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शिव-शक्ति का केंद्र है बाबा बैद्यनाथ धाम

देवघर , 14 जुलाई (एजेंसी)। विश्व के सबसे लंबे मेले के रूप में ख्यात बाबा धाम का मास भर चलनेवाला श्रावणी मेला शुरू होते ही बाबा बैद्यनाथ के जलाभिषेक के लिए केसरिया वस्त्रधारी श्रद्धालु कांवरियों के अनवरत आगमन का सिलसिला आरम्भ हो गया है। बोल बम, बोल-बम, बाबा नगरिया दूर है-जाना जरूर है के जयघोष से सम्पूर्ण क्षेत्र गुंजायमान है। मासव्यापी श्रावणी मेले में प्रतिदिन लाखों श्रद्धालु पंक्तिबद्ध रूप से जलाभिषेक के लिए अपनी बारी की जिस धैर्य से प्रतीक्षा करते हैं वास्तव में इसका अन्यत्र उदाहरण देखने को नहीं मिलता। कहते हैं इन दिनों बाबा धाम की व्यवस्था स्वयं बाबा बैद्यनाथ ही करते हैं और इस वजह से कोई अव्यवस्था नहीं होती।

शास्त्रीय और जनश्रुतियों के आधार पर मान्यता है कि श्रावण मास में उत्तरवाहिनी मंदाकिनी से कांवर लेकर बाबा पर जलाभिषेक से इच्छित मनोकामना पूर्ण होती है। इसलिए प्रतिवर्ष जलाभिषेक करने वाले भक्तों की संख्या में निरन्तर बढ़ोतरी हो रही है। आज स्थिति यह है कि मानवों का महासागर बाबा धाम में उमड़ पड़ता है ।

बाबा बैद्यनाथ का महात्म्य: बाबा बैद्यनाथ के संबंध में उपलब्ध और तीर्थ पुरोहितों की ओर से गयी जानकारी के अनुसार राक्षसराज रावण ने मनोकामना लिंग की स्थापना लंका में करने की इच्छा के साथ महादेव की घनघोर आराधना करके उन्हें प्रसन्न कर दिया। इसके बाद महादेव स्वयं प्रकट हुए और वर मांगने को कहा तो राक्षसराज ने मनोकामना लिंग के रूप में उनसे लंका में विराजने का वरदान मांग लिया। भोले दानी ने राक्षसराज रावण को इच्छित वर तो दे दिया किन्तु उन्हें भान था कि यदि रावण मनोकामना लिंग लंका में स्थापित करने में सफल रहा तो यह मानवता के लिए उचित नहीं होगा। इसलिए उन्होंने यह शर्त रख दी कि मनोकामना लिंग का जिस किसी स्थान पर भू-स्पर्श होगा वो वहीं स्थापित हो जाएंगे। प्रचंड बलशाली राक्षसराज रावण को स्वयं के बल पर अभिमान था इसलिए वह भगवान शिव के मनोकामना लिंग को लेकर लंका की ओर हवाई मार्ग से प्रस्थान कर गया।इससे देवताओं के बीच हाहाकार मच गया। देवता सोचने लगे कि यदि रावण मनोकामना लिंग को लंका में स्थापित करने में सफल रहा तो उसका अत्याचार और बढ़ जाएगा।

ऐसे में देवों के प्रेरणा से माता जाह्नवी स्वयं रावण के उदरस्थ हो गईं। इस वजह से रास्ते के बीच में जब उसे लघुशंका की अनुभूति हुई तो वह घने जंगल के बीच निवृति के लिए उतर आया, किन्तु महादेव का कथन याद आते ही शिवलिंग को भू-स्पर्श ना करने देने के लिए उचित माध्यम की तलाश करने लगा। देवयोग से उसे एक चरवाहा बालक दिख पड़ा तो उसने मनोकामना लिंग उसे थमा दिया और लघुशंका निवृति के लिए बैठ गया। माता जाह्नवी के उदरस्थ होने के कारण निवृति में काफी देर होता देख चरवाहा रूपी देवता शिवलिंग वहीं जमीन पर रख वहां से चला गया। इधर, जब रावण की लघुशंका से निवृति हुई तो उसने देखा मनोकामना लिंग जमीन पर रखा हुआ है। इसके बाद रावण ने अथक प्रयास किया किन्तु लिंग टस से मस ना हुआ । रावण के प्रयासों के बीच आकाशवाणी हुई कि भू-स्पर्श न करने का वचन भंग हो गया। इस कारण शिवलिंग को अब अन्यत्र नहीं ले जाया सकता। महादेव के वरदान को मान राक्षसराज रावण ने तब वहीं मनोकामना लिंग को स्थापित कर विधिपूर्वक पूजन-पाठ किया और लंका चला गया। बताते हैं राक्षराज रावण द्वारा प्रथम पूजित होने के कारण इसकी संज्ञा रावणेश्वर बाबा बैद्यनाथ है।

बैद्यनाथ नामकरण कैसे पड़ा: कालांतर में यह विशद निर्जन वन प्रदेश था। इसी क्रम में बैद्यनाथ नामक एक युवक अपने मवेशी चराते-चराते यहां पहुंचा और कंद-मूल फल ढूंढने के क्रम में जमीन खोद रहा था तो उसे काले पत्थर स्वरूप लिंग के दर्शन हुए।इससे वह तत्क्षण घबराकर भाग खड़ा हुआ। रात्रि में उसे स्वप्न की अनुभूति हुई कि वह उसका पूजन करे। इससे वह मनोकामना लिंग के नाम से जगत ख्यात होगा।तब वह पुनः उक्त स्थल जा कर विधिपूर्वक नियमित दुग्धाभिषेक करने लगा। इससे उसका नाम बैद्यनाथ जगत में प्रसिद्ध हो गया। वैसे,जनश्रुतियों के आधार पर कतिपय शास्त्रीय विद्वान इसे वैद्यों के स्वामी की भी संज्ञा देते हैं।

कब से शुरू हुई कांवर यात्रा: हालांकि इस बाबत शास्त्रीय या वैदिक अभिलेख में स्पष्ट अभिमत का अभाव है। लेकिन शास्त्रीय विद्वान बताते हैं कि लंका विजय से पूर्व स्वयं भगवान राम ने उत्तरवाहिनी मन्दाकिनी से जलपात्रों में जल लेकर रावणेश्वर बाबा बैद्यनाथ का जलाभिषेक किया था और यह परम्परा तब से चली आ रही है।

चंद्रकांत मणि का रहस्य: जनश्रुतियों के आधार पर मंदिर के गर्भ गृह शीर्ष पर साक्षात चंद्रकांत मणि विराजमान है, जिससे आद्र हो बून्द-बून्द जल टपक कर जलाभिषेक करता है। हालांकि, यह चंद्रकांत मणि द्रष्टव्य नहीं है,यह चांदनी से सदैव ढका रहता है किंतु तीर्थ पुरोहितों ने इसकी ज्योति को महसूस करने का दावा कई बार किया है।

हाद्रपीठ का रहस्य : बाबा बैद्यनाथ के इस पावन धाम को वस्तुतः हाद्रपीठ रावणेश्वर बाबा बैद्यनाथ कहा गया है जो शिव और शक्ति का केंद्र के रूप में ख्यात है। शास्त्रीय विद्वान बताते हैं कि एक बात दक्ष प्रजापति यज्ञ कर रहे थे और उन्होंने भगवान भोले नाथ को यज्ञ का आमंत्रण नहीं भेजा तो इसे महादेव का अपमान मान देवी सती यज्ञ की प्रज्वलित अग्नि शिखा में स्वयं की आहुति दे दी जिससे महादेव प्रचंड क्रोध में आ गए और सती के कंधे पर उठाए तांडव करने लगे। सम्पूर्ण सृष्टि पर महाप्रलय का संकट देख सभी देव भगवान विष्णु की शरण में त्राहिमाम-त्राहिमाम करते पहुंचे।तब भगवान विष्णु ने जगत कल्याण के लिए सुदर्शन चक्र से देवी सती के शव को 52 टुकड़ों में विभक्त कर दिया । देवी सती के शव के टुकड़े जहां-जहां गिरे उसे शक्ति पीठ के रूप में जाना जाता है। बाबा धाम में देवी सती का ह्रदय गिरा था , जिस कारण इसे हाद्र पीठ भी कहा जाता है। इसलिए बाबाधाम शिव और शक्ति का केंद्र है ।