– कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस वर्ष ‘ बहुभाषावाद प्रस्ताव’ को पारित करते हुए हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं उर्दू एवं बांग्ला को सहकारी भाषा के रुप में दर्ज कर लिया है। भारत सरकार विश्व स्तर पर यूएन की अन्य छ: आधिकारिक भाषाओं के साथ हिन्दी को भी यूएन की आधिकारिक ( सरकारी) भाषा के रुप में शामिल करने के लिए प्रयासरत दिखती है। लेकिन भारत की राष्ट्रभाषा के तौर पर हिन्दी को स्थापित करने के लिए संसद में प्रस्ताव पारित करने को लेकर इच्छाशक्ति नहीं दिखलाती है। सरकार को प्रायः भाषायी विवादों से डर लगा रहता है। यदि इस पर तत्परता नहीं दिखलाई जाएगी, और हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी के प्रभुत्व को लगातार बढ़ाया जाता रहेगा। तो क्या भविष्य में राष्ट्रभाषा के रुप में हिन्दी को स्थापित किया जाना संभव हो सकेगा? और राष्ट्र भाषा के रूप में हिन्दी की संस्थापना का संविधान ंं निर्माताओं का संकल्प पूर्ण हो सकेगा?
संविधान निर्माण के समय की बहसों एवं संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद भी हिन्दी और संविधान की आठवीं अनुसूची में वर्णित 22 भारतीय भाषाएं उपेक्षित ही हैं। अंग्रेज़ी का वर्चस्व भारतीय भाषाओं एवं मानसिकता पर औपनिवेशिक ठसक के साथ सरकार एवं प्रशासन की विभिन्न कार्यप्रणालियों में दमखम भर रहा है।
भले ही औपचारिक तौर पर संविधान के भाग सत्रह में राजभाषा विभाग का गठन करके संघ एवं राज्यों, शासन , प्रशासन एवं न्यायपालिका के लिए भाषा के प्रयोग से सम्बंधित दिशा निर्देश उल्लेखित किए गए हैं । लेकिन इन पर क्रियान्वयन को लेकर सरकारों की उपेक्षा किसी से भी छिपी नहीं है। संघ एवं राज्यों के लिए संविधान में अनुच्छेद 343 से 351 तक हिन्दी के अधिकाधिक प्रसार और क्रमशः हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के लिए प्रतिबद्धता देने के प्रावधान हैं। इसके बावजूद भी सरकार के स्तर पर गम्भीर एवं स्पष्ट दृष्टिकोण स्वतंत्रता के सात दशक बीत जाने के बावजूद भी नहीं दिख रहे हैं।
यह तो बात रही संवैधानिक उपेक्षा एवं सरकारों की उदासीन प्रवृत्ति की। किन्तु इस अवधि ने जिस प्रकार से आम जनमानस के अन्दर हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर हीनता बोध उत्पन्न किया है,वह हमारी भाषायी शक्ति एवं धरोहर के लिए धीरे धीरे गम्भीर खतरा बनता चला जा रहा है। समाज में प्रायः बोल चाल एवं एक्स्ट्रा माडर्न बनने के चक्कर में हिन्दी एवं विभिन्न राज्यों के निवासियों द्वारा अपनी मातृभाषा का समुचित ज्ञान होने के बावजूद भी उसके प्रयोग में लज्जा का भाव देखा जा रहा है।
स्थिति यहां तक आ चुकी है कि आम बोलचाल में अंग्रेजी के शब्दों का जानबूझकर सिर्फ़ इसलिए अधिकाधिक प्रयोग किया जा रहा है ,ताकि कोई हमें कमतर न समझ सके। जबकि मातृभाषा एवं हिन्दी में विचारों की अभिव्यक्ति जिस आत्मीयता व स्नेह बोध के साथ की जा सकती है,वह अंग्रेजी में संभव नहीं हो पाता है । समाज में धीरे धीरे यह बात स्थापित सी! होती चली जा रही है कि अंग्रेजी में बातचीत करना व उसको पूर्ण रुपेण अपनी दिनचर्या में शामिल करना बुध्दिमान होने व श्रेष्ठता बोध की पहचान है। वहीं भाषायी विवादों व हिन्दी के प्रति दुराग्रह की भावना रखने वालों की राजनीति ने भी देश व समाज की कम हानि नहीं की है। हिन्दी के प्रति दुराग्रह के चलते अपनी मातृभाषा छोड़कर अंग्रेजी को कार्यव्यवहार की भाषा के रुप में प्रयोग करना हीनताबोध का ही परिचायक है।
यहां अंग्रेजी के प्रति दुराग्रह की कोई बात नहीं है यह भी सर्वस्वीकार्य है कि अंग्रेजी वैश्विक सम्पर्क की भाषा है। ज्ञान -विज्ञान, तकनीकी को सीखने के लिए अंग्रेजी का ज्ञान होना आवश्यक है। लेकिन अपनी भारतीय भाषाओं को नकारकर अंग्रेज़ी की दासता स्वीकार करना मानसिक गुलामी ही है। वहीं स्वातंत्र्योत्तर समय से ही प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य बनता था कि अपनी मातृभाषा के साथ – साथ अन्य सभी भारतीय भाषाओं को सीखा जाए। इससे संस्कृति- समन्वय ,साहचर्य का बोध प्रगाढ़ होता तथा भाषायी विवादों एवं भाषा को लेकर खड़ी की जाने वाली राजनीति स्वत: ही समाप्त हो गई होती । लेकिन हमारे राजनेताओं ने कभी भी इस ओर गम्भीरता पूर्वक विचार ही नहीं किया । और इसके दुष्परिणाम प्रायः भाषायी विवादों एवं राजनैतिक छींटाकशी के रुप में समय- समय पर देखने को मिलते हैं। वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए यह अनिवार्य सा! हो चुका है कि -अपनी मातृभाषा के साथ -साथ अन्य भारतीय भाषाओं को सीखा जाए। ताकि भारत की सामासिक संस्कृति एवं साहचर्य के पुल मजबूत हो सकें।
वहीं जो काम अंग्रेज नहीं कर पाए ,उसे हमारे राजनेताओं ने अंजाम पर लाकर खड़ा कर दिया है। उसी की परिणति है कि हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में संचालित स्कूलों में बच्चों का नामांकन दिनोंदिन घटता ही चला जा रहा है। अंग्रेज़ी का प्रभुत्व व अपनी भाषा में शिक्षा को लेकर हीनता बोध क्रमशः समाज की सोच को अपंग बनाता चला जा रहा है।
प्रत्येक माता पिता अपने बच्चों को अंग्रेजी बाबू बनाने के लिए उसका इंग्लिश मीडियम स्कूलों में अन्धाधुंध दाखिला करवा रहे हैं। समाज व सरकार इस गंभीर खतरे को लेकर बिल्कुल भी चिंतित नहीं दिख रही हैं। इसके पीछे हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी माध्यम के स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था की दुर्गति। उच्च शिक्षा में हिन्दी में पाठ्यक्रम व आधारभूत ढांचा खड़ा न किया जाना तथा सरकार की उपेक्षाएं सबसे बड़ा कारण हैं।
यह अन्धी भेंड़चाल समाज की औपनिवेशिक मानसिकता व अंग्रेजी की मीठे जहर से भरी चासनी है। जो देश समाज को घोर अन्धकार और पतन के मुंह में धकेल देगी। सरकारों और उसके सत्ताधीशों को बारी-बारी से सत्ता का सुख मिलता रहेगा । और राष्ट्र को उसकी भाषा-उसकी संस्कृति से काटकर विकलांग बना दिया जाएगा। यह संक्रामक बीमारी तीव्र गति से बढ़ रही है। इसके टीके की बात तो छोड़िए। सरकारें व समूची व्यवस्था इस औपनिवेशिक बीमारी को घर-घर में पहुंचा रही हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति -2020 में प्राथमिक शिक्षा में – हिन्दी या विभिन्न राज्यों की क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई करने के अनिवार्य प्रावधान के बावजूद भी इंग्लिश मीडियम स्कूलों में उनके ही पैटर्न पर अंग्रेजी में शिक्षा दी जा रही है। सीबीएसई, आईसीएसई, एनसीआरटी जैसी व्यवस्थाएं किस लिए हैं?जब वे राष्ट्रीय शिक्षा नीति का पालन नहीं करवा पा रही हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति का कार्यान्वयन करवाने की बागडोर किनके हाथों में है? जिस प्रकार से हिन्दी माध्यम व विभिन्न राज्यों की क्षेत्रीय भाषाओं में संचालित स्कूलों में बच्चों का नामांकन दिनोदिन घटता जा रहा है। उसके दूरगामी परिणाम बहुत ही भयावह होंगे । क्योंकि जो नई पीढ़ी अपनी मातृभाषा व अपनी संस्कृति की जड़ों से कटती चली जाएगी वह फिर अंग्रेजी की गुलामी मानसिकता से जल्दी उबर पाने में सक्षम नहीं होगी। हिन्दी को लेकर सरकारों की उपेक्षा एवं शैक्षणिक, प्रशासनिक, अकादमिक अव्यवस्था के कारण अंग्रेजी का प्रभुत्व व अंग्रेजियत की नई गुलामी का चौतरफा चलन भारतीय भाषाओं को और देश के भविष्य को संकट में डाल देगा। जब समूची व्यवस्था अंग्रेजी की औपनिवेशिक पध्दति की गुलाम हो जाएगी ,तब सिर्फ़ भाषाओं को बचाने के अभियान और दिवस ही मनाए जाते रहेंगे।