– योगेश कुमार गोयल
पिछले दिनों आई विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की ‘लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट 2022’ के मुताबिक पिछले 50 वर्षों में दुनियाभर में स्तनधारी, पक्षी, उभयचर, सरीसृप, मछलियों सहित वन्यजीवों की आबादी 69 फीसदी कम हुई है। ‘लिविंग प्लैनेट सूचकांक’ के अनुसार 5230 प्रजातियों के 31821 जीवों की आबादी में गिरावट दर्ज हुई है, जो उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में चौंकाने वाली दर से घट रही है। रिपोर्ट के मुताबिक विश्वभर में वन्यजीवों की आबादी तेजी से घट रही है और 1970 के बाद से लैटिन अमेरिका तथा कैरेबियन क्षेत्रों में इसमें 94 फीसदी तक जबकि अफ्रीका में 66 और एशिया में 55 फीसदी की गिरावट आई है।
वन्यजीवों की आबादी में गिरावट के कारणों का उल्लेख करते हुए रिपोर्ट में बताया गया कि वनों की कटाई, आक्रामक नस्लों का उभार, प्रदूषण, जलवायु संकट तथा विभिन्न बीमारियां इसके प्रमुख कारण हैं। 1970 के बाद से मछली पकड़ने में करीब 18 गुना वृद्धि होने के कारण शार्क तथा ‘रे’ मछलियों की संख्या में 71 फीसदी तथा ताजे पानी में रहने वाली प्रजातियों में सर्वाधिक 83 फीसदी गिरावट दर्ज की गई है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ का इस बारे में कहना है कि पर्यावास की हानि और प्रवास के मार्ग में आने वाली बाधाएं प्रवासी मछलियों की नस्लों के समक्ष आए लगभग आधे खतरों के लिए जिम्मेदार हैं।
इससे पहले आईयूसीएन (इंटरनेशनल यूनियन फॉर कन्जर्वेशन ऑफ नेचर) की वर्ष 2021 की रिपोर्ट में भी बताया जा चुका है कि दुनियाभर में वन्यजीवों तथा वनस्पतियों की हजारों प्रजातियां संकट में हैं, जिनकी धरती से गायब होने की संख्या में आगामी वर्षों में अप्रत्याशित वृद्धि हो सकती है। आईयूसीएन ने विश्वभर में करीब 1.35 लाख प्रजातियों का आकलन करने के बाद पाया था कि 900 जैव प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं तथा 37400 प्रजातियों को विलुप्त होने के कगार पर मानकर ‘रेड लिस्ट’ में शामिल किया गया था। आईयूसीएन के मुताबिक जैव विविधता पर संकट यदि इसी प्रकार मंडराता रहा तो 10 लाख से अधिक प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर होंगी।
दुनिया के सबसे वजनदार पक्षी के रूप में जाने जाते रहे ‘एलिफेंट बर्ड’ का अस्तित्व अब धरती से खत्म हो चुका है। एशिया तथा यूरोप में मिलने वाले रोएंदार गैंडे की प्रजाति भी इतिहास के पन्नों का हिस्सा बन चुकी है। समुद्र में 70 वर्ष तक का जीवन चक्र पूरा करने वाला डूगोंग प्रजाति का ‘स्टेलर समुद्री गाय’ जीव भी विलुप्त हो चुका है। द्वीपीय देशों में पाए जाने वाले डोडो पक्षी का अस्तित्व मिटने के बाद कुछ खास प्रजाति के पौधों के अस्तित्व पर भी संकट मंडरा रहा है। पश्चिमी तथा मध्य अफ्रीका के भारी बारिश वाले जंगलों में रहने वाले जंगली अफ्रीकी हाथी, अफ्रीकी जंगलों में रहने वाले ब्लैक राइनो, पूर्वी रूस के जंगलों में पाए जाने वाले अमुर तेंदुआ, इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप पर पाए जाने वाले सुंदा बाघ जैसे विशाल जानवरों के अस्तित्व पर भी संकट के बादल छाये हैं।
पर्यावरण विज्ञान जर्नल ‘फ्रंटियर्स इन फॉरेस्ट एंड ग्लोबल चेंज’ में प्रकाशित एक अध्ययन में तो यह सनसनीखेज खुलासा किया जा चुका है कि 97 फीसदी धरती की पारिस्थितिकी सेहत बेहद खराब हो चुकी है और मानवीय हस्तक्षेप के कारण पृथ्वी के जैव विविधता वाले क्षेत्रों में इतनी तबाही मच चुकी है कि धरती का केवल तीन फीसदी हिस्सा ही पारिस्थितिक रूप से सुरक्षित बचा है। वन्यजीवों के अस्तित्व पर मंडराते संकट को लेकर शोधकर्ताओं का कहना है कि अधिकांश प्रजातियां मानव शिकार के कारण लुप्त हुई हैं जबकि कुछ अन्य कारणों में दूसरे जानवरों का हमला तथा बीमारियां शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रही गर्मी से भी वन्यजीवों की आबादी बुरी तरह प्रभावित हो रही है। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ एरिजोना के शोधकर्ताओं का अनुमान है कि अगले 50 वर्षों में पौधों तथा जानवरों की प्रत्येक तीन में से एक प्रजाति विलुप्त हो जाएगी। वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ क्राइम रिपोर्ट 2020 के मुताबिक वन्यजीवों की तस्करी दुनिया के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। दुनियाभर में सर्वाधिक तस्करी स्तनधारी जीवों की होती है, उसके बाद रेंगने वाले जीवों की 21.3, पक्षियों की 8.5 तथा पेड़-पौधों की 14.3 फीसदी तस्करी होती है।
विश्व वन्यजीव कोष के महानिदेशक मार्को लैम्बर्टिनी के अनुसार हम मानव-प्रेरित जलवायु संकट और जैव विविधता के नुकसान की दोहरी आपात स्थिति का सामना कर रहे हैं, जो वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए खतरा साबित हो सकती है। दुनिया जिस तेजी से आगे बढ़ रही है, उतनी ही तेजी से वन्यजीवों की संख्या घट रही है। पर्यावरणविदों के मुताबिक जंगलों में अतिक्रमण, कटान, बढ़ते प्रदूषण तथा पर्यटन के नाम पर गैर जरूरी गतिविधियों के कारण पूरी दुनिया में जैव विविधता पर मंडराता संकट पर्यावरण संतुलन बिगड़ने का स्पष्ट संकेत है और यदि इसमें सुधार के लिए शीघ्र ठोस कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले समय में बड़े नुकसान के तौर पर इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि जैव विविधता के क्षरण का सीधा असर भविष्य में पैदावार, खाद्य उत्पादन इत्यादि पर पड़ेगा, जिससे पूरा इको सिस्टम बुरी तरह से प्रभावित होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)