Friday, November 22"खबर जो असर करे"

मानगढ़ बलिदान: आध्यात्मिक चेतना और आंदोलन का आधार

– कौशल मूंदड़ा

हम जब भी भारतीय सनातन संस्कृति के बड़े आंदोलनों या बदलावों पर नजर डालते हैं तो उनके मूल में एक ही बात परिलक्षित होती है, वह है हमारी आध्यात्मिक चेतना। सनातन संस्कृति की संतानों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह एक ऐसा तत्व है जो कभी निश्चेत नहीं हुआ। जब भी हमें कहीं से भी आध्यात्मिक अनुभव का प्रभाव प्राप्त होने लगता है, हमारा मन-मस्तिष्क उसकी ओर आकर्षित स्वतः होने लगता है। संभवतः यही कारण है कि बड़े आंदोलन हों या बड़े बदलाव, उनका आधार आध्यात्मिक चेतना रहा।

चाहे हम महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन को ही लें तो उनके आंदोलन में ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीड़ पराई जाने रे..’ भजन प्रमुख रूप से होता था और उसमें शामिल हर जन उसकी अनुभूति में जरूर शांति का अनुभव करता होगा और जब मन शांत होता है तो मानव स्वभाव के अनुसार वह सही-गलत का निर्णय करने में अशांत मन से ज्यादा सक्षम होता है। इसी अवधारणा को हम मानगढ़ धाम के आंदोलन में भी महसूस कर सकते हैं जब आंदोलन के प्रणेता गोविन्द गुरु ने जगह-जगह धूणी रमाई और आजादी की अलख जगाई। धूणी एक तरह की यज्ञवेदिका होती है और इसके चारों ओर बैठकर भजन-कीर्तन-सत्संग होता है। यही धूणी वागड़ और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में आजादी के आंदोलन का आधार बनी और वहां की मानगढ़ पहाड़ी बलिदान की अमर गाथा अंकित हुई।

वागड़ क्षेत्र का मानगढ़ धाम आजादी के दीवाने गोविंद गुरु के डेढ़ हजार से अधिक अनुयायियों के बलिदान का साक्षी है। वर्ष 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड से पहले वर्ष 1913 की 17 नवम्बर मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर अंग्रेज सेना ने मानगढ़ पहाड़ी पर भीषण नरसंहार किया था, इसमें डेढ़ हजार से अधिक आदिवासी समाज के बंधुओं का बलिदान हुआ। मां भारती के चरणों में समर्पित इन हुतात्माओं ने मानगढ़ को ‘धाम’ बना दिया।

अंग्रेज सरकार की यह कार्रवाई उसके डर को साबित करती है कि वागड़ क्षेत्र में उठ रही आजादी की अलख उसके लिए चुनौती बनने लगी थी। और यह चुनौती यकायक नहीं पैदा हुई थी, इसके लिए लोकमानस में प्रेरणा के पुंज बन चुके गोविन्द गुरु के अथक प्रयास शामिल थे। गोविन्द गुरु ने 1903 में ‘संप सभा’ नामक संगठन बनाया। इसके माध्यम से ‘संप’ अर्थात मेल-मिलाप शुरू किया। इस ‘संप’ में उन्होंने एकता स्थापित करने, व्यसनों, बुराइयों व कुप्रथाओं का परित्याग करने, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने, शिक्षा, सदाचार, सादगी अपनाने, अपराधों से दूर रहने, बेगार प्रथा तथा अन्याय का बहादुरी से सामना करने और अंग्रेजों के अत्याचार का मुकाबला करने के प्रति लोगों को जागरूक किया। बांसवाड़ा जिले के आनंदपुरी से कुछ किलोमीटर दूर स्थित मानगढ़ पहाड़ी उनकी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र बनी।

गोविन्द गुरु ने लोगों को ‘संप’ से जोड़ने के लिए जगह-जगह धूणियां रमाई। धूणियों पर भजन-कीर्तन-सत्संग होने शुरू हुए और लोगों की आध्यात्मिक चेतना ने उन्हें इस ओर खींचना शुरू किया। भजन-कीर्तन-सत्संग से व्यक्ति को मन की शांति का अनुभव होता है और असीम आनंद की अनुभूति होती है। इसी माध्यम से धीरे-धीरे गोविन्द गुरु ने मां भारती को बेड़ियों में जकड़ने वाले अंग्रेजों के बारे में, उनके काले नियम-कानूनों के बारे में भी जानकारी देना शुरू किया। अन्याय के खिलाफ मुखर होने के लिए लोगों को मानसिक रूप से मजबूत करने का यह आरंभिक कदम था। आने वाले आंदोलन के लिए यह आध्यात्मिक चेतना की राह थी।

सनातन संस्कृति में संतों और गुरुओं का स्थान महत्वपूर्ण है। संत और गुरु वैसे भी प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। वागड़ में गोविंद गुरु की इस अलख के साथ उनके अनुयायी भी बनने लगे जिन्हें लोक भाषा में ‘भगत’ कहा जाने लगा। इतिहासकारों ने वागड़ के इस आंदोलन को ‘भगत आंदोलन’ की भी संज्ञा दी है। धूणी पर भजन रमाने वाले भगत गोविन्द गुरु की प्रखर वाणी से प्रभावित होकर मातृभूमि की रक्षा के गीत गाने लगे, यह गोविन्द गुरु के सान्निध्य का ही असर रहा होगा। गोविंद गुरु किसी स्कूल-कॉलेज में शिक्षित नहीं थे। उन्होंने ढोल-मंजीरों की ताल और भजनों की सुरलहरियों से ही लोकमन को आजादी के लिए प्रेरित किया।

इस दौरान बांसवाड़ा, डूंगरपुर और सीमावर्ती गुजरात के आदिवासी अंचल के लोग उनके अनुयायी बन चुके थे। बढ़ती लोकप्रियता के चलते अब गोविंद गुरु अंग्रेजों की आंखों में खटकने लगे थे। 17 नवम्बर, 1913, मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन हजारों भगत अपने गुरु का जन्मदिन मनाने के लिए मानगढ़ पहाड़ी पर एकत्र हुए। एक विशेष प्रकार के वस्त्रधारियों के हुजूम को देसी पारम्परिक हथियारों के साथ देखकर अंग्रेज शासन तंत्र को शंकाओं ने घेरा। और आखिर सैनिक कार्रवाई का हुकम हुआ और अंग्रेज सेना ने हजारों निहत्थे भगतों पर गोलियां बरसा दीं। इस नरसंहार में 1500 से अधिक आदिवासी भगतों का बलिदान हुआ।

गोविन्द गुरु को भी भगतों ने बचाकर उस क्षेत्र से निकाला। कुछ भगत थे जो इस सारे घटनाक्रम को अन्य लोगों तक पहुंचाने के लिए खुद को बचाते, छिपते-छिपाते वहां से निकले और गांव के अन्य लोगों को इसकी सूचना दी। संभवतः गोविन्द गुरु का ही आदेश रहा होगा कि कुछ भगत यहां का दृश्य सभी तक पहुंचाने के लिए खुद को बचाएं। अंग्रेज सरकार द्वारा गिरफ्तारी और सजा के बाद गोविन्द गुरु की आध्यात्मिक चेतना क्षीण नहीं पड़ी, वे इसी जनचेतना के अभियान में आजीवन जुटे।

मानगढ़ और इसके आस-पास रहने वाले लोग अपने पुरखों की इस बलिदानी गाथा को आज तक नहीं भूले। उनकी याद को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उन्होंने मानगढ़ पहाड़ी से किसी तरह बच कर आए लोगों की आंखों देखी को गीतों में ढाल लिया। अब उन्हें वाणियों के रूप में गाया जाता है। इन वाणियों को गा कर सभी अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं।

बांसवाड़ा-डूंगरपुर जिले सहित गुजरात के सरहदी क्षेत्रों में गोविन्द गुरु और उनके शिष्यों द्वारा स्थापित धूणियां आज भी उस बलिदान की गाथाएं, आदिवासी भगतों की वाणियां सुनाती हैं। गुजरात के झालोद तालुका की नटवा व पण्डेरफला धूणी, कंबोई धूणी, बांसिया स्थित मणी मगरी धूणी, मगरी व छाणी मगरी धूणी, सुराता धूणी, बेड़सा स्थित गनी माता की समाधि आदि आज भी आध्यात्मिक चेतना से शुरू हुए इस आंदोलन की साक्षी हैं। कभी महज मानगढ़ पहाड़ी कहा जाने वाला यह स्थान अब मानगढ़ धाम है। आजादी के भगतों के बलिदान स्थल पर आज भी लोग श्रद्धा समर्पित करने और प्रेरणा लेने जाते हैं।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)