– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों ने अदालतों में लंबित मुकदमों, अनावश्यक मुकदमों से न्यायालय का समय खराब करने और अंतिम निर्णय को लंबा खींचने की प्रवृति को लेकर गंभीर चिंता जताई है। इसे सकारात्मक पहल समझना चाहिए। एक मामले में सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील के उपस्थित नहीं होने पर जूनियर वकील के अगली तारीख मांगने पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति डीवाई चन्द्रचूड़ की तारीख पर तारीख वाली अदालत की छवि को बदलने वाली हालिया टिप्पणी इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाती है। जयपुर के एक समारोह में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की टिप्पणी की केसेज में डिस्पोजल नहीं डिसीजन करें कोर्ट महत्वपूर्ण है। न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की यह टिप्पणी भी मायने रखती है कि चालीस साल पहले वे वकील बने तब भी अदालतों की पेंडेंसी मुद्दा थी।आज 40 साल बाद भी स्थिति वहीं की वहीं है। पिछले दिनों केन्द्रीय कानून मंत्री ने भी सकारात्मक टिप्पणी की है। यह अलग बात है कि लाख प्रयासों के बावजूद अदालतों में मुकदमों का अंबार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा।
मोटे अनुमान के अनुसार देश की अदालतों में 7 करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि इस स्थिति परसभी पक्ष चिंतित है। 11 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की उपस्थिति में आयोजित समारोह में राजस्थान के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश एमएम श्रीवास्तव की यह टिप्पणी भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि अदालतों में पेंडिंग 60 प्रतिशत मामले सामान्य प्रकृति के हैं और इन्हें आपसी समझाइश या मध्यस्थता सहित अन्य वैकल्पिक तरीके से निपटाया जा सकता है। यह स्थिति तब है जब लोक अदालत के माध्यम से मुकदमों में कमी लाने की सार्थक पहल अवश्य की गई है। लेकिन ज्यादा बदलाव नहीं आया है। कुछ न्यायविदों का मानना है कि मुकदमों की प्रकृति के अनुसार उन्हें विभाजित किया जाए और फिर समयवद्ध कार्यक्रम बनाकर उन्हें निपटाने की कार्ययोजना बने तो समाधान कुछ हद तक संभव है। यातायात नियमों को तोड़ने वाले मुकदमों की ऑनलाइन निपटान की कोई व्यवस्था हो जाए तो अधिक कारगर हो सकती है। इसी तरह से चैक बाउंस होने के लाखों की संख्या में मुकदमे हैं जिन्हें एक या दो सुनवाई में ही निस्तारित किया जा सकता है। मामूली कहासुनी के मुकदमे एक ही तारीख में निपटा दिए जाएं तो हल संभव है। राजनीतिक प्रदर्शनों को लेकर दर्ज होने वाले मुकदमों के निस्तारण की भी कोई कार्ययोजना बन जाए तो उचित हो।
केन्द्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू की माने तो इंग्लैंड में एक न्यायाधीश एक दिन में तीन से चार मामलों में निर्णय देते हैं जबकि हमारे देश में प्रत्येक न्यायाधीश औसतन प्रतिदिन 40 से 50 मामलों की सुनवाई करते हैं। न्यायमूर्ति डीवाई चन्द्रचूड़ की टिप्पणी पर गौर करने से स्पष्ट हो जाता है कि न्यायाधीशगण रात तीन-तीन बजे जल्दी उठकर केसेज का अध्ययन करते हैं। पूरी मेहनत करने के बाद जब सुनवाई का मौका होता है तो अगली तारीख मांगना कितना गंभीर हो जाता है। यदि न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ की टिप्पणी को ही निचली अदालत तक अपना लिया जाए तो मुकदमों का त्वरित निष्पादन तो संभव ही होगा, बार-बार तारीख पर तारीख मांगने की प्रवृत्ति पर कारगर रोक लगेगी। न्यायालय, वादी और प्रतिवादी सभी का समय और धन की बचत भी होगी। इसके साथ ही मुकदमों का अंबार भी कम हो सकेगा।
पिछले कुछ समय से जिस तरह से पीएलआई को लेकर जुर्माना लगाया जा रहा है, उसके भी सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने लगे हैं। गवाह या याचिकाकर्ता के होस्टाइल होने को भी जिस तरह से अदालतों द्वारा गंभीरता से लिया जाने लगा है, उसके भी परिणाम आने वाले समय में और ज्यादा सकारात्मक होंगे। केन्द्र सरकार अब मध्यस्थता कानून में आवश्यक संशोधन के प्रति गंभीर दिख रही है। चारों तरफ से निराश और हताश व्यक्ति ही न्याय का दरवाजा खटखटाता है। ऐसे में गैरसरकारी संगठनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि वे लोगों में अवेयरनेस लाएं और अदालत से बाहर निपटने वाले मामलों को बाहर ही निपटा लें।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)