर्फ 94 हजार वोट से जीते थे जबकि बहुजन समाज पार्टी उनके साथ थी। इस बार अखिलेश यादव ने डिंपल को अपने दम पर लड़ाकर जितवाया है। यह एक उम्मीदवार की मामूली जीत नहीं है। यह अखिलेश की समाजवादी पार्टी के पुनरोदय का शंखनाद है।
यह जीत उ.प्र. ही नहीं, पूरे देश की राजनीति को नई दिशा दे सकती है। यह मुलायम सिंह जैसे विलक्षण नेता को जनता द्वारा दी गई भावभीनी श्रद्धांजलि है जैसे कि 1984 में राजीव गांधी की अपूर्व जीत इंदिरा गांधी को दी गई जनता की श्रद्धांजलि थी। इस चुनाव के दौरान यह भी अच्छा हुआ कि अखिलेश और उनके चाचा शिवपाल यादव के बीच सुलह हो गई और दोनों की पार्टी का विलय हो गया। अब देखना यह है कि अगले लोकसभा चुनाव में होता क्या है?
योगी आदित्यनाथ ने कुछ पहल इतनी जबरदस्त की हैं कि उनके कारण जनता के दिलों में उन्होंने गहरा स्थान बना लिया है लेकिन मैनपुरी की जीत समाजवादी पार्टी में नई जान फूंक सकती है बशर्ते कि अखिलेश और शिवपाल सिर्फ कुर्सी और रेवड़ी की राजनीति में न फंसे रहें। इस वक्त अकेली भाजपा है, जो अपनी विचारधारा पर चलने की कोशिश जैसे-तैसे करती रहती है, शेष सभी पार्टियां वोट और नोट के झांझ पीटती रहती हैं।
मुलायम सिंह को भी यह सब करना पड़ता था लेकिन वे डाॅ. राममनोहर लोहिया के सच्चे अनुयायी की तरह भी आचरण करने की कोशिश करते थे। उन्होंने लोहिया की सप्तक्रांति के अनेक सूत्रों को लागू करने की भरपूर कोशिश की थी। उन्होंने मेरे साथ मिलकर अंग्रेजी हटाओ आंदोलन और भारत-पाक महासंघ के सवालों पर काफी काम किया था। वे कुर्सी की राजनीति में तो प्रवीण थे ही लेकिन सिद्धांतों और विचारधारा पर भी उनका पूरा ध्यान था। वे उ.प्र. के मुख्यमंत्री नहीं बनते तो भी उनका नाम देश के बड़े नेताओं में गिना जाता। वे अपने सैद्धांतिक आंदोलनों में मेरे साथ जुड़कर सभी पार्टियों के नेताओं के साथ मिल-बैठने में जरा भी संकोच नहीं करते थे।
कुर्सी पकड़ना अच्छा है लेकिन यही अंतिम लक्ष्य नहीं होना चाहिए। कुर्सी खिसकने के बाद दुनिया के बड़े-बड़े नेता इतिहास के कूड़ेदान में जा समाते हैं। अखिलेश-जैसे नौजवान नेताओं से यह आशा करना अनुचित नहीं होगा कि वे सप्तक्रांति और जन दक्षेस (बृहद् भारत) जैसे मुद्दों पर भी काम करें ताकि भारत सशक्त, संपन्न और समतामूलक तो बने ही, साथ ही प्राचीन आर्यावर्त्त के पड़ोसी देशों का भी उद्धार हो।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)