Friday, November 22"खबर जो असर करे"

भारत में पर्यावरण संकट और समाज की भूमिका

– अजय दीक्षित

हमने प्रकृति से जो खिलवाड़ किया है उसी का परिणाम हमारे सामने है । प्रकृति ने हमें पेड़, पौधे और हरियाली दी। पशु-पक्षी दिए, लेकिन हमने पेड़-पौधों को काटकर कंक्रीट का जंगल बना लिया। जहां पेड़ नहीं तो चिड़िया की चहचहाहट और कोयल की कूक होने का सवाल ही कहां उठता है। लेकिन समझदार कहलाने वाले मनुष्य ने प्लास्टिक के पेड़ और घर में कोयल की आवाज वाली डोर बेल लगाकर ऐसा दिखने की कोशिश की मानों कुछ हुआ ही न हो।

पेड़ों की ठंडी छांव की कमी दूर करने के लिए हमने वातानुकूलित संयंत्रों का सहारा तो लिया लेकिन यह तमाम एसी भी तो तापमान में वृद्धि करने का कारण बन रहे हैं। आज 45 से 49 डिग्री सेल्सियस तापमान को 55 से 60 होने में देर नहीं लगेगी। इसलिए हम सभी को अधिक से अधिक पेड़-पौधे लगाने के नारे और कागजी बातें छोड़कर न केवल धरा पर पौधे लगाने चाहिए बल्कि उनकी सतत निगरानी भी करनी होगी। एक पौधे को बड़ा होने में कम से कम 5 वर्ष लगते हैं इसलिए यह कार्य हर शुभ अवसर पर होना चाहिए।

यह सत्य है कि जनसंख्या नियंत्रण अथवा पर्यावरण संरक्षण के लिए सरकार सख्त से सख्त कानून बनाकर इस दिशा में कुछ सार्थक कर सकती है लेकिन यह दोनों काम केवल सरकार के भरोसे नहीं छोड़े जा सकते। यह धरा हमारी है तो इसे रहने लायक बनाए रखने की जिम्मेदारी भी तो हमारी है । भारतीय जीवन दर्शन में पर्यावरण को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। जब हम अपनी सांस्कृतिक परम्परा की बात करते हैं तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हमारा उद्देश्य आधुनिकता को पूरी तरह से नकारना है। आधुनिकता और प्रकृति के बीच संतुलन की अनदेखी नहीं की जा सकती। विशेष रूप से पर्यावरण के संदर्भ में यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि अंधी आधुनिकता ने प्रकृति का ऐसा दोहन किया है कि आगे का रास्ता तक दिखने में कठिनाई होने लगी है ।

प्राचीन भारतीय वाङ्मय- वैदिक- साहित्य, पुराणों, धर्मशास्त्रों, रामायण, महाभारत, संस्कृत साहित्य के अन्यान्य ग्रन्थों, पालि- प्राकृत साहित्य आदि की छानबीन करने पर पुरातन भारत की अरण्य-संस्कृति के मनोहर स्वरूप का साक्षात्कार होता है। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में अनेक रमणीय उद्यानों का संकेत मिलता है। ‘अग्निपुराण’ में कहा गया है कि जो मनुष्य एक भी वृक्ष की स्थापना करता है, वह तीस हजार इन्द्रों के काल तक स्वर्ग में बसता है। जितने ही वृक्षों का रोपण करता है, अपने पहले और पीछे की उतनी ही पीढ़ियों को वह तार देता है। ‘मत्स्यपुराण’ में वृक्ष-महिमा के प्रसंग में यहां तक कहा गया है कि दस कुओं के समान एक बावड़ी, दस बावड़ियों के समान एक एक तालाब, दस तालाबों के समान एक पुत्र का महत्व है, जबकि दस पुत्रों के समान महत्व एक वृक्ष का अकेले है।

पर्यावरण और जीवन का एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। पर्यावरण के बिना जीवन नहीं हो सकता और जीवन के बिना पर्यावरण नहीं हो सकता। भारतीयता का अर्थ यही है- हरी-भरी वसुंधरा और उसमें लहलहाते फूल, गरजते बादल नाचते मोर और कल-कल बहती नदियां। यहां तक कि भारतीय संस्कृति में वृक्षों और लताओं को देव तुल्य माना गया है। जहां अनादिकाल से इस प्रार्थना की गूंज होती रही है- है पृथ्वी माता तुम्हारे वन हमें आनंद और उत्साह से भर दें। पेड़-पौधों को सजीव और जीवंत मानने का प्रमाण भारतीय वाङ्मय मे विद्यमान है । नीम- पीपल आदि वृक्षों को घर-आंगन या आसपास लगाना हमारी परम्परा का विस्तार है।

वृक्ष हमारे जीवन में रचे-बसे हैं। इसीलिए तो हमारी लोक गाथाओं, लोकगीतों में शुद्ध सुगंध शीतल समीर, खुला आकाश, निर्मल जलधारा को पर्याप्त सम्मान प्राप्त है। पीपल जैसे पर्यावरण रक्षक वृक्ष के महत्व की चर्चा जन-जन के दय में है। गौतम बुद्ध के ज्ञान का साक्षी यही बोधिवृक्ष रहा है तो विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘गीता’ में श्री कृष्ण विराट रूप दिखाते हुए कहते हैं, ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्’ अर्थात् हे अर्जुन ! मैं वृक्षों में पीपल हूं। हमारे समाज में पेड़ों को देवताओं के प्रतीक रूप में पूजा अर्चना तथा सुरक्षा की लोक परम्परा है, जैसे तुलसी विष्णुप्रिया है, केला वृहस्पति का रूप है, बरगद शिव का निवास है, नीम देवी का वास है, पीपल विष्णु का प्रतिरूप है। जैन तेरापन्थ में तो गुरुदीक्षा के नियमों में से एक है, ‘हरे पेड़ को न काटना। पृथ्वी, नदियों-सरोवरों, आकाश, वायु आदि को देवत्व प्रदान कर, धरती व नदियों को माता और आकाश को पिता के रूप में अंगीकार कर भारतीय मनीषा ने जलवायु को प्रदूषण मुक्त रखने के भाव को भी अमूर्त प्रेरणा दी है।

वैदिक युग के तैंतीस देवता प्राकृतिक शक्तियों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। ऋग्वेद का ‘अप सूक्त’ और अथर्ववेद का ‘भूमिसूक्त’ क्रमशः जल व जमीन पर लिखी विश्व की सम्भवतः प्रथम कविता है । प्राकृतिक तंत्रों का संरक्षण और उनके बीच संतुलन स्थापित रखने का आशय यह है कि उनका उपयोग इस तरह हो, जिससे उनके मूल रूप में कम-से-कम परिवर्तन हो; जिससे आसान पुन: चक्रण (रि-साइकलिंग) द्वारा आसानी से उनकी क्षतिपूर्तित होती रहे और प्राकृतिक संसाधन यथासम्भव अपने मूल रूप में सुरक्षित रहें। यह तब संभव है, जब हम लालच से रहित होकर प्रकृति की उदारता का उपयोग करें, उपभोग नहीं । इसकी प्रेरणा ‘ईशावास्योपनिषद्’ का प्रथम मंत्र दे रहा है ‘इस संसार में जो कुछ है, वह सब ईश्वर से व्याप्त या ईश्वर का आवास है, इसलिए उनका उपभोग करना हो तो बिना उन में आसक्ति रखे, त्याग-भाव से उपभोग करें, कारण यह धन है किस का? अर्थात् किसी एक का तो है नहीं । कितनी सही है यह जीवन-दृष्टि ! पर्यावरण के हर अंग की स्वच्छता तथा सबके बीच सौमनस्य बनाए रखने के लिए सदा सचेष्ट रहनेवाली मानसिकता से ही कभी यह मंत्र सृजित हुआ होगा, जो आज तक किन्हीं लोगों की नित्य प्रार्थना या कर्मकाण्ड का अंग बना हुआ है।

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)