Friday, November 22"खबर जो असर करे"

धर्मनिरपेक्षता के नाम पर

– वीरेन्द्र सिंह परिहार

कहने को तो हम एक धर्मनिरपेक्ष देश में रहते हैं। तत्कालीन भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान इसे संविधान की प्रस्तावना में जुड़वा दिया था। धर्मनिरपेक्षता के गुण-दोष पर जाकर कि धर्मनिरपेक्षता के बजाय सही शब्द पंथनिरपेक्षता है, देखने की यह जरूरत है कि राज्य या शासन देश के नागरिकों के मामलों में धर्म के प्रति क्या सचमुच निरपेक्ष या बराबरी का व्यवहार करता है।
उपरोक्त संदर्भाें में यूपीए राज के दौर में वह प्रसंग लोगों की याददाश्त में होगा, जब सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने वर्ष 2011 में एक ड्राफ्ट ‘‘साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिस्सा रोकथाम विधेयक 2011’’ प्रस्तुत किया था। कहने को तो इस विधेयक या ड्राफ्ट का उद्देश्य साम्प्रदायिक घटनाओं पर प्रभावी ढंग से रोक लगाना था। इस विधेयक का तात्पर्य यह था कि हिन्दू आक्रामक है जबकि मुस्लिम, ईसाई और दूसरे अल्पसंख्यक पीड़ित हैं। इस प्रस्तावित विधेयक में ऐसा मान लिया गया था कि दंगा सिर्फ हिन्दू करते हैं, मुसलमान, इसाई और दूसरे सम्प्रदाय के लोग मात्र इसके शिकार होते हैं। यह पहला कानून था जो जाति के आधार पर सजा देने की बात करता था।

इस प्रस्तावित विधेयक में यह भी प्रावधान था कि समूह विशेष के व्यापार में बाधा डालने पर भी यह कानून लागू होता। इसका अर्थ यह था कि अगर कोई अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक समाज के किसी व्यक्ति का मकान खरीदना चाहता है और बहुसंख्यक बेचने से मना कर देता है तो इस विधेयक के अन्तर्गत वह अपराधी घोषित हो जाता। यदि किसी हिन्दू की बात से किसी अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति को मानसिक कष्ट होता तो वह भी अपराध माना जाता। इसका मतलब ‘तीन तलाक’ समाप्त करने की मांग, ‘कॉमन सिविल कोड’ लागू करने की बातें सभी अपराध हो जातीं। आपराधिक कानून के विरुद्ध आरोपी तब तक दोषी था, जब तक वह अपने को निर्दाेष न साबित कर दे। इससे मात्र आरोप लगा देने से पुलिस अधिकारी द्वारा वगैर किसी छान-बीन के हिन्दू को जेल भेज दिया जाता। यदि यह विधेयक पारित हो जाता तो हिन्दुओं का भारत में जीना ही दूभर न हो जाता, बल्कि हिन्दू अपने ही देश में द्वितीय श्रेणी का नागरिक हो जाता और उनके अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता।

यह बात और है कि तब तक हिन्दू समाज इतना जाग्रत हो चुका था, कि उसके मुखर विरोध के चलते यह प्रस्तावित विधेयक कानून का रूप नहीं ले सका। लेकिन गौर करने की बात यह कि साम्प्रदायिकता रोकने के नाम पर इस देश में कैसे-कैसे घोर साम्प्रदायिक एवं विभेदकारी प्रयास किये गये।

इस तरह का यह पहला प्रयास नहीं था, इसके पूर्व 1995 में कांग्रेस सरकार के दौर में वक्फ बोर्ड की धारा 42 में संशोधन कर यह प्रावधान लागू कर दिया गया कि यदि वक्फ बोर्ड किसी जमीन पर दावा कर देता है, तो यह साबित करने का भार जिसकी जमीन है, उसका हो जाता। जिसका उदाहरण अभी तमिलनाडु के त्रिची जिले में सामने आया, जहाँ पर 1500 वर्ष पुराने एक हिन्दू मंदिर पर वक्फ बोर्ड ने अपना अधिकार जता दिया।

विडम्बना यह कि इस्लाम को ही दुनिया में आए अभी 1500 वर्ष पूरे नहीं हुये, फिर उसका 1500 वर्ष पुराने मंदिर पर अधिकार के दावे के औचित्य को समझा जा सकता है। इतना ही नहीं त्रिची जिले के 18 हिन्दू बहुल गावों पर जमीनों पर वक्फ बोर्ड ने अपनी सम्पत्ति घोषित करते हुये अपने अधिपत्य में ले लिया है। जबकि उक्त जमीनों के सभी मालिकाना हक गांव वालों के पास हैं। यह बात तब सामने आई जब उक्त गांवों के एक व्यक्ति ने अपनी बेटी की शादी के लिये अपनी जमीन बेचनी चाही, पर रजिस्ट्री विभाग ने उसे वक्फ बोर्ड से एनओसी लाने को कहा और बताया कि उसके बाद ही जमीन बेचने का अधिकार मिल सकता है। तुष्टिकरण की पराकाष्ठा यह कि 1995 में किये गये धारा 3 में संशोधन के तहत ऐसे एकतरफा कानून को किसी सिविल न्यायालय में चुनौती भी नहीं दी जा सकती। मात्र इन्हें ट्रिब्यूनल में चुनौती दी जा सकती है, जिससे सभी सदस्य मुस्लिम होते हैं। जिसमें सेक्सन 85 के तहत ट्रिब्यूनल का फैसला अंतिम और बाध्यकारी होगा।

गौर करने का विषय यह कि इस्लामी देशों यथा पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, ईरान में भी ऐसा कानून नहीं है। पर धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले भारत में ऐसा तुष्टिकरण की पराकाष्ठा वाला कानून है। यद्यपि उक्त कानून को सर्वाेच्च न्यायालय के अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने उच्च न्यायालय दिल्ली में चुनौती दी है, पर इसका नतीजा क्या होगा, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता।

वक्फ बोर्ड के भी हैसियत के बारे में शायद बहुत लोगों को पता न हो। पर सच्चाई यह कि सेना और रेलवे के बाद सबसे ज्यादा जमीन वक्फ बोर्ड के पास है। बताया जाता है कि 8 लाख एकड़ से ज्यादा भूमि वक्फ बोर्ड के पास है। इतना ही नहीं 8.54509 परिसम्पत्तियां भी वक्फ बोर्ड के पास है। स्थिति यह कि कब्रिस्तान के पास अवैध मजार, मस्जिद की सभी भूमियाँ वक्फ बोर्ड की हो जाता है। बावजूद इसके 2014 में यूपीए सरकार द्वारा जाते-जाते लुटियंस दिल्ली की 123 सरकारी सम्पत्तियां वक्फ बोर्ड को सौंप दी गई। स्थिति की भयावहता यह कि किसी दिन यदि वक्फ बोर्ड यह कह दे कि उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्य उसके अधिपत्य में हैं, क्योंकि यहां पर लम्बे समय तक मुस्लिम शासकों का राज रहा है, तो कानूनी स्थिति यही है कि यह राज्य वक्फ बोर्ड के मान लिये जायेंगे और जो भी व्यक्ति या संस्था इससे सहमत नहीं, तो उन्हें साबित करना होगा कि वक्फ बोर्ड का दावा गलत है।

कुल मिलाकर स्थितियां प्रस्तावित साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक की तरह ही है, जिसमें किसी भी स्थिति में हिन्दू को ही यह साबित करना पड़ता कि वह निर्दाेष है, और मुसलमान या किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के कहने मात्र से हिन्दू दोषी हो जाता। संभवत ऐसी विषम और विभेदकारी शक्तियों से लैस वक्फ बोर्ड को ही समाप्त करने पर मोदी सरकार गम्भीरता से विचार कर रही है, जो एक उचित और सामयिक कदम कहा जा सकेगा। योगी सरकार ने वक्फ बोर्ड की ऐसी अवैध सम्पत्तियों को लेकर राजस्व अभिलेखों में सुधार के लिये आदेश कर दिया है।

इधर कुछ वर्षों से हिन्दुओं में बढ़ती जागरूकता एवं उनमें एक सकारात्मक संगठित होने की प्रवृत्ति के चलते असदुद्दीन ओवैसी और कई हिन्दू विरोधियों का कहना है कि भाजपा और संघ के चलते देश का हिन्दू संकीर्ण, कट्टर और असहिष्णु हो चला है। जबकि सच्चाई यह कि इस देश के हिन्दू समाज को देश की नकली और एकतरफा धर्मनिरपेक्षता क्रमशः समझ में आ रही है। एक हिन्दू के लिये तो बाल विवाह और पर्दा प्रथा कुरीतियाँ थीं, पर मुसलमानों में तीन तलाक, हलाला और बुरका, हिजाब और बहु विवाह का अधिकार सब उनके निजी मामले बताए जाते रहे। इस तरह का दोहरापन अब देश का हिन्दू समाज स्वीकार करने को तैयार नहीं। देश के हिन्दू समाज ने लम्बे समय तक देखा- देश में कैसे जेहादी आतंकवाद तक के प्रति समझौतावादी रवैया अपनाया गया, और उसे काउंटर करने के लिये सफेद झूठ हिन्दू आतंकवाद का जुमला उछाला गया। इस देश के हिन्दू को अब यह समझ में आ रहा है कि जहाँ-जहाँ वह घटा, वह हिस्सा कैसे देश से कट जाता है और वहां हिन्दूओं का रहना दूभर हो जाता है। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण कश्मीर घाटी से वर्ष 1989-90 में हिन्दुओं का पलायन और पश्चिम बंगाल के दस हजार सीमावर्ती गांवों का हिन्दू-विहीन हो जाना है।

इस देश के हिन्दूओं को यह समझ में नहीं आता है कि इस देश में मुल्ला-मौलवी और तथाकथित एवं धर्मनिरपेक्ष नेता जनसंख्या नियंत्रण एवं कामन सिविल कोड को मुस्लिम विरोधी क्यों बताते हैं? जबकि यह दोनों महत्वपूर्ण कदम राष्टहित के लिये अनिवार्य हैं और समतामूलक है। पर ऐसे ही लोगो के रवैए के चलते हिन्दू इस बात को अच्छी तरह समझ गया है कि यदि वर्तमान दौर चलता रहा तो हिन्दू स्वतः एक दिन इस देश में अल्पसंख्यक हो जायेगा और द्वितीय श्रेणी का नागरिक बन जायेगा। जिसको अब देश का राष्ट्रीय समाज स्वीकार करने के लिये कतई तैयार नहीं है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)