– गिरीश्वर मिश्र
भारत में ज्ञान और शिक्षा की परम्परा की जड़ें न केवल गहरी और अत्यंत प्राचीन हैं बल्कि यहां विद्या को अर्जित करना एक पवित्र और मुक्तिदायी कार्य माना गया है । इसके विपरीत पश्चिम में ज्ञान का रिश्ता अधिकार और नियंत्रण के उपकरण विकसित करना माना जाता रहा है ताकि दूसरों पर वर्चस्व और एकाधिकार स्थापित किया जा सके । उसी रास्ते पर चलते हुए पश्चिमी दुनिया में मूल्य-निरपेक्ष विज्ञान के क्षेत्र का अकूत विस्तार होता गया और उसके परिणाम सबके सामने हैं । ऐतिहासिक परिवर्तनों के बीच विज्ञान की यह परम्परा यूरोप और अमेरिका से चल कर दुनिया के अन्य क्षेत्रों में फैली ।
इतिहास गवाह है कि औपनिवेशक दौर में पश्चिम से लिए गए विचार, विधियाँ और विमर्श अकेले विकल्प की तरह दुनिया के अनेक देशों में पहुँचे और हाबी होते गए । ऐसा करने करने का प्रयोजन ‘अन्य’ के ऊपर आधिपत्य था । इस प्रक्रिया में अंतर्निहित एक साम्राज्यवादी ढांचे के जोर से अध्ययन और अनुसंधान की एक पराई ज्ञान और पंथ आदि की परम्पराएं थोपी जाती रहीं । यूरो-अमेरिकी मूल की शाखा या कलम के रूप में रोपे जाने का परिणाम यह हुआ कि उपनिवेशों में ज्ञान की संस्थाएं स्वभाव से परोपजीवी हो गईं और उन देशों की स्थानीय या देशज ज्ञान परम्पराएं अपदस्थ कर दी गईं । बाद में स्वतंत्रता मिलने के बाद कदाचित जरूरी आत्मविश्वास के अभाव और इस भ्रम के बीच कि वे औपनिवेशिक परम्पराएं ही एक मात्र सत्य हैं।
स्थानीय परम्पराएं निर्जीव सी ही बनी रहीं । दूसरी ओर पराई ज्ञान-प्रणाली में अनुकरण की प्रवृत्ति और परनिर्भरता एक अनिवार्य बाध्यता बनी रही क्योंकि पश्चिम ही प्रामाणिक बना रहा यहां तक कि देशज ज्ञान का संदर्भ भी वही बन गया । भारत का शिक्षा-तंत्र, उसकी प्रक्रियाएं और उपलब्धियां प्रमाण हैं कि इस विशाल देश में स्वायत्त और अपनी संस्कृति और पारिस्थितिकी के अनुकूल शिक्षा की जरूरत की पहचान करने में हम विफल रहे और शिक्षा में जरूरी गुणात्मक वृद्धि नहीं हो सकी । शैक्षिक सामर्थ्य का भारतीय स्वप्न जिसे कभी महात्मा गांधी, गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर, पंडित मदन मोहन मालवीय और डॉक्टर जाकिर हुसेन जैसे लोगों ने देखा था, वह अप्रासंगिक बन बीच अधर में ही छूट गया ।
देश की शिक्षा की दुरवस्था को लेकर बुद्धिजीवी वर्ग गाहे-बगाहे आलोचना करता रहा और सरकारों के बिठाए आयोग अपनी रपट भी बनाते रहे परंतु जमीनी हकीकत यही थी कि सब कुछ ठंडे बस्ते में पड़ा धूल खाता रहा । सतत उपेक्षा के चलते शिक्षा में ज्यादातर सब कुछ यथावत चलता रहा । स्वाधीनता मिलने के बाद भी भारत के शिक्षा-क्षेत्र में स्वतंत्रतापूर्व की औपनिवेशिक अकादमिक संरचनाएं और प्रक्रियाएं कमोबेश पहले जैसी ही प्रभावशाली बनी रहीं और उन्हीं का पोषण होता रहा ।
बौद्धिक आत्मनिर्भरता और वैचारिक स्वराज के सवाल आधारभूत होने के बावजूद भी सक्रिय कार्यवाही के एजेंडे से बाहर ही बने रहे। यह जरूर हुआ कि थोड़े से कुछ चुनिंदे संस्थान खड़े हुए और वे पश्चिमी माडेल को अक्षत बनाए रखने में लगे रहे और वह प्रक्रिया अभी भी जारी है । उनके उत्पाद विदेशों में भी प्रतिष्ठित हैं और ज्ञान की एक धारा में वे योगदान कर रहे हैं । दूसरी ओर पूरे भारत में पसरा शिक्षा का व्यापक धूल-धूसरित परिसर विचित्र किस्म के अवसाद का शिकार होता गया । उपेक्षा के कारण सकारात्मक परिवर्तन तो दूर जो व्यवस्थाएं चल रही थीं वे भी टूटती गईं । सद्गुणों के विकास की जगह येन केन प्रकारेण डिग्री बटोरने की प्रक्रिया बनती जा रही शिक्षा मुक्ति की जगह भार होती गई । यह शिक्षा बंधन को बढ़ाने वाली होती गई और मूल्यहीन होने के चलते लोगों के क्लेश बढ़ते रहे । ऐसे में दिशा की तलाश में व्यग्र युवा वर्ग, विफलता, कुंठा और क्षोभ का शिकार होता रहा ।
आमजनों के लिए उपलब्ध भारतीय शिक्षा के खोखलेपन को देखें तो यही लगता है कि औपनिवेशिकता की मानसिकता अचेतन में इतने गहरे स्तर पर इस तरह भिन कर छाई हुई है कि वह औपनिवेशिकत ही नहीं लगती । इसके परिणामस्वरूप उसी के खांचे में शैक्षिक जीवन जीना एक विवशता बन चुका है । कहा जा सकता है कि औपनिवेशिकता (और अब नव औपनिवेशिकता ! ) शिक्षाविदों के लिए अंधबिंदु (ब्लाइंड स्पॉट) सरीखे हो चुके हैं और इसके लिए जरूरी आत्मालोचन के लिए अपेक्षित अवकाश और अवसर ही नहीं है । इस बीच औपनिवेशिकता के भौतिक अवशेष मिटाने की कोशिशें तो होती रहती हैं परंतु मन में पैठे और आचार-व्ववहार का हिस्सा बन चुके अदृश्य पर व्यापक रूप से प्रभावी औपनिवेशिकता का जाल इतना ज़बर्दस्त है कि उससे निकलना सम्भव नहीं हो रहा है । पुराने अनुभव से पुष्ट हुए लोग ऐसे निश्चिंत और आश्वस्त हैं कि प्रतिरोध करना तो दूर उसकी विसंगति से अवगत भी नहीं होना चाहते और यह भी नहीं मान रहे कि किस तरह ठगा जा रहा है । पुराना जाल ऐसा और इतना घना है कि उसमें उलझ कर बहुत कुछ पुनरुत्पादन जैसा ही चल रहा है और शोध के नाम पर अनावश्यक कवायद हो रही है जिसकी व्यर्थता का अहसास भी नहीं हो पा रहा है ।
गौरतलब है कि दुनिया में जहां-जहां पर उपनिवेश के प्रति आलोचक-बुद्धि और चेतना जगी है वहां के सोच-विचार में उसके परिणाम दिख रहे हैं । उसके फलस्वरूप वहां अपनी संस्कृति के प्रति संवेदना बढ़ी है और औपनिवेशिकता से मुक्ति की इच्छा वाली शैक्षिक व्यवस्था और अनुसंधान की संभावना बनी है । वहां स्वदेशी या देशज नजरिये से अध्ययन की दिशा में कदम आगे बढ़ रहे हैं । वि-उपनिवेशीकरण की दिशा में चलते हुए विश्व के कई भौगोलिक क्षेत्रों में समाजविज्ञान क्षेत्रविशेष की खास परिस्थितियों के अनुरूप ढालने और परिवर्तन लाने वाले हस्तक्षेप की परियोजना का आकार ले रहे हैं । कई देशों में मुक्ति (लिबरेशन) कामी समाजविज्ञान, राजनीतिक मनोविज्ञान, सामाजिक निर्मितिवादी विमर्श, सामुदायिक मनोविज्ञान और स्त्रीवादी दृष्टिकोण आदि की ओर रुझान बढ़ रही है । इन सब प्रयासों में आत्मालोचन और विकल्पों की तलाश की छटपटाहट आसानी से देखी जा सकती है ।
वहां औपनिवेशिक दायरों को तोड़ने और उनसे बाहर आने की कोशिशों को उजागर करते हुए नए विचार भी सामने आ रहे हैं । समाजवैज्ञानिक सोच में आ रहे ये बदलाव अप्रत्याशित रूप से एक आलोचक दृष्टिकोण के साथ वैज्ञानिक अध्ययनविधि की ग्रस्तता-बाध्यता और उससे उपजते भ्रामक समाधानों का पर्दाफ़ाश भी कर रहे हैं । भारत में वि-उपनिवेशीकरण की योजना के तहत विचार और कार्य अभी भी आरम्भिक चरण में है । अधिकांश लोग वैकल्पिक शास्त्रीय आत्मबोध और उपनिवेशविरोधी चिंतन की जरूरत से अभी भी अनभिज्ञ हैं और अध्ययन विषयों की यूरो-अमेरिकी संस्कृति से बाहर निकल पाना मुश्किल हो रहा है ।
आज समाजविज्ञानों का विभिन्न सैद्धांतिक परम्पराओं में बंटा रहना एक ऐसी समस्या है जिससे पार पाना ज़रूरी है । इस बंटवारे ने उनके पीछे मौजूद आंतरिक एकता को भुला दिया है । यूरो-अमेरिकी पूंजीवादी आधुनिकता के सांस्कृतिक-ऐतिहासिक आधारों पर टिकी आधुनिकता सामाजिक यथार्थ को वैयक्तिकता में सीमित कर अंतर्वैयक्तिक रिश्तों को खत्म कर देती है। समाज विज्ञानों को एक सूत्र में बांधने की तरकीबें यूरो-अमेरिकी संस्कृति और उसकी विस्तारवादी, सार्वभौमिक, साम्राज्यवादी तथा औपनिवेशिक प्रवृत्तियों के केंद्र में हैं । स्मरणीय है कि पूंजीवादी व्यवस्था की ही तरह विभिन्न पूंजीवादी सिद्ध्न्त और व्यवथाएं न तटस्थ हैं और न ही सार्वभौम पर वे उपनिवेशीकरण के दौरान थोप दी गईं ।
कितना भी वैश्विक क्यों न हुआ हो यूरोप और अमेरिका का समाज विज्ञान अपनी संस्कृति की खासियत उजागर करता है। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में विभिन्न रूपों में देशज समाजविज्ञान की आवाजें उठ रही हैं । इनमें मिलने वाले विचार और व्याख्याएं कभी-कभी बड़ी भिन्न लगती हैं । आधुनिक दृष्टियों के उपजने के पहले से ये मौजूद थीं। उपनिवेशीकरण ने न केवल ऐसी संस्कृति को रोपा जिसमें समाज विज्ञान पनपें बल्कि आधारभूत वैचारिक सांचा भी दिया । अपने समूह को अच्छा देखने का आग्रह (इथनोसेंट्रिजम) इतना है कि स्थानीय लोगों को विचार की क्षमता से हीन माना गया। पश्चिम की सभ्यता ही सार्वभौम तार्किकता की जन्मदात्री नहीं है ।
यदि हम अकादमिक दिवास्वप्न से बाहर निकलने के लिए तैयार होते हैं तो यथास्थितिवाद से ऊपर उठ कर उत्तर-उपनिवेश के प्रस्थानबिंदु और उपनिवेशविरोधी वैचारिक दृष्टि को स्थान देना होगा । इसके लिए अध्ययन-विषयों की स्थापित परिधि से बाहर निकल कर देशज दृष्टिकोण अपनाना जरूरी होगा । एक आलोचक दृष्टि अपनानी होगी ताकि औपनिवेशिकता के जाने-अनजाने में होने वाले पुनरुत्पादन से बचा जा सके। इस प्रसंग में इस सच्चाई को ध्यान में रखना होगा कि आधुनिक ज्ञानदृष्टि पश्चिमी पूंजीवादी आधुनिकता से घनिष्ट रूप से आबद्ध है । इसलिए आत्मबोध का व्यापक स्वदेशी विकल्प निर्मित करना जरूरी है। उत्तर-उपनिवेशी मानसिक तैयारी के साथ उपनिवेशविरोधी बदलाव लाने होंगे।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)