– डॉ. विपिन कुमार
हिन्दी की हमारी राष्ट्रीय एकता और विकास में बड़ी भूमिका है। यह न सिर्फ हमारी अस्मिता की पहचान है, बल्कि हमारे आदर्शों, संस्कृति और परम्परा की परिचायक भी है। यह अपनी सरलता, सहजता और सुगमता के कारण एक वैज्ञानिक भाषा के रूप में निरंतर नई पहचान कायम कर रही है। हालांकि, हिन्दी के लिए यहां तक पहुंचने की राह आसान नहीं रही है। जैसा कि भारत शुरू से ही संयुक्त राष्ट्र संघ के संस्थापक सदस्यों में रहा है। लेकिन, इसके बावजूद कुछ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों की वजह से हम हिन्दी को इसकी आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए दशकों तक संघर्ष करते रहे। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने में हमने तो प्रयास किए ही, लेकिन इस कड़ी में हमें मॉरीशस, रूस जैसे देशों से भी हर मौके पर काफी मदद मिली है।
साल 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अगुवाई में पहला विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किया गया था, तो उस वक्त इसे संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने का प्रस्ताव मॉरीशस ने ही रखा था और इसे रूस समेत सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले सभी देशों ने अपना समर्थन दिया था।इसके बाद, हर अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलनों में हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा के रूप में मान्यता दिलाने की मांग की गई। वहीं, हमारे राजनेताओं ने भी इस दिशा में अपनी मजबूत इच्छाशक्ति दिखाई। इस कड़ी में भारत रत्न से अलंकृत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के योगदानों को याद करना बेहद अनिवार्य है, क्योंकि वह देश के पहले ऐसे व्यक्तित्व थे, जिन्होंने 1978 में एक विदेश मंत्री के तौर पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपना भाषण हिन्दी में देते हुए वैश्विक मंच पर हमारी भाषा को एक नई पहचान दी। उनके इस प्रयास को श्याम नंदन मिश्र, पीवी नरसिंह राव और राजनाथ सिंह जैसे हिन्दी के शुभचिन्तकों ने उन्हीं के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए आगे बढ़ाने का काम किया।
हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता मिलने में विलंब की मुख्यतः दो कारण थे। पहली वजह कार्य विधि की नियमावली 51 में संशोधन और दो तिहाई देशों का समर्थन हासिल करने की चुनौती थी, तो दूसरी वजह थी आधिकारिक दर्जा मिलने के बाद हिन्दी में होने वाले कामकाज के खर्च का बोझ। चूंकि, आजादी के बाद भारत ने कई उतार-चढ़ाव देखे और कई मौकों पर देश की आर्थिक स्थिति बेहद नाजुक रही। यही कारण है कि कोई भी सरकार इस खर्च को वहन करने की हिम्मत न जुटा सकी। वहीं, मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिडाड एवं टोबैगो, नेपाल और फिजी जैसे देशों में भले ही हिन्दी बोली और समझी जाती हो, लेकिन वे आर्थिक और राजनैतिक रूप से भारत की मदद करने में सक्षम नहीं थे। लेकिन 2014 में राष्ट्रीय राजनीति में जैसे ही नरेन्द्र मोदी का पदार्पण हुआ और वे देश के प्रधानमंत्री बने, हिन्दी का स्वर्णकाल शुरू हो गया। उनके प्रयासों के फलस्वरूप 2018 में संयुक्त राष्ट्र में ‘हिंदी @ यूएन’ परियोजना की शुरुआत हुई, जिसका उद्देश्य संघ की तमाम सूचनाओं को दुनियाभर में फैले हिन्दी भाषी लोगों तक पहुंचाना और उनमें वैश्विक समस्याओं से जुड़े विमर्श को बढ़ावा देना था।
इस कड़ी में भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र को 8 लाख अमेरिकी डॉलर का सहयोग भी किया। यही वजह है कि कुछ समय पहले अरबी, चीनी, अंग्रेजी, रूस, स्पेनिश और फ्रेंच के साथ हिन्दी को भी संयुक्त राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता मिल गई। इस फैसले से स्पष्ट है कि अब संयुक्त राष्ट्र संघ के समस्त कार्यों और उसके उद्देश्यों की जानकारी हिन्दी में उपलब्ध होगी और इससे हिन्दी के वैश्विक प्रसार को एक नई गति मिलेगी। आज संपूर्ण विश्व में 6500 से भी अधिक भाषाएं बोली जाती है, जिसमें मैंडरिन (चीनी) के बाद हिन्दी दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। लेकिन हिंदी शोध संस्थान, देहरादून के महानिदेशक डॉक्टर जयंती प्रसाद नौटियाल के “शोध अध्ययन – 2021” के अनुसार, आज हिन्दी दुनिया की सबसे बड़ी भाषा है। उनका यह शोध केंद्रीय हिन्दी निदेशालय, भारत सरकार,आगरा द्वारा नियुक्त भाषा विशेषज्ञों द्वारा पूर्णतः प्रमाणित है।अब हमने वर्ष 2047 तक एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए ‘पंच प्रण’ का संकल्प लिया है और हिन्दी हमारे पारंपरिक ज्ञान, ऐतिहासिक मूल्यों और आधुनिक प्रगति के बीच, एक महान सेतु की भूमिका निभा रही है। लेकिन, आज जिस तीव्रता के साथ देश के हर कोने में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की संख्या बढ़ रही है। उससे न सिर्फ हिन्दी बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं के लिए अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है।
अतः हमें आज लॉर्ड मैकाले द्वारा भारत पर थोपी गई उस शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करने की जरूरत है, जो सामाजिक और सांस्कृतिक विरासतों को सदियों से धूल-धूसरित कर रहे हैं। इसके लिए हमें एकजुट होकर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के उत्थान और विकास के लिए गांधीवादी आंदोलन को अंजाम देते हुए, अंग्रेजीयत से मुक्त पाने की कोशिश करने होगी। क्योंकि, एक विदेशी भाषा को अंगीकार कर हम चाहे जितनी भी आर्थिक प्रगति कर लें, लेकिन सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता हमें अपनी भाषाओं से ही हासिल हो सकती है।
(लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं। )